भुला न दें अपने आपको !!
अधिकांश लोग अपने छोटे-बड़े स्वार्थों से लेकर जायज-नाजायज ऎषणाओं की पूत्रि्त के लिए औरों को अपना बनाने के चक्कर में ऎसे-ऎसे हथकण्डे अपनाने लगते हैं जिनका कोई सानी नहीं। आजकल लोगों की मानसिकता अंधे स्वार्थों से इस कदर घिर गई है कि सामने स्वार्थ ही स्वार्थ दिखते हैं और इसके लिए हमें कदम-कदम पर तलाश होती है उन लोगों की जो हमारे स्वार्थ पूरे कर सकें और हमें वह हर सुख या सामग्री प्रदान कर सकें जिनसे हम क्षणिक तुष्टि का अहसास कर सकें। रोजाना हम मामूली इच्छाओं के दास बनकर दिन-रात जो कर्म करते हैं उनमें कई काम ऎसे होते हैं जो हमें शोभा नहीं देते हैं। फिर भी स्वार्थ और मोह के अंधे होकर हम सारे आदर्शों और मूल्यों को भुला कर भी अपनी कार्यसिद्धि के हर रास्ते को अपना लेते हैं। स्वार्थ का मार्ग अंधा और अंधेरों से भरा होता है। एक बार यह रास्ता पकड़ लेने के बाद हमें न रोशनी की हमें जरूरत पड़ती है, न हमें रोशनी सुहाती ही है। हम अंधेरा पसन्द लोगों की उस भीड़ में शामिल हो जाते हैं जिसे यही सिखाया गया होता है कि अपना काम करना या करवाना चाहो तो जो कहते हैं वो करो। जो मन में आए वो करो। चाहे इसके लिए हमें कितना ही नीचे गिरना क्यों न पड़े।
अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए हम अपनी मनुष्यता, हमारे गोत्र और कुटुम्ब की मर्यादाओं, सिद्धान्तों और धरम तक को खूँटी पर टाँगने को सदैव तैयार रहते हैं। हमारे अपने क्षेत्र में, अपने आस-पास और अपने समुदाय से लेकर दूर-दूर तक जहां भी किसी गलियारे या बाड़े में नज़र दौड़ाएं तो साफ पता चल जाएगा कि ऎसे लोगों की भरमार है जो मनुष्य का चौला धारण किए होने के बावजूद पशुता तक की सारी हदें लांघ जाने, चाहे जो कुछ करने और करवा लेने तथा पालतु से लेकर सर्कस तक के जानवरों की मानिंद सर्वस्व समर्पण के साथ सारे तमाशों को करने में कहीं पीछे नहीं रहते। इन सभी के पीछे एकमात्र मकसद होता है अपनी स्वार्थ सिद्धि। भले ही इसके लिए खुद को उल्लू या गधा बनना पड़े अथवा दूसरों को उल्लू बनाना पड़े या किसी के पाँव दबाने पड़े अथवा चम्पी करनी पड़े। आज का आदमी खुद के लोगों से तो दूर रहता है और परायों को अपना बनाने के लिए इतने जतन करता रहता है कि मानवता भी अक्सरहाँ लज्जित हो जाया करती है। औरों को अपना बनाने के लिए कई लोग अपने कर्मयोग को और अधिक उन्नत और पुष्ट करते हैं, कई ऎसे काम करते हैं जिनसे सामने वाले खुश हों। पर इस सारी यात्रा में कुछ को छोड़ कर अधिकांश लोग ऎसे होते हैं जो औरों को अपना बनाने के लिए सामने वाले के रंग में रंग जाते हैं, उसके लिए इतना समर्पण दिखा देते हैं कि सामने वाला अभिभूत होकर सब कुछ खोल कर बता देता है या खुल जाता है।
इनमें भी अधिकांश नाकारा, नुगरे और कमीने लोग होते हैं जो औरों को अपना बनाने के लिए तमाम प्रकार की नकारात्मक प्रवृत्तियों को अंगीकार कर इनसे मौके-बे मौके सामने वाले का अभिषेक करते रहते हैं। इस किस्म के लोगों को बिना ज्यादा परिश्रम किए आत्मीय होने का सुकून प्राप्त हो जाता है क्योंकि आजकल आदमी दूसरों की निन्दा और अपनी प्रशंसा सुनने का आदी होता है। औरों को अपना बनाने की हर विधा में माहिर ये छछूंदर हर कहीं घुस जाते हैं और जैसा मौका देखते हैं वैसा व्यवहार करने लग जाते हैं। इन छछूंदरों की श्रद्धा या आस्था किसी एक में नहीं हुआ करती बल्कि जो वर्तमान है उसकी पूजा करने, उसका प्रशस्ति गान करने और उसे अपने हक में बनाए रखने के लिए हर रास्ता अपनाते रहते हैं। वहीं इन लोगों की एक और खासियत होती है कि ये एक समय और एक ही जगह पर रहते हुए कई सारे लोगों को एक साथ उल्लू बनाने की दक्षता भी रखते हैं। औरों को अपना बनाने के लिए की जाने वाली हरकतों में इनके अंधानुचर होने के पूरे लक्षण विद्यमान रहते हैं। और लोग जैसा कहते हैं वैसा ये लोग करने लगते हैं, उनकी हाँ में हाँ मिलाते रहते हैं, दूसरों की नज़रें चुराकर इन लोगों को भ्रमित करते रहते हैं, एक-दूसरे के बारे में ऎसी-ऎसी बातें करते रहते हैं कि सामने वाले लोग इन्हें ही अपनी पूरी जिन्दगी का सबसे बड़ा हितैषी और आत्मीय मानकर इनकी कही और सिखायी गई हर बात को ब्रह्म वाक्य मानकर चलने लगते हैं।
हालांकि इन अंधेरा पसंद लोगों के चक्कर में वे ही लोग आते हैं जिन्हें भी कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में अंधेरा ही पसंद हुआ करता है। फिर जो जैसा होता है वह वैसे को ही पसंद करता है, यह सिद्धान्त भी परस्पर इन पर अच्छी तरह लागू होता है। क्योंकि इनके चक्कर में आने वाले लोग भी कहाँ दूध के धुले हुए होते हैं। ये भी अगर स्वस्थ मानसिकता के होते तो इन छछूंदरों के झाँसे में क्यों आते? जो भी लोग अपने से नीचे या साथ के लोगों की गिरी हुई नीच मानसिकता से घिरे रहते हैं, वे खुद भी अपने वजूद को बनाए रखने के लिए दूसरे लोगों तथा अपने से ऊपर के लोगों की चापलूसी करने और उन्हें प्रसन्न रखने के तमाम वैध-अवैध जतन करने से पीछे नहीं रहते। औरों को अपना बनाने वालों की लम्बी श्रृंखला जाने कब से चली आ रही है। सच तो यह है कि जो जैसा होता है, उसकी पसन्द भी उस तरह की ही होती है, साथी संगी भी वह वैसे ही तलाशता है, दूसरों के इशारों पर नाचता भी है, और दूसरों से काम निकलवाने के लिए वह हर कोशिश करता है जिसे सभ्य कहा जाने वाला स्वाभिमानी आदमी किसी कीमत पर करने को तैयार नहीं होता।
हमारे आस-पास ढेरों लोग ऎसे होते हैं जिनकी पूरी जिंदगी औरों की अनिर्वचनीय सेवा और जी हूजूरी करते हुए गुजर जाती है और ये लोग जिन्दगी की पूरी गाड़ी दूसरों के भरोसे फास्ट ट्रैक पर ले जाते हुए आगे बढ़ते रहते हैं। लेकिन इतना जरूर है कि इस पूरी यात्रा के कई प्रत्यक्ष और परोक्ष पड़ावों को पार करते हुए ये अपने आपको इतना भुला बैठते हैं कि इनमें शर्म नाम की कोई चीज बची ही नहीं रहती जो जमाने की नज़रों में ये अपने आपको हीन महसूस कर सकें। हर कहीं और हर किसी के सामने हाथ फैलाकर पसर जाने की खूबी, बेशर्मी और औरों के प्रति मिथ्या समर्पण के अभिनयों से गुजरते हुए ये लोग जीवन भर इसी बात को लेकर खुशफहमी पाले रहते हैं कि जाने कितनों को ही अपना बना लेते हुए उन्होंने जो कुछ पा लिया है वह बहुत खूब है। और इतना सारा कि एक आम आदमी अपनी पूरी जिन्दगी में भी निष्ठावान पुरुषार्थी रहकर प्राप्त नहीं कर पाता।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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