लोगों और संसार के प्रति नहीं !!
समर्पण से सब कुछ सरलता और सहजता से प्राप्त हो सकता है। लेकिन होना चाहिए सच्चा और अनन्य भावयुक्त समर्पण। इसके लिए जरूरी है श्रद्धा और भक्ति। जहाँ इनका घनत्व होगा वहीं समर्पण की प्रगाढ़ता का विस्तार होगा और ऊँचाइयाँ प्राप्त होंगी। आजकल स्थितियां बड़ी ही उलट-पुलट हो रही हैं। हम लोग ध्यान किसका करते हैं और हमारे ध्यान में कोई दूसरा ही चलता रहता है या यों कहें कि हम नाम और दिखावे के लिए ध्यान किसी और का करते हैं और असल में ध्यान किसी और का होने लगता है। हमारे जीवन में करीब-करीब रोजाना ऐसी स्थितियां सामने आती ही हैं जब हम ध्यान तो अपने आराध्य या ईश्वर का करते हैं और उन्हीं से सब कुछ मिल जाने की याचना करते रहते हैं लेकिन हम में समर्पण और आतुरता के भाव उतने दृढ़ नहीं होते कि हमारा ध्यान लक्ष्य को भेदने लायक ही हो जाए। होता यह है कि हम जब कभी किसी की पूजा या उपासना के लिए उद्यत होते हैं तब हमारा लक्ष्य तो ईश्वर को पाना, उसका सामीप्य, कृपा और सान्निध्य पाना होता है लेकिन हम ईश्वर के प्रति पूरी कर्षण शक्ति के साथ उतने समर्पित नहीं हो पाते हैं जितने संसार या परिवेशीय हलचलों के प्रति।
लोग चाहे मन्दिर में पूजा करें अथवा घर पर, अथवा किसी सामूहिक अनुष्ठान या किसी और अवसर पर कहीं भी। हमेशा उनका लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति या ईश्वर से अपने लिए संसाधनों की प्राप्ति ही होता है लेकिन चूंकि ईश्वर अगोचर होता है और कदाचित उपस्थिति की स्थिति आ भी जाए तो अदृश्य ही होता है, इसलिए उससे कहीं ज्यादा विश्वास हमें हमारी मानुषी आँखों पर होता है। इसलिए हम बहुधा किसी भी प्रकार की पूजा-पाठ या साधना-उपासना या तपस्या के वक्त ईश्वर को दृष्टा रूप में आभासी तौर पर सामने बिठाए रखते हैं लेकिन हमारी दृष्टि और क्रियाकलापों का आधार संसार ही रहता है। कुछ बिरले लोगों को छोड़ दिया जाए तो आजकल हमारी सारी उपासना पद्धति लोक दिखावन और संसारोन्मुखी हो गई है। हमें ईश्वर की बजाय लोगों को दिखाने और अनुभव करवाने की आवश्यकता महसूस होती है। हम बाहरी तौर पर भले ही ईश्वर की आराधना का आडम्बर करें, भीतर से हमारी दृष्टि इतनी बहिर्मुखी होती है कि अपने क्रियाकलापों के बारे में संसार या आस-पास के लोगों की सोच को जानने के लिए सदैव यह जिज्ञासु बनी रहती है।
ईश्वर को पाने के लिए अपने सामने सिर्फ ईश्वर ही केन्द्र में होना चाहिए, न कि संसार। पर ऐसा देखा नहींे जाता। ऐकान्तिक साधना उपासना की बात को छोड़ दिया जाए तो सामूहिक एवं सार्वजनिक अनुष्ठानों और प्रयोगों में यही देखा जाता है कि हमारा लक्ष्य कहने भर को ईश्वर की प्रसन्नता होती है, भीतर से हम चंद मरणधर्मा मनुष्यों को प्रसन्न करने या प्रभावित करने की भावनाओं को ही केन्द्र में रखकर अपनी तमाम धार्मिक एवं आध्यात्मिक गतिविधियों को आकार देते रहते हैं। मन्दिरों, मठों और सामुदायिक उपासना स्थलों पर इस रोग का प्रभाव महामारी की तरह फैल रहा है। हमारे और ईश्वर की मूर्ति के बीच चंद फीट की दूरी हुआ करती है और ऐसे में भजन-पूजन या अनुष्ठान के लिए माईक का होना कोई जरूरी नहीं है लेकिन गर्भ गृह में प्रतिष्ठित देवी या देवता को सुनाने या प्रसन्न करने भर के लिए हम माईक का सहारा लेते हैं और आस-पास के लोगों व बस्तियों में रहने वालों तक जबरन सुनाते रहते हैं। बात चाहे रूद्राभिषेक या दुर्गासप्तशती के अनुष्ठानों की हो या रामायण-सुन्दरकाण्ड के सामूहिक पाठ की या फिर कोई और अवसर। यह माईक स्पष्ट बताता है कि आपका लक्ष्य ईश्वर न होकर लोग हैं जिनसे आपको धार्मिक या कर्मकाण्डी अथवा भक्त या फिर सिद्ध/साधक कहलवाने का शौक है या फिर यह सारा कर्मकाण्ड, पूजा-उपासना और अनुष्ठान सिर्फ दिखावे और अपने धंधे के रूप में प्रतिष्ठापित करने भर के लिए है।
अन्यथा जिसको सुनाना या प्रसन्न करना चाहते हैं वह हमारे और आपके करीब है। देवी-देवता मन्दिर के गर्भगृह में होते हैं और हम सभामण्डप या थोड़ा बाहर। ऐसे में माईक का सहारा लेना इस बात को इंगित ही करता है कि हमारा लक्ष्य ईश्वर की बजाय संसार है और यह सब दिखावा, ढोंग और पाखण्ड से अधिक कुछ नहीं है। आजकल तकरीबन हरेक मन्दिर में इस प्रकार का पाखण्ड देखने को मिलने लगा है। यों तो धर्म ऐकान्तिक साधना का विषय है फिर भी सामूहिक अनुष्ठानों और कार्यक्रमों में जहाँ वाणी परिधि में सीमित मात्रा में लोग उपस्थित हों वहाँ बेवजह दूसरों को सुनाने की महामारी और माईक का इस्तेमाल करना यही बताता है कि यह आडम्बरी बगुला भक्ति ईश्वर की बजाय चंद लोगों या संसार को प्रसन्न करने अथवा दिखावे के लिए ही की जा रही है। उपासना और भक्ति का मजा तब ही है कि जब उपासक और उपास्य देव के बीच संसार न रहे। जहाँ संसार अपने केन्द्र में होता है वहाँ ईश्वर हमसे दूर रहता है और ऐसे में ईश्वर को पाने की आकांक्षा हो या प्रसन्न करने की इच्छा हो तो सारे आडम्बरों और दिखावों अथवा धूर्त्तताओं को छोड़ कर ईश्वर को द्रष्टा समझने की बजाय केन्द्र में रखें और फिर देखें भक्ति और साधना कैसे फलीभूत होने लगती है।
बात उपासना या भक्ति की बजाय किसी भी लौकिक या अलौकिक कार्य की हो तब भी अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्रता के साथ चिंतन करना जरूरी है और तभी साधक को साध्य की प्राप्ति हो सकती है। लोकोन्मुखी दृष्टि से ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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