इस चारागाह के चरवाहे
आजकल उत्तराखंड में अजीब किस्म की हलचल दिख रही है। आसमान से लेकर सड़क पर खूब भागदौड़ बढ़ी हुई है। इस भाग-दौड़ का मुख्य बिंदु टिहरी बताया जा रहा है। जहां से चुनावी भूकंप के झटके उठ रहे हैं, और यही टिहरी राजनीतिक पार्टियों को किसी चारागाह से कम नजर नहीं आ रही है। जिस प्रकार गाय-भैंस और बकरियांे का चारागाह होता है, उसी प्रकार टिहरी और ये पहाड़ी मुल्क भी राजनेताओं का चारागाह साबित हो रहा है। जिस प्रकार समाज के हर वर्ग में श्रेणी पायी जाती है उसी प्रकार की श्रेणी राजनीतिक चारागाह में भी होती है। सबसे निचले स्तर पर कार्यकर्ता टाइप के चरवाहे होते हैं, फिर ब्लाॅक, जिला स्तर के होते हैं, राज्य स्तर पर आते-आते इनकी श्रेणी इतनी उच्च हो जाती है कि चरवाहे के मायने ही बदल जाते हैं। क्योंकि ये चरवाहे वीआईपी श्रेणी में आते हैं और ये चरवाहे अपने आप को कुलीन तो समझते ही हैं लेकिन अपने को कुछ ‘‘खास‘‘ ही दिखाने का प्रयास करते नजर आते हैं। उत्तराखंड की जमीन भी राजनीति के लिहाज से खासी उर्वरक और उपजाऊ है इन राजनीतिक ‘‘खास‘‘ लोगों के लिए। यही वजह है कि यहां देष के कोने कोने से भांति-भांति किस्म के नेता अपनी नेतागिरी चमकाने आते रहे हैं।
उत्तराखंड का पिछले बारह साल का इतिहास टटोलें तो प्रदेष में कई पैराषूट नेता ने यहां ना सिर्फ लैंडिंग ही की बल्कि यहां पर राजनीति का ककहरा सीखने के बाद वे राष्ट्रीय राजनीति में भी चमके। कुछ नेता ऐसे भी थे जो उत्तराखंड को कतई भी पसंद नहीं करते थे लेकिन आखिरकार झक मार के यहां आये और खूब लूट-खसोट की। लेकिन इलाकाई नेता जो इस उपजाऊ जमीन पर ढंग से नहीं पनप पाये। हालांकि किसी तारे की तरह कुछ समय के लिए राजनीति के अयन मंडल में ये नेता जरूर टिमटिमाये, लेकिन अब इनकी टिमटिमाहट उतनी नहीं है। इसका कारण शायद इन इलाकाई राजनेताओं को राजनीतिक करने का शऊर नहीं था। तमाम वजहों के चलते बाहरी चरवाहे उत्तराखंड जैसे नए-नवेले चारागाह में आये और जमकर सेंधमारी की, जिसका फायदा बाहरी लोगों को ही खूब मिला। विभिन्न संगठनों, दलों और ना जाने किन-किन जगाहों से आये ये लोग यहां के मठाधीष तक बन बैठे। यही वजह है कि प्रदेष में होने वाले हर चुनाव में इनको सक्रिय देखा जा सकता है। इतना ही नहीं इन लोगों की संख्या में कमी की बजाय हर चुनाव में तेजी देखने को मिल रही है। जिससे प्रदेष का मूल नेता हाषिये पर सरकता जा रहा है। हाल ही का उदाहरण देखिए, टिहरी में लोकसभा उपचुनाव होने जा रहा है। इस संसदीय सीट पर दोबारा इतिहास दोहराया गया। तमाम दलों ने स्थानीय लोगों को अपना प्रतिनिधि चुनने के बजाय बाहरी लोगों को तरजीह दी। कांग्रेस, भाजपा से लेकर उत्तराखंड रक्षा मोर्चा ने बाहरी लोगों को चुनाव में उतारा, हां एक मात्र यूकेडी पी ने स्थानीय निवासी पर जरूर दांव खेला है।
कांग्रेस ने जहां साकेत बहुगुणा पर दांव खेला, वहीं भाजपा ने टिहरी राजपरिवार की महारानी राजलक्ष्मी शाह पर भरोसा जताया है, उत्तराखंड रक्षा मोर्चा ने कुंवर जपेंद्र सिंह को चुनावी मैदान में उतारा है। गौर से अगर आंकलन किया जाये तो इन तीन राजनीतिक पार्टियों के उम्मीदवार किस लिहाज से यहां के मूल निवासी हैं यह विचारणीय है। हालांकि भाजपा उम्मीदवार राजघराने की बहु होने के नाते मूल निवासी के दायरे में फिट बैठ सकती है लेकिन वो भी विदेषी मूल की है। लेकिन कांग्रेस और उत्तराखण्ड रक्षा मोर्चा के प्रत्याषी यहां के मूल निवासी नहीं हैं। ऐसे में राजनीति के इस चारागाह में बाहरी और नये-नवेले चरवाहे पर लोग-बाग भी टिप्पणी कर रहे हैं। लोगों का यहां तक कहना है कि यहां के लोगों ने जिस प्रदेष का सपना देखा था वो महज सपना रह गया है, और ये प्रदेष सिर्फ राजनेताओं के लिए किसी चारागाह बनकर रह गया है। इतना ही नहीं लोगों का कहना है कि इस प्रदेष का दुर्भाग्य देखिए कि बाहरी लोग ना जाने कैसी-कैसी पार्टियों सेे यहां आकर अपनी पैठ बनाते हैं। इन दिनों प्रदेष में भारतीय बल्द पार्टी के नेता की आने की बात भी कह रहे हैं, जो कांग्रेस के हाथ के सहारे अपनी नैया पार लगाने जुगत में है।
लेकिन सवाल ये है कि इस चारगाह के चरवाहे क्या बाहरी होंगे, या फिर कभी यहां के लोग भी इतने मजबूत होंगे कि वो खुद ही चरवाहे की भूमिका निभा सके। खैर महान जर्मन कवि ने कभी लिखा था कि ...............और चरवाहे से नाराज भेड़ों ने कसाई को मौका दे दिया, उन्होने जनवाद के खिलाफ मत दिया क्योंकि वह जनवादी थे।
(राजेन्द्र जोशी)
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