कहा गया है कि पानी छानकर पीना चाहिए और गुरु को जानकर करना चाहिए। इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि शिष्य भी बनाएं अथवा किसी को किसी भी प्रकार की शिक्षा दें तो इससे पहले उसकी पात्रता के बारे में पूरा एवं सटीक निर्णय कर लें और जो योग्य हो उसे ही शिक्षा-दीक्षा या सम्बल प्रदान किया जाना चाहिए। शास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है - अशिष्याय न देयम्, यो यदि मोहाद्दास्यति स पापीयानभवति....। अर्थात् जो योग्य नहीं हैं उन्हें किसी भी प्रकार की शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए, जो मोहवश होकर अयोग्य को शिक्षा प्रदान करता है उसे पाप का भागी होना पड़ता है। भारतीय इतिहास और परंपराओं में खूब सारे उदाहरण ऎसे हैं जिनमें अयोग्य और दुष्ट, पापियों ने जाने कहां-कहां से उचित-अनुचित साधनों से और विद्वजनों को भ्रमित या मोहग्रस्त कर अथवा प्रलोभन देकर जो शिक्षा-दीक्षा पा ली, उसका हर युग में दुरुपयोग ही किया है और इसका खामियाजा तत्कालीन समुदाय और परिस्थितियोंं को भुगतना पड़ा है। किसी न किसी लाभ को पाने और बिना मेहनत किए अथवा कम परिश्रम का शॉर्ट कट अपनाने वाले खूब लोग ऎसे थे और अभी भी हैं जिन्होंने किसी न किसी स्रोत से कुछ न कुछ पा लिया और जीवन निर्माण के साथ ही सांसारिक वैभव ऎश्वर्य का भोग पाकर मजे कर रहे हैं जो उन्हें अभीप्सित थे। आजकल पात्रता का कहीं कोई मानदण्ड रहा नहीं। मानवी सृष्टि का इन दिनों एकमात्र यही लक्ष्य है कि चाहे जिस तरह भी हो सके, अनाप-शनाप धन संपदा का संग्रह, भोग-विलास, ऎश्वर्य का अहर्निश आनंद और दुनिया भर की संपदा उनके कब्जे में हो। इन लोगों के जीवन का लक्ष्य जिन्दगी भर अलक्ष्मी का संग्रह और इसके लिए कुमार्गों का सहारा लेना ही रह गया है।
आजकल हर क्षेत्र मेंं ऎसे-ऎसे लोगों की भरमार है जो अपने लक्ष्य साधने और लाभ पाने के लिए जहां मौका मिले, वहाँ से कुछ न कुछ पा लेने के फेर में भटकते रहते हैं और ऎसे में वे अपनी लज्जा और मर्यादाओं को छोड़ कर वह सब कुछ पा जाते हैं जो उन्हें चाहिए होता है। जो लोग ज्ञान दान या और किसी भी प्रकार की विलक्षणता देने में प्रवीण हैं अथवा कुछ मेधा रखते हैं उन सभी के लिए यह सबसे बड़ी समस्या है कि वे जिन लोगों को आगे लाते हैं वे उनके साथ ही छल करने लगते हैं और उन्हीं पर विजयश्री प्राप्त करना चाहते हैं। ऎसे लोग उन्हीं लोगों को अपना शिकार बनाते हैं जिनकी उन्हें बनाने में अहम् भूमिका हुआ करती है। और तो और ऎसे लोग इतने कृतघ्न होते हैं कि जो इनकी मदद करता है उसी की कब्र खोदने के लिए दिन-रात भिड़े रहते हैं। इस प्राप्ति ही प्राप्ति की यात्रा में पाने वाले लोग उन सभी को भुला बैठते हैं जिनसे प्राप्त किया होता है। बात चाहे शिक्षा-दीक्षा की हो या या किसी भी प्रकार के सम्बल या प्रोत्साहन की। आजकल ऎसे कृतघ्न लोगों की संख्या खूब बढ़ती जा रही है। पुराने जमाने से लेकर अब तक की बात करें तो कई लोग हमारे आस-पास भी हैं और अपने इलाके में भी, जिनको इस बात का मलाल रहता है कि उन्होंने जिन लोगों को सम्बल दिया और आगे लाए, आज वे सारे कृतघ्न होकर उन्हीं की बुनियाद हिलाने लगे हैं। ऎसे सारे लोग जो भस्मासुर के रूप में हमारे सामने हैं वे असल में मनुष्य न होकर उस आसुरी परंपरा से जुड़े हुए हैं जिसने ही भस्मासुर को बनाया और उसकी परम्परा को आज भी बरकरार रखे हुए हैं।
आज हमारा इलाका हो या और कोई क्षेत्र या फिर अपना समुदाय ही क्यों न हो, बहुत से भस्मासुरों से हम घिरे हुए हैं। ये भस्मासुर ही हैं जो इस युग में भी असुरों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और गलियों से लेकर राजमार्गों और राष्ट्रीय मार्गों पर अपनी दुर्गन्ध के कतरे बिखेरते हुए आगे बढ़ रहे हैं। दोष भस्मासुरों का नहीं बल्कि हमारा अपना है। हमने इन लोगों की पात्रता की जांच किये बगैर, कभी सेवा और कभी प्रलोभन को देख कर अथवा किसी न किसी तरीके से मोहग्रस्त या वशीभूत होकर या फिर किसी दबाव में आकर ऎसे लोगोें को ज्ञान और प्रशिक्षण दे दिया है जिनका मनुष्यता से कोई रिश्ता नहीं है और ऎसे लोगों की जिन्दगी का मकसद एक ही है दूसरों के कंधों पर चढ़कर अपनी ऊँचाई बढ़ाना। समाज में जो भस्मासुर हो गए हैं वे किसी न किसी मौके पर खुद भस्म होने ही वाले हैं क्योंकि भस्मासुरों का ज्यादा अस्तित्व नहीं रहता। लेकिन अब भी समय है कि जो लोग कुछ देने का माद्दा रखते हैं वे पात्रता का विचार करें और उसके बाद ही अपने ज्ञान की पोटली खोलें तथा पात्रता की परीक्षा में उत्तीर्ण होने वालों को ही किसी भी प्रकार का ज्ञानदान करें अन्यथा उन्हें भी भस्मासुरों के दंश से गुजरना पड़ सकता है।
भस्मासुरों के लिए कोई क्षेत्र अछूता नहीं है। समाज-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भस्मासुर हो सकते हैं और बन सकते हैं। भस्मासुरों के लिए न कोई मर्यादा है न अनुशासन की लक्ष्मण रेखाएं। भस्मासुर स्वच्छन्द, उन्मुक्त और निरंकुश होते हैं। भस्मासुरों को बदला नहीं जा सकता, उन्हें सिर्फ भस्म होना है और तब तक इंतजार करना होगा हमें। अपने आस-पास के भस्मासुरों को जाने-पहचानें और उनकी हरकतों को देखें तो पता चलेगा कि इनकी गतिविधियां किसी भी मामले में असुरों से कम नहीं हैं। ये भस्मासुर आजकल हर कहीं छाने लगे हैं और इनका उन सभी से रिश्ता सहज ही बन जाता है जो उन्हीं की परंपराओं के हैं तथा समानधर्मा हैं। जो भस्मासुर बन गए हैं उनके अस्तित्वहीन होने की प्रतीक्षा करें और यह संकल्प लें कि आयंदा ऎसा कोई कर्म नहीं करेंगे कि भस्मासुर पनपें। इसके लिए पात्रता का पूरा परीक्षण करें और इन कसौटियों पर कोई खतरा न उतरे तो कोई जरूरी नहीं कि ज्ञान की धारा आगे बढ़े। अपात्रों को प्रश्रय देने का सीधा असर पड़ता है समाज पर। क्योंकि ये भस्मासुर ही हैं जो समाज के लिए घातक प्रदूषण हैं। इस प्रदूषण को दूर करना वर्तमान पीढ़ी का सर्वोपरि दायित्व है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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