पुराने दिनों की ओर न लौटें... - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 16 दिसंबर 2012

पुराने दिनों की ओर न लौटें...


वरना नहीं मिल पाएगा आश्रय!!!

जीवन की पूरी यात्रा को आयु के अनुसार विभिन्न भागाेंं मेें बाँटकर देखा जाए तो साफ पता चल जाता है कि किस आयु में कौन से कर्म करने चाहिएं और कौन से कर्म छोड़ देने या स्वीकार करने चाहिएं।
भारतीय संस्कृति में ब्रह्मचर्याश्रम से लेकर गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और सन्यासाश्रम का विधान इसीलिए किया गया है ताकि व्यक्ति को अपनी आयु का बोध हो जाए और उसे यह भी भान होने लगे कि उसे कौन से आयु में कौन से काम करने या छोड़ देने की जरूरत है। उस जमाने में सौ वर्ष औसत आयु मानकर पूरे जीवनकाल को चार खण्डों में विभक्त किया जाता था।  आज यह सौ  से कुछ कम हो गई है और उसी अनुरूप आयुक्रम का विभाजन कर समग्र जीवनचर्या को मर्यादित और अनुशासित करने की जरूरत है। ब्रह्मचर्याश्रम में विद्याध्ययन और जीवन निर्माण की बुनियाद मजबूत करने का विधान है और उसके बाद संसार में अर्थात गृहस्थ धर्म के निर्वाह के लिए व्यक्ति उद्यत होता है और यह आश्रम उसके जीवन के सांसारिक उद्देश्यों की प्राप्ति का सबसे बड़ा माध्यम बनता है।

यह वह समय होता है कि जब व्यक्ति अपने और संसार के बीच सेतु स्थापित करता हुआ जगत के लिए कुछ करने का यत्न करता है। अपने कुटुम्ब से लेकर परिवेश तक के बहुविध कर्मों से भरे इस आश्रम में वह संसार को समर्पित होता है। इसके उपरान्त संसार के कल्याण के लिए वह घर-कुटुम्ब का थोड़ा सा मोह छोड़कर वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करता है जहाँ पूरा संसार ही उसका कुटुम्ब होता है। यह वानप्रस्थाश्रम उसके लिए लोक सेवा और सामाजिक कार्यों के लिए समर्पण का अवसर होता है। इसके बाद जीवन यात्रा का अंतिम आश्रम है संन्यासाश्रम। इसका अर्थ ये नहीं कि घर-बार छोड़ कर वन में प्रस्थान कर जाएं। बल्कि यह है कि दुनिया से चित्त पूरी तरह हटा कर आत्मज्ञान और ईश्वर के मार्ग को अपनाने की यात्रा का आरंभ कर दिया जाए। इन चारों ही आयु सापेक्ष आश्रमों के अनुरूप कर्म करने वाले जीवनयात्रा के मर्म को अच्छी तरह आत्मसात कर जीवन धन्य कर जाते हैं मगर जो लोग इस अनुशासन और आयु मर्यादाओं को छोड़ देते हैं वे इस लोक में भी भटकाव की स्थिति में रहते हैं और परलोक में भी उनको कोई ठिकाना नहीं मिल पाता है।

आजकल संसार भर के लोग दो भागों में विभक्त हो चले हैं। एक वे हैं जो अपनी आयु के निर्धारित आश्रम से कहीं आगे बढ़कर आगे वाले आश्रमों के चाल-चलन और व्यवहार में  जुटे हुए हैं। दूसरे वे हैं जो पुराने आश्रमों की हरकतोंं में ही रमे हुए हैं और वर्तमान आश्रम के कत्र्तव्यों का पालन नहीं कर पा रहे हैं अथवा करने में उन्हें कोई आनंद नहीं आ रहा है। पहली किस्म के लोग ब्रह्मचर्याश्रम की आयु वाले हैं जो शिक्षा और संस्कार प्राप्ति तथा जीवन निर्माण की बुनियाद को मजबूत करने के अपने फर्ज को नहीं निभा पा रहे हैं और अगले आश्रम गृहस्थाश्रम के सारे आनंद लेने में उतावले हैं और रमे हुए हैंं। ये लोग बिना ब्रेक की गाड़ी जैसे व्यवहार करने में तुले हुए हैं और लगता है कि इनके जीवन से अर्थिंग गायब है और जमीन खिसकी हुई है। इन लोगों को यह पता ही नहीं है कि हमारे उपनिषदों ने इन्हीं के लिए कहा है - ‘‘सुखार्थिन कुतो विद्या, विद्यार्थिन कुतो सुखम्। सुखार्थी वा त्यजेत् विद्या, विद्यार्थी वा त्यजेत सुखम्॥ ’’ अर्थात सुख और विद्या के बीच कोई तालमेल नहीं है। विद्या चाहने वालों को सुख छोड़  देना चाहिए, और सुख चाहने वालों को विद्या। दोनों में से एक के होने पर ही जीवन के लक्ष्य का साधा जा सकता है।

आज की पीढ़ी विद्या पाने को निकली है लेकिन रमी हुई है सुख पाने में। भोग-विलास भरे जो मनोरंजन गृहस्थाश्रम के लिए हैं वे उन्हें इसी समय चाहिए। फिर चाहे वह फिल्में हों या इंटरनेट, मोबाइल हो या सोशल साईट्स, ईट ड्रींक एण्ड बी मेरी... वाली पीढ़ी क्या निहाल कर देगी, यह गंभीरता से सोचने का विषय है। ऎसे में मौजूदा पीढ़ी दोनों ही आश्रमों के बीच भटक कर रह गई है और यह भटकाव इन लोगों की अंतिम यात्रा तक किसी न किसी रूप में नज़र आने ही वाला है। दूसरी किस्म उन लोगों की है जिनकी आयु गृहस्थाश्रम को भी पार कर चुकी है और इनमें से आधे वानप्रस्थाश्रम में आ गए हैं तथा आधे संन्यासाश्रम मेंं। लेकिन ये लोग भी अपने वर्तमान आश्रमों की बजाय गृहस्थाश्रम में ही उलझे हुए पड़े हैं और वे सारे कर्म कर रहे हैं जो इन लोगों के लिए गृहस्थाश्रम में करने योग्य थे या रहे हैं। संसार की माया और तम का आवरण इन लोगों के चित्त पर ऎसा पड़ा है कि इन्हें काल का ज्ञान ही नहीं है।

इनमें से कई तो कमाने के लिए सरकारी और गैर सरकारी नौकरी-धंधों में रमे पड़े हुए अजगरी जीवन जी रहे हैं। कइयों को रिटायर हो जाना चाहिए मगर अब तक रिटायर नहीं हो पाए हैं या रिटायर हो जाने के बाद फिर निन्यानवें या चार सौ बीसी के फेर में फंसे हुए हैं। कई नाम और फोटो की भूख मिटाने के लिए रात-दिन कुछ न कुछ स्टंट और हथकण्डों या मदारियों के खेलों में फन आजमा रहे हैं, कुछ जमूरे बनकर मदारी लोगों के आगे-पीछे दौड़ते हुए परिक्रमा कर रहे हैं, चरणों में लौट रहे हैं और झूठन चाट-चाट कर जयगान करते हुए अपना पेट भर रहे हैं और घर भी। हमारा अपना पावन क्षेत्र हो या देश का कोई और कोना, हर कहीं ऎसे लोगों की भरमार है जिन्हें जीवन की दशाओं और दिशाओं से कहीं ज्यादा आनंद की प्राप्ति वहां होती है जहां मुफतिया या हराम का माल मिल जाने की आशा हो। इन लोगों के लिए जीवन सिर्फ कमाने और जमा करने भर का नाम है।

ये लोग वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम में होने के बावजूद गृहस्थाश्रम के सारे सुख और भोग चाहते हैं और इन भोगों की प्राप्ति के लिए ये लोग किन-किन माध्यमों या हथकण्डों का सहारा लेने के आदी हो जाते हैं, इस बारे में आजकल किसी को कुछ बताने की जरूरत नहीं पड़ती। जनता सब जानती है लेकिन बोलना नहीं। अपनी जीवनयात्रा के मर्म को समझेंं और इसे पूर्ण करने के लिए पैसा बनाने या भोग-विलास पूरे करने की मशीन बनने की बजाय वास्तविक आदमी बनने का प्रयास करें, वरना ऎसे खूब सारे लोग हमारी ही तरह आये और चले गए, आज उन्हें पूछने या याद करने वाला कोई नहीं बचा है। जीवन में सभी आश्रमों का पालन मर्यादाओं के साथ करें तथा जिस आयु में हैं उसी आश्रम के कत्र्तव्य कर्मों को अपनाएं, तभी हमारा मनुष्य होना सार्थक है।



---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

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