राष्ट्र के किसी नगर में एक डाक्टर थे। उनका स्वभाव आजकल के अधिकांश डाक्टरों के स्वभाव से थोड़ा भिन्न था। वह भिन्नता, स्वभाव-भेद क्या था, यह हम आपको बताना चाहते हैं। एक दिन उन डाक्टर साहब के पास किसी गांव का कोई आदमी आया और बोला - ‘एक रोगी को देखने के लिए कृपया मेरे गांव तक चलिये, डाक्टर साहब ! हम उस रोगीं को ला नहीं सके।’ डाक्टर ने नियमानुसार कहा-‘गांव जाकर रोगी को देखने की मेरी फीस दस रुपये है। आप फीस लाये हैं ?’
‘फीस लाया तो नहीं हूं, लेकिन गांव चलकर आपकी फीस चुका दी जायेगी।’ -आगन्तुक ने कहा।
डाक्टर रोगी को देखने चले गये। रोग-परीक्षा करने पर प्रतीत हुआ कि मरीज को क्षय रोग है। डाक्टर ने पूछताछ की कि अब तक क्या इलाज किया गया है, कौन-कौन सी दवाइयां दी गई हैं-इत्यादि। उसके बाद डाक्टर ने कहा -‘चिंता करने की कोई बात नहीं है। ठीक इलाज लेने से, दवा-इंजेक्शन आदि देने से और अच्छा पौष्टिक आहार, जैसे दूध, घी, फल आदि देने से रेागी ठीक हो जायेगा।’ तब मरीज की पत्नी ने कहा-‘डाक्टर साहब ! आप जरा देर बैठें, मैं अभी आती हूँ।’ डाक्टर ने देखा कि वह स्त्री अपने हाथ में कोई चीज छिपाये घर से बाहर जाना चाह रही थी। उन्होंने पूछ ही लिया-‘आपके हाथ में यह क्या है और आप कहां जा रही हैं?’
उस स्त्री ने सच-सच बात बता दी-डाक्टर साहब । ये मेरे पति दो महीने से काम पर नहीं जा सके हैं कि ये बीमार हैं। अतः घर में अब कुछ भी रुपया पैसा बचा नहीं है जो कुछ भी थोड़ा-बहुत था, अब तक इलाज वगैरह में खर्च हो चुका। अब तो.......अब तो मेरे पास केवल ये सोने की दो चूडि़यां बची हैं। इन्हें बेचकर अभी आमी हूँ और आपकी फीस तथा दवाई वगैरह के लिए रुपये का इन्तजाम करती हूँ।’
यह सुनकर डरक्टर के हृदय को आघात लगा। उसने कहा-बाई ! तुम बैठ जाओ। चूडि़यां बेचने की जरूरत नहीं है। दवाइयां मेरे अस्पताल से मँगवा लेना। और..........’’ कहते हुए उन्होंने जेब से थोड़े रूपये निकाले और उन्हें उस महिला को देते हुए कहा-‘‘इन रुपयों को देते हुए कहा-‘‘इन रुपयों को अपने पतिदेव के लिए दूध-फल आदि के नाम में लेना। जब ये ठीक हो जायेंगे तब हिसाब हो जायेगा तब तक तुम चिन्ता नहीं करना।’’ डाक्टर ने फीस नहीं ली। अपनी जेब से रुपये भी दिए और दवाइयां भी।
आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी म.
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