युगों तक याद आएंगे
स्वतंत्रता संग्राम और लोक जागरण की गतिविधियों के साथ ही विकास के लिए समर्पित शख्सियतों में स्व. करुणाशंकर पण्ड्या का नाम आदर से लिया जाता रहा है। उन्होंने स्वतंत्रता सेनानियों हरिदेव जोशी, गौरीशंकर उपाध्याय, भोगीलाल पंड्या सहित क्षेत्र के अनेक सेनानियों के साथ मिलकर स्वातंत्र्य चेतना एवं सामाजिक लोक जागरण की गतिविधियों में जो योगदान दिया वह इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ में समाहित है।
करुणाशंकर पण्ड्या का जन्म 2 अक्टूबर 1928 ( तदनुसार आश्विन शुक्ला षष्ठी, संवत् 1984, रविवार) को औदिच्य ब्राह्मण परिवार में पिता नानूराम पण्ड्या के घर केसरबाई की कोख से हुआ। उनके पिता नानूराम पण्ड्या तत्कालीन डूंगरपुर रियासत में गिरदावर के पद पर राज्य सेवा मंे थे। मात्र दस वर्ष की आयु में ही माता का साया इनके सर से उठ गया। बाद में उन्होंने विभिन्न स्थानों पर शिक्षा हासिल करते हुए हाई स्कूल तक पढ़ाई पूरी कर ली और अपने को स्वाधीनता आन्दोलन में झोंक दिया।
शैशव से स्वाधीनता गतिविधियों में रुचि
उनकी शिक्षा-दीक्षा तीन-चार अलग-अलग स्थानों पर हुई। डूंगरपुर के महारावल स्कूल से नवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी करने के बाद हाई स्कूल की परीक्षा उन्होंने फतह हाई स्कूल उदयपुर से उत्तीर्ण की। उन्होंने जीवन-व्यवहार की दीक्षा स्वतंत्रता सेनानी भोगीलाल पण्ड्या द्वारा स्थापित वागड़ छात्रावास में रहकर प्राप्त की। यहीं उन्हें भोगीलाल पण्ड्या, गौरीशंकर उपाध्याय, चन्दूलाल गुप्ता, हरिदेव जोशी जैसी स्वनामधन्य शख़्सियतों का सान्निध्य प्राप्त हुआ। करुणाशंकर पण्ड्या ने अपना पूरा जीवन लोक सेवा और आदर्श विचारधाराओं के प्रसार में लगा दिया। सामाजिक लोक जागरण, स्वतंत्रता संग्राम और संघर्ष भरी विभिन्न गतिविधियों में उन्होंने जी-जान से अहम् भूमिका निभायी और यातनाएं सहीं।
बड़ी हस्तियों के सान्निध्य में निखरा व्यक्तित्व
इस सफर में उन्हें भोगीलाल पण्ड्या, गौरीशंकर उपाध्याय, चन्दूलाल गुप्ता, हरिदेव जोशी, अमृतलाल परमार, शेरे कटारा देवराम शर्मा, दैनिक वागड़दूत के संस्थापक किशनलाल गर्ग, शिवलाल कोटड़िया, कुरीचन्द जैन, धूलजी भाई वर्मा, भैरवलाल वर्मा, तुलसीराम उपाध्याय, लालशकर डी. जोशी, प्रताप वर्मा सहित क्षेत्र के अनेक सेनानियों का सहयोगी सम्बल व सान्निध्य प्राप्त हुआ।
हरिदेव जोशी से प्रेरणा पा कूदे स्वतंत्रता संग्राम में
देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संग्राम की आग भड़क उठने पर करुणाशंकर चुप नहीं रह सके और तभी से उन्होंने विभिन्न कार्यक्रमों में भाग लेना शुरू कर दिया। एकतंत्री हुकूमत के अमानवीय व्यवहार के विरोध में वे हरिदेव जोशी की प्रेरणा से आगे आए। सन् 1942 में भारत छोडो आन्दोलन में सक्रिय भाग लेने के साथ ही उनका संघर्षवादी स्वरूप निखरने लगा। जब सेवा संघ ने भारत छोड़ो आन्दोलन में हिस्सेदारी का प्रण किया उस समय स्व. जोशी से प्रेरित होकर विद्यार्थियों का संगठन बनाया और उसके प्रथम अघ्यक्ष का पदभार संभाला।
विद्यार्थी कांग्रेस का बीजारोपण किया
इसके बाद से ही स्वाधीनता आन्दोलन में विद्यार्थियों की भागीदारी को नेतृत्व प्राप्त हुआ और विद्यार्थियों की संघर्ष सभाओं के आयेाजन का दौर शुरू हुआ। 1944 में विद्यार्थी कांग्रेस की स्थापना कर प्रमुख पद ग्रहण किया। इसी दौरान् 6 सितम्बर 1942 को भारत छोड़ो आन्दोलन के समर्थन में डूंगरपुर मुख्यालय पर करुणाशंकर पण्ड्या के नेतृत्व में विद्यार्थियों का बड़ा जुलूस निकला। विद्यार्थियों द्वारा स्कूल से बहिष्कार कर आन्दोलन में भाग लेने की वजह से अगले दिन करुणाशंकर एवं अन्य विद्यार्थियों को प्रधानाध्यापक कृष्णानन्द चौधरी द्वारा पिटायी का सामना करना पड़ा। इसी दिन इन विद्यार्थियों पर आठ आने से लेकर एक रुपया तक जुर्माना किया गया।
प्रजामण्डल में भागीदारी
सन् 1944-45 में प्रजा मण्डल की गतिविधियों में स्व. भोगीलाल पंड्या के साथ काम किया और सेवा दल की नींव रखी। उन्हें सेवा दल के अधिपति का दायित्व सौंपा गया। इसी बीच उन्होंने विद्यार्थी संघ को सेवादल में बदल दिया। 3, 4 एवं 5 अप्रैल 1946 को प्रजा मण्डल का अधिवेशन डूंगरपुर में आयोजित हुआ। इस अधिवेशन की सम्पूर्ण व्यवस्थाओं का दायित्व सेवादल के विद्यार्थियों को सौंपा गया। इसके लिए करुणाशंकर पण्ड्या ने 180 विद्यार्थियों के समूह पर तीन दलपति बनाए। एक दल के दलपति का भार उन्होंने स्वयं ने उठाया तथा शेष दो दलों के दलपति के रूप में कन्हैयालाल चौबीसा एवं लालशकर डी. जोशी ने काम संभाला।
बर्दाश्त नहीं हुआ तिरंगे का अपमान
अधिवेशन के अंतिम दिन डूंगरपुर में बाकर अली बोहरा एवं उसके साथियों ने सेवादल के स्वयंसेवक बनवारीलाल की पिटाई कर दी तथा उसकी साईकिल पर लगे तिरंगे झण्डे को जला दिया। इस घटना से विद्यार्थी उत्तेजित हो गए एवं करुणाशंकर पण्ड्या के नेतृत्व में विरोध प्रदर्शन के लिए प्रस्थान किया लेकिन भोगीलाल पण्ड्या एवं गौरीशंकर उपाध्याय के समझाने पर यह समूह शांत हुआ। अगले दिन 6 अपै्रल को भोगीलाल पण्ड्या के नेतृत्व में जुलूस लेकर करुणाशंकर पण्ड्या एवं साथियों को लेकर बाकर अली बोहरा के घर गए व वहां प्रदर्शन किया। प्रदर्शनकारियों के उग्र रवैये को देखकर बाकर अली बोहरा के हाथों फिर से तिरंगा झण्डा लगवाया गया और उससे माफी मंगवाने के बाद ही प्रदर्शनकारी लौटे। पण्ड्या को सन् 1946 में स्वतंत्रता आन्दोलन की गतिविधियों में हिस्सेदारी के लिए धारा 144 तोड़ने में जुर्म में गिरफ्तार किया गया। उन्हें भारत छोड़ो आन्दोलन में हिस्सा लेने के कारण नौंवी कक्षा में अनुत्तीर्ण कर दिया गया।
रियासत ने दिया डूंगरपुर छोड़ने का हुक्म
तत्कालीन रियासत को इनकी गतिविधियां नागवार गुजरने पर सन् 1947 में महारावल स्कूल से निकाल दिया गया और डूंगरपुर रियासत छोड़ कर एक वर्ष के लिए बाहर जाने का हुक्म दिया गया। इस पर उन्होंने उदयपुर जाकर फतह हायर सैकण्डरी स्कूल में दाखिला लिया और हाई स्कूल पास की। वहां अध्ययन के साथ-साथ स्वतंत्रता से संबंधित गतिविधियों में भी दखल बना रहा। उदयपुर में ही जिस विशाल जुलूस में विद्यार्थी शान्ति और आनन्दी गोलियों के शिकार होकर शहीद हुए, उस जुलूस में पण्ड्या भी शामिल थे।
गुप्तचरी का काम कर दिखाया
तत्कालीन रियासत द्वारा आदिवासियों से अनाज की लेवी की जबरन वसूली के विरोध में शेरे कटारा देवराम शर्मा द्वारा चलाए जा रहे आन्दोलन से रियायत बेहद बोखला उठी और 30 अप्रैल 1946 को देवराम शर्मा को गिरफ्तार कर लिया गया। प्रजामण्डल के प्रमुख नेताओं भोगीलाल पण्ड्या, शिवलाल कोटड़िया, कुरीचन्द, तुलसीराम उपाध्याय आदि को निर्वासित कर दिया गया। प्रजामण्डल ने इसके विरोध मे मुहिम छेड़ी। करुणाशंकर पण्ड्या एवं उनके साथियों ने डूंगरपुर शहर के बीच माणक चौक पर संधर्ष सभा का आयोजन किया। लेकिन रियासती पुलिस ने लाइटें बन्द कर लाठी चार्ज करवा दिया। इससे पण्ड्या घायल हो गए और उन्हें दो दिन तक अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा। इसके बाद तयशुदा रणनीति के मुताबिक करुणाशंकर पण्ड्या ने प्रजा मण्डल के लिए गुप्तचर का काम शुरू किया। वे हरिदेव जोशी द्वारा भेजी गई सामग्री प्रजा मण्डल के अन्य सदस्यों तक पहुंचाने और डूंगरपुर की गतिविधियों की जानकारी गुपचुप तरीके से हरिदेव जोशी तक पहुंचाने का काम करते रहे।
और ठूंस दिया जेल में
10 मई 1946 के दिन करुणाशंकर पण्ड्या ने अपने साथियों तुलसीराम उपाध्याय, चिमनलाल उपाध्याय, मिश्रीलाल सोनी, प्रताप वर्मा, धुलजी भाई वर्मा आदि के साथ मिलकर धारा 144 भंग करके जुलूस निकाला। इसके फलस्वरूप इन सभी को चान्दपोल कोतवाली में बन्द कर दिया गया। जेल में करुणाशंकर एवं उनके साथियों को पुलिसिया दमन भी सहना पड़ा। सप्ताह भर जेल में ठूंसे रखने के बाद भारी दबाव की वजह से 17 मई को इन सभी को मुक्त कर दिया गया।
राष्ट्रीय नेताओं से मुलाकात
इन्हीं वर्षों के दौरान् पं. जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, गोविन्द वल्लभ पन्त, मोरारजी देसाई, जयप्रकाश नारायण, हीरालाल शास्त्री, जयनारायण व्यास, माणिक्यलाल वर्मा, कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी आदि प्रमुख नेताओं से मिलने के अवसर भी उन्हें प्राप्त हुए।
राजकीय सेवा को ठुकरा दिया
शिक्षा प्राप्ति के बाद सन् 1947 से 1949 तक उन्होंने विद्या भवन उदयपुर में बतौर टाइपिस्ट सेवा की और सक्रिय भागीदारी अदा करते हुए समाजसेवा का कार्य किया। इसके बाद वे बम्बई चले गए तथा वहाँ हिन्दी-अंग्र्रेजी टाइपिंग व शोर्ट हैण्ड का प्रशिक्षण प्राप्त कर सन् 1949 से 1951 तक भारत सरकार के ओवरसीज कम्युनिकेशन सर्विसेज की राजकीय सेवा में जुटे। यहीं वे कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं के सम्पर्क में आए। बम्बई में रहते हुए उनका मन नौकरी में रमा नहीं।
कांग्र्रेस संगठन को दी मजबूती
उन्हांेने नौकरी को तिलान्जलि देकर सन् 1951 में सक्रिय राजनीति को लोक सेवा का माध्यम बनाया। सन् 1951 के आम चुनाव में हरिदेव जोशी को विजयी बनाने में आपका उल्ल्ेाखनीय योगदान रहा। इसके बाद कांग्रेस संगठन में विभिन्न पदों पर रहकर संगठन को मजबूती दी। सन् 1951 में जिला कांग्रेस कमेटी के कार्यालय मंत्री, सन् 1955 में संयुक्त मंत्री व सन् 1957 में मंत्री के रूप में चुने गए। सन् 1956 में उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की ओर से पार्लियामेन्ट्री वर्कर नियुक्त किया गया और सन् 1958 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की ओर से मद्रास के गांधीग्राम में आयोजित राष्ट्रीय स्तर के प्रशिक्षण में उन्होंने सहकारिता का प्रशिक्षण पाया। सन् 1960 में जिला कांग्रेस कमेटी के दुबारा मंत्री चुने गए।
पंचायतीराज के महानायक
पंचायतीराज के विभिन्न पदों को गौरवान्वित करने वाले स्वतंत्रता सेनानी पण्ड्या की हर दिल अजीज छवि आज भी लोग भूले नहीं हैं। तीन बार आसपुर पंचायत समिति के प्रधान पद पर रहते हुए उन्होंने पंचायतीराज के सशक्तिकरण और बहुआयामी ग्राम्य विकास के स्वप्नों को साकार किया। पहले पहल वे 2 अक्टूबर 1959 को लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के तहत पंचायत समिति आसपुर के सहवृत सदस्य चुने जाकर निर्विरोध प्रधान चुन लिए गए। सन् 1965 के चुनाव में स्वतंत्र पार्टी के उम्मीदवार को हरा कर वे दुबारा प्रधान चुने गए। ग्यारह जनवरी 1982 को वे तीसरी बार प्रधान निर्वाचित हुए और सन् 1987 तक इस पद पर रहे।
सन् 1961 में डूंगरपुर जिला परिषद के चुनाव में उन्हें उप जिला प्रमुख निर्वाचित किया गया। दो बार डूंगरपुर के जिलाप्रमुख के पद पर रहते हुए उन्होंने जिले के सर्वांगीण विकास को नई गति प्रदान की। वे एक दिसम्बर 1964 से लेकर 31 मार्च 1965 तथा एक जुलाई 69 से लेकर 7 अगस्त 1972 तक जिला प्रमुख के पद पर कार्य किया। 1963 में राजस्व सहकारी परामर्श समिति के सदस्य, भूमि विकास बैंक के अध्यक्ष सहित अनेक पदों पर रहकर खासी छाप छोड़ी।
दर्शाया विकास का अनथक सफर
क्षेत्रीय विकास के लिए उन्होंने जीवन भर अनथक प्रयास किए और लोगों का स्नेह एवं श्रद्धा प्राप्त की। स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय योगदान देते हुए त्याग और बलिदान के लिए राजस्थान सरकार ने उन्हें स्वाधीनता दिवस-1992 को ताम्र पत्र से सम्मानित किया। राजस्थान स्थापना की स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर 14 नवम्बर 2000 को उन्हें स्वाधीननता आन्दोलन में स्मरणीय योगदान के लिए कृतज्ञ राज्य की ओर से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के हाथों उन्हें ताम्र पत्र से नवाजा गया।
यों भुला न पाएंगे पण्ड्याजी को
उनकी पत्नी जया बाई की कोख से पुत्र हरीशचन्द्र पण्ड्या का जन्म हुआ। हरीश इस समय डूंगरपुर केन्द्रीय सहकारी बैंक में सेवारत है। जीवन के कई पड़ावों और विकास की अनथक यात्रा के परिपूर्ण होने के बाद 20 नवम्बर 2001 को अपने पैतृक गांव पुंजपुर में उन्होंने देह त्याग दी। डूंगरपुर जिले में आजादी के पहले स्वाधीनता आन्दोलन और उसके उपरान्त क्षेत्रीय विकास की विविध गतिविधियों में समर्पित योगदान को डूंगरपुरवासी भुलाए नहीं भूलेंगे। स्व. श्री पण्ड्याजी की 11वीं पुण्यतिथि पर कृतज्ञ वागड़ की ओर से उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि....।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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