सर्वोच्च न्यायालय शिक्षा के अधिकार (आरटीई) पर अपने उस पूर्व आदेश की समीक्षा नहीं करेगा, जिसमें उसने कहा था कि निजी स्कूलों को भी दाखिले में 25 प्रतिशत सीटें गरीब छात्रों के लिए आरक्षित रखनी होंगी। न्यायालय ने इस आदेश की समीक्षा किए जाने का अनुरोध करने वाली याचिका खारिज कर दी। सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस. एच. कपाड़िया, न्यायमूर्ति के. एस. राधाकृष्णन तथा न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार की पीठ ने कहा, "समीक्षा याचिका खारिज की जाती है।" यह आदेश मंगलवार को ही आया था, जिसे बुधवार को सार्वजनिक किया गया।
न्यायालय ने इस साल 12 अप्रैल को अपने आदेश में कहा था कि दाखिले में 25 प्रतिशत सीटें गरीब छात्रों के लिए आरक्षित करने का प्रावधान गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों के साथ-साथ उन अल्पसंख्यक संस्थानों पर भी लागू होगा जो अपने खर्च की पूर्ति के लिए सरकार से अनुदान प्राप्त करते हैं। न्यायमूर्ति राधाकृष्णन ने हालांकि अपने स्वतंत्र निर्णय में कहा कि 14 साल से कम उम्र के बच्चों को नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा मुहैया कराने से सम्बंधित शिक्षा के अधिकार कानून में आरक्षण का प्रावधान संवैधानिक रूप से वैध नहीं है।
उन्होंने कहा कि अल्पसंख्यक संस्थान सहित गैर सहायता प्राप्त स्कूलों को अपने संस्थानों में 25 प्रतिशत सीटें कमजोर वर्ग के लिए आरक्षित रखने पर बाध्य नहीं किया जा सकता। प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति कपाड़िया तथा न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार ने हालांकि इससे अलग रुख जताया। तीनों न्यायमूर्तियों ने हालांकि शिक्षा के अधिकार से सम्बंधित कानून की संवैधानिक वैधता बरकरार रखी।
प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति कपाड़िया ने बहुमत के आधार पर निर्णय सुनाते हुए कहा, "इसमें कोई विवाद नहीं है कि शिक्षा एक परोपकार है। इसलिए यदि कोई शैक्षणिक संस्थान इससे अलग जाते हुए वाणिज्यिकरण को अपनाता है तो इसे संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(जी) के तहत सुरक्षा प्राप्त नहीं होगी।" संविधान का अनुच्छेद 19 (1)(जी) नागरिकों को आजीविका के लिए कोई भी पेशा अपनाने का अधिकार देता है।
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