सामाजिक सांस्कृतिक हों या परिवेशीय !!
भारतीय संस्कृति की तमाम परंपराएं वैज्ञानिकता की कसौटी पर इतनी खरी और ऋषि-मुनियों द्वारा परखी हुई हैं कि जब तक उनका अवलम्बन होता रहेगा, तब तक मानवी सृष्टि को किसी भी बाहरी आपदाओं का सामना नहीं करना पड़ेगा। बात धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और साँस्कृतिक परम्पराओं से लेकर उन सभी अच्छी धाराओं की है जो सदियों और युगों से हमारे जनजीवन को आनंदित और उल्लसित करती चली आ रही हैं। इन परम्पराओं से हमारे समुदाय और परिवेशीय सामाजिक-आर्थिक तानों-बानों को मजबूती मिलती है व सामूहिक सोच की भावना के साथ निरन्तर आगे बढ़ते रहने की भावनाएं प्रबल होती हैं। इन परंपराओं का ही कमाल है कि आज तक हम जीवंत और उदात्त बने हुए हैं। हमारे पुरखों ने सदियों तक इन परंपराओं का संरक्षण और संवद्र्धन किया लेकिन हम इस मामले में फिसड्डी साििबत होने लगे हैं। यही कारण है कि मानवी सृष्टि से लेकर परिवेश में सुनहरे रंग भरने वाली हमारी कई परंपराएं विलुप्त हो गई हैं और कई लुप्त होने के कगार पर हैं। सामाजिक जीवन से इन परंपराओं को निकाल दें तो हमारे समग्र जीवन भर में से उल्लास और जीवनीशक्ति के पुनर्भरण की सारी क्षमताएं ही समाप्त हो जाएं और हम ऎसा शुष्क जीवन जीने लग जाएंगे जहाँ दूर-दूर तक मरुथल होगा और गर्म हवाएँ हमारे पारंपरिक आधारों को आंधियों के साथ जाने कहाँ उड़ा ले जाएंगी। जीवन में सरसता, समरसता और आह्लाद बरसाने वाली ये परंपराएं ही हैं जो हमें उन सभी लोगों से पृथक करती हैं जिनका विश्वास न घर-परिवार में रहा है न कुटुम्ब में। इन परंपराओं की ही वजह से हम कौटुम्बिक और पारिवारिक रिश्तों में बंधे हुए हैं वरना हम भी उन गोरी चमड़ी वालों की ही तरह उन्मुक्त, स्वच्छन्द और तटहीन हो जाते।
मानवीय संवेदनाओं और ऎतिहासिक भावभूमि से निरन्तर हम इतना दूर भाग रहे हैं कि हमारे जीवन और समाज को सिंचने वाली धमनियाँ कहीं सिकुड़ गई हैं, कहीं बंद हो चली हैं। भारतीय आत्मा और संस्कृति तथा पुरातन सभ्यता की जड़ों को हमने निर्ममता के साथ काट दिया है और अब मैकाले के मंत्र फूँक-फूँक कर ठूँठों में प्राण लाने की निरर्थक कोशिशें कर रहे हैं। अब हमारे सामने परंपराओं की जीवनीशक्ति का अभाव होने लगा है और हम उस वृक्ष के नीचे आ खड़े हुए हैं जिसकी जड़ों को हम अपनी क्रूर दाढ़ों से चबा चुके हैं और नीचे खड़े होकर रोते हुए यह प्रार्थना करने लगे हैं कि कभी कोई जोर की आँधी न आए ताकि हम सही सलामत रहें। काली आँधियाँ इन दिनों खूब चलने लगी हैं, हवाएँ कहीं थम गई हैं तो कहीं बदचलन होकर बहने लगी हैं। लोग हवाओं का रुख बदलने को आमादा हैं तो कई जगहों पर हवाओं को अपनी मुट्ठी में बाँधने के जतन होने लगे हैं। परम्पराओें की हत्याओं का मतलब है हमारी पीढ़ियों की हत्या, हमारे पूरे सामाजिक ढाँचे का निर्मम कत्ल, और उन सभी मूल्यों का अंत जिनकी बदौलत मनु से चली परंपरा आज भी बरकरार है।
पहचानना होगा कि वे कौन लोग हैं जो हमारी परंपराओं पर कुल्हाड़ी चला रहे हैं। ये वे ही लोग हैं जिनके लिए पैसा ही परमेश्वर है और ये उल्लू जिन्दगी भर पैसों की लालच में रात-दिन इधर-उधर भाग रहे हैं। शैशव में संस्कारों के अभाव की वजह से इनका पूरा ध्यान उसी तरह गया है जिस तरफ पैसों और भोग-विलासिता की जबरदस्त चकाचौंध व्याप्त है। अब यौवन या अधेड़ावस्था तक पहुंचते-पहुंचते चकाचौंधी चमक के पक्की पड़ जाने के बाद इनमें कोई ग्राह्यता शेष नहीं रह गई है कि कोई संस्कार सीख या अपना सकें। इन लोगों के लिए पैसों और अमर्यादित स्वच्छन्द-उन्मुक्त भोग-विलास के आगे सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक परंपराओं का कोई मूल्य नहीं है। यही कारण है कि जहाँ आम लोग परंपराओं में जीते हुए आनंद और उल्लास की अभिव्यक्ति को प्रमुख मानते हैं, उन्हें ये लोग गौण मानते हैं। आमजन में जिस अनुपात में सामाजिकता होती है उससे भी कहीं ज्यादा परम्पराओं के इन हत्यारे लोगों में असामाजिकता होती है। यह अलग बात है कि ‘समरथ को नहीं दोष गोसाई’ की रीत के चलते समझदार लोग कुछ कह नहीं पाते हैं, मगर समझते सब लोग हैं।
आज कितने लोग हैं जो स्वतंत्रतापूर्वक और आत्मीय आनंद के साथ उत्सवों या परंपराओं का आनंद ले पाते हैं। लोग चाहें तब भी ऎसे-ऎसे लोग हमारे आस-पास छा गए हैं जो आनंद और उत्सवी परंपराओं के सभी रास्तों मेें किसी न किसी प्रकार का स्पीड़ ब्रेकर लगा ही देते हैं। चमड़े के सिक्के चलाने के आदी इन लोगों के लिए जो कुछ मिला है उस हर क्षण का उपयोग कर लिए जाने की मंशा इतनी हावी रहती है कि इन्हें आम लोगों का भान ही नहीं रहता। जरूरी यह है कि जो लोग समझदार हैं उन्हें चाहिए कि आम लोगों को पूरी मस्ती के साथ छुट्टियाँ भी मनाने दें और उन उत्सवों में भी तंग न करें जो सामाजिक-सांस्कृतिक आनंद को बहुगुणित करते हुए जीवन में नई ताजगी का अहसास कराते हैं। ये अवकाश और आनंद ही बाधित हो जाएंगे तो जीवनीशक्ति का जो ह्रास होने लगेगा, तनावों के कारण मानसिक स्थितियां खराब होंगी, उन सभी का ख़ामियाजा आखिर समाज और राष्ट्र को ही भुगतना पड़ेगा। लेकिन उन लोगों को समाज या राष्ट्र से क्या मतलब, जो किन्हीं और उद्देश्यों से अपने-अपने डण्डे और झण्डे लेकर मैदान में जलेबी दौड़ लगा रहे हैं।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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