चर्चा: दिल्ली में होती हैं ‘‘डील‘‘
देहरादून, 1 सितम्बर। प्रदेश में हुए तीसरे विधानसभा चुनाव के बाद अस्तित्व में आयी कांग्रेस की सरकार दिल्ली और देहरादून के बीच झूल रही है। वह महीने में बमुश्किल 10 ही देहरादून में दिखायी देती है। शेष समय उसका दिल्ली में ही गुजरता है। इन 20 दिनों में दिल्ली में क्या राज्य हित के कार्य होते हैं तो राजनैतिक विश्लेषक इससे इत्तेफाक नहीं रखते। राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि यदि उत्तराखण्ड सरकार दिल्ली में रह कर राज्य हित की चिन्ता करती तो राज्य को मिलने वाले एपीएल राशन कोटे में कैसे कटौती हो गयी यह विचारणीय है। इतना ही नहीं राज्य सरकार ने केन्द्र से राज्य में आयी आपदा के लिए 600 करोड़ रूपये की मांग की थी लेकिन केन्द्र ने अभी तक राज्य को मात्र 150 करोड़ की ही धनराशि दी है जो आपदा से निपटने के लिए नाकाफी बताई जा रही है। ऐसे में अब यह सवाल उठता है कि आखिर प्रदेश के मुख्यमंत्री राज्य को छोड़ दिल्ली में ऐसा क्या कर रहे हैं जिसका संदेश राज्यवासियों तक नहीं जा पा रहा है। मुख्यमंत्री के इस तरह के दिल्ली प्रवास पर नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट का तो कहना है कि सरकार देहरादून के बजाय दिल्ली से चल रही है और मुख्यमंत्री केवल पांच दिन ही देहरादून में रहते हैं। उनका साथ ही यह भी कहना है कि राज्य निर्माण के दिन से लेकर दो चुनी हुई सरकारों सहित एक अंतरिम सरकार ने राज्य में शासन चलाया लेकिन किसी भी मुख्यमंत्री ने देहरादून व दिल्ली के बीच इतने अल्प समय में इतनी यात्रायें नहीं की जितनी कि मुख्यंमत्री विजय बहुगुणा ने की हैं। उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री का तीन दिनी कार्यक्रम पर वे बीते दिन दिल्ली चले गये थे,वे तीन सितम्बर को देहरादून आयेंगे।
राजनैतिक हलकों में चर्चा है कि मुख्यमंत्री अभी भी अपने को मुख्यमंत्री के पद पर होने का आत्मसात नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि वे पहले टिहरी क्षेत्र से लोकसभा प्रतिनिधि थे लिहाजा इस वजह से उनका दिल्ली से ही ज्यादा सम्पर्क रहा है ऐसे में अब वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हैं उन्हे दिल्ली के बजाय राज्य की चिन्ता कर राज्य की राजधानी अथवा राज्य में ही रहना चाहिए ताकि राज्यवासियों को मुख्यमंत्री को ढूंढने दिल्ली की यात्रा न करनी पड़े। वहीं विश्लेषकों का यह भी मानना है कि मुख्यमंत्री राज्य के छोटे बड़े सभी मामलों को लेकर बार-बार दिल्ली दौड़ लगाने के बजाय अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए इनका निदान देहरादून बैठकर ही निकालें, लेकिन वहीं मुख्यमंत्री के विरोधियों का कहना है कि ऐसा मुख्यमंत्री अनजाने में नहीं कर रहे हैं बल्कि वे यह सब इसलिए जानबूझकर कर रहे हैं ताकि केन्द्र में बैठे आला नेताओं के यह समझ में आये कि उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री बिना उनके पूछे कोई निर्णय नहीं करते जिससे वे 10 जनपथ की नजरों में आज्ञाकारी नेता की छवि बनाकर रख सकें इसके पीछे एक मकसद बताया जा रहा है कि राज्यवासियों अथवा प्रदेश के नेताओं में यह संदेश भी देने की कोशिश है कि जो भी निर्णय हो रहा है वह 10 जनपथ से हो रहा है। जिसका वे राजनैतिक लाभ भी ले रहे हैं। राजनैतिक विश्लेषकों के अनुसार मुख्यमंत्री का नियंत्रण न तो मंत्रियों पर ही रहा है और न ही पार्टी के विधायकों पर ऐसे में बेलगाम होते नेताओं पर नियंत्रण कर पाना मुख्यमंत्री के लिए चुनौती भी बनी हुई है, को दायित्वधारी अपनी ही सरकार के मंत्री को कटघरे में खड़ा कर रहा है तो कोई विधायक अपनी ही सरकार के खिलाफ धरने पर बैठ रहा है ऐसे में मुख्यंमत्री का बार-बार दिल्ली दौरा प्रदेश में कई तरह के सवालों को भी छोड़ता जा रहा है कि उत्तराखण्ड की अस्थायी राजधानी देहरादून में है न कि दिल्ली में। मुख्यमंत्री के लगातार हो रहे दिल्ली दौरों पर राज्य में चर्चा है कि इस बीच देश की राजधानी में राज्य से जुड़े कई मामलों ‘‘डील‘‘ की जानकारी छन-छन कर आ रही है। इसमें सितारगंज के सिडकुल औद्योगिक क्षेत्र में दो कम्पनियों से ‘‘डील‘‘ लगभग अंितम चरण में बतायी जा रही है वहीं भाजपा शासनकाल में भाजपा सरकार द्वारा निरस्त की गयी 56 जलविद्युत परियोजनाओं की डील को भी आगे बढ़ाये जाने की चर्चा जोरों पर है।
(राजेन्द्र जोशी)
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