श्रद्धा युक्त कर्म ही देता है सुगंध ! - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

Breaking

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा । हृदय राखि कौशलपुर राजा।। -- मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी ।। -- सब नर करहिं परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीति ।। -- तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा । आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।। -- राजिव नयन धरैधनु सायक । भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।। -- अनुचित बहुत कहेउं अग्याता । छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।। -- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहि सुनहि बहुविधि सब संता। -- साधक नाम जपहिं लय लाएं। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।। -- अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद धन दारिद्र दवारिके।।

शनिवार, 17 नवंबर 2012

श्रद्धा युक्त कर्म ही देता है सुगंध !


श्रद्धाहीन कर्म मात्र औपचारिकता !!


कर्म चाहे कैसा भी हो, इसकी सफलता का मूल आधार एकाग्रता के साथ ही श्रद्धा है। जहाँ श्रद्धा का भाव होता है वहाँ कर्म अपने आप सत्यं शिवं सुन्दरम् का उद्घोष करने लगता है और ऎसा कर्म जहां यश और पूर्णता का सुकून प्रदान करता है वहीं कालजयी भी होता है। हर आदमी अपने जीवन में रोजाना कोई न कोई कर्म करता रहता है और इस कर्म का संबंध उसके भूत से लेकर वर्तमान और भविष्य तक के लिए होता है। कर्म की सफलता का श्रेय कर्म कर्ता के साथ उसे भी प्राप्त होता है जिसके लिए कर्म किया जा रहा है। कर्म चाहे वैतनिक हो या अवैतनिक, हर प्रकार के कर्म में सफलता दो स्तरों की होती है। सामान्य सफल कर्म और आशातीत सफल कर्म। सामान्य तौर पर सफलता पाने वाले कर्म औपचारिकताओं और परंपराओं से अधिक कुछ नहीं हुआ करते लेकिन जो कर्म आशातीत सफलता पा लेते हैं उनके पीछे कत्र्ताओं की एकाग्रता और आत्मीयता के साथ ही कर्म और जिसके लिए कर्म किया जा रहा है, उसके प्रति अनन्य आस्था और अगाध श्रद्धा का भाव होता है और इसी श्रद्धा की वजह से वह कर्म सुगंध फैलाने लगता है और कर्म से जुड़े तमाम लक्ष्यों में सफलता प्रदान करता है।

जो कर्म औपचारिकता और परंपरा निर्वाह मात्र होते हैं उन्हें कोई भी कर सकता है जो थोड़ा-बहुत समझदार हो, लेकिन विशिष्ट कर्मों का संपादन विलक्षण प्रतिभाओं से सम्पन्न और धुनी लोग ही कर सकते हैं। इन्हें सामान्य प्रवृत्ति वाले लोगों के बस का नहीं माना जा सकता है। दुनिया में कोई सा कर्म हो, अपना हो या किसी और का, अथवा जमाने का। हर कार्य में श्रद्धा का संयोग हो जाने पर कार्य संपादन सरल और सहज हो जाता है वहीं कार्यसिद्धि का वेग तीव्र हो जाता है और कार्य सम्पूर्णता के बाद यह सभी पक्षों को आनंद एवं सुकून प्रदान करता है। इसलिए कार्य संपादन एवं सफलता के लिए श्रद्धा को देखें। जहां कहीं श्रद्धा के साथ कार्य स्वीकारा जाता है वह कार्य ही अप्रत्याशित रूप से सफल हो पाता है और अर्से तक इसकी महक छायी रहती है। प्रत्येक कार्य की गुणवत्ता का संबंध रुपयों-पैसों या व्यापारिक संबंधों से नहीं हो सकता। एकमात्र श्रद्धा का प्रभाव स्थापित हो जाने पर किसी भी कार्य के लिए रुपयों-पैसों, उपहारों या दूसरे  उचित-अनुचित मार्गों का प्रभाव क्षीण हो जाता है। यह श्रद्धा अपने साथ शुचिता और प्रेरणा लेकर आती है और जहां कोई निष्काम कर्म करता है, आदर्श से भरे-पूरे वैचारिक धरातल उपलब्ध हों अथवा ऎसे काम हो रहे हों जिनसे समुदाय के कल्याण की धाराओं का वेग तीव्र होता रहता है या फिर कोई अनुकरणीय व्यक्तित्व सामने हो, वहाँ मन के भीतरी कोनों से निकल कर बाहर आने वाली श्रद्धा कर्म के साथ मूत्र्त रूप धारण करती है और उस कर्म विशेष को विशिष्ट एवं विलक्षण गंध से परिपूर्ण बनाती है। यह कर्म से जुड़े सभी लोगों को अक्षय कीर्ति का बोध कराती है।

श्रद्धा का भाव दोनों के लिए जरूरी है। कर्म के प्रति भी और उस व्यक्ति या समुदाय के प्रति भी जिसके लिए कर्म किया जा रहा है।  किसी दबाव या प्रलोभन के होने वाले तमाम प्रकार के कर्म भले ही पूर्ण आकार प्राप्त कर लें मगर ये गंधहीन और क्षणिक ही हुआ करते हैं और अपना कोई ज्यादा प्रभाव भी नहीं छोड़ पाते हैं। इतना जरूर है कि कर्म के नाम पर कर्म होने की अनुभूति व संतोष प्राप्त हो सकता है लेकिन दिली सुकून कभी नहीं। आजकल हर प्रकार के कर्म श्रद्धाहीन और औपचारिक होते जा रहे हैं और यही कारण है कि अधिकतर कर्म क्षणिक आयु ही प्राप्त कर पाते हैं और अपना कोई प्रभाव तक नहीं छोड़ पाते हैं। इसका खामियाजा उन्हें भी भुगतना पड़ता है जिनके लिए कर्म किए जाते हैं और उन्हें भी जो कर्म करते या कराते हैं। यही कारण है कि आजकल होने वाले कर्म रस-रंग-गंधहीन और आभाहीन होते जा रहे हैं। श्रद्धा बटोरने के लिए अनुकरणीय व्यक्तित्व, चरित्र और आदर्श कर्मयोग का होना जरूरी है और जो लोग या समूह इस प्रकार के होते हैं उनके प्रति दूसरे लोगों में श्रद्धा अपने आप प्रकट होकर पल्लवित होती रहती है और यह श्रद्धा आगे चलकर व्यापक परिप्रेक्ष्य में नवसृजन और सुनहरे परिवेश का दिग्दर्शन कराती है।

इसके विपरीत जिन लोगों के प्रति हमारी कोई श्रद्धा नहीं होती, उनके लिए किसी भी प्रकार का काम करना पड़े, हम सिर्फ भार और औपचारिकता का निर्वाह मात्र समझते हैं और हमें हर बार उनके कोई से काम हों, बोझ ही लगते हैं। कर्मयोग के मर्म को समझने वाले लोग अच्छी तरह जानते हैं कि उन लोगों के प्रति किसी भी प्रकार की श्रद्धा या आस्था का भाव जन्म नहीं ले पाता जिनका जीवन और चरित्र, कार्य-व्यवहार और जीवनचर्या का कोई हिस्सा ऎसा नहीं है जिसे आदर्श या सहज स्वाभाविक माना जा सके। इसलिए जहाँ कहीं किसी कर्म को आशातीत सफलता प्रदान करनी हो, पहले कर्म तथा कर्म कराने वालों के प्रति श्रद्धा का भाव देखें और तभी कर्म को आकार देने का प्रयास करें। श्रद्धाहीन कर्म से न अपना भला हो सकता है न औरों का। फिर जिनके प्रति हृदय के भाव हों, अगाध श्रद्धा हो, उनके लिए काम करने का आनंद ही कुछ और है। इस आनंद के आगे न लोकेषणा बड़ी है, न वित्तेषणा और न ही पुत्रेषणा या संसार की कोई सी ऎषणा।


---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

कोई टिप्पणी नहीं: