जीवन में शालीनता और माधुर्य लाएँ.... - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 30 दिसंबर 2012

जीवन में शालीनता और माधुर्य लाएँ....


तभी सँवर पाएगा व्यक्तित्व !!!


अनुशासन और मर्यादाएं उनके लिए होती हैं जिनके पास बुद्धि होती है और इस दृष्टि से मनुष्य मात्र के लिए उन सभी कारकों का होना नितान्त जरूरी है जिनकी वजह से हमारी जिन्दगी का सफर आसान और सुकूनदायी होता है और व्यक्तित्व इतना सँवरने लगता है कि आदमीयत की महक से हमारे सम्पर्क में जो आता है वह निहाल हो जाता है। मनुष्य का शरीर पा लेना अलग बात है और मनुष्य होकर जीना दूसरी बात। पहले वाली किस्म में असंख्यों का समावेश है जबकि दूसरी वाली प्रजाति का प्रतिशत हाल के वर्षों में कम हो गया है। इतना कि अब ढूँढ़ने पर भी बड़ी मुश्किल से दिख पाता है आदमी। आदमीयत का निरन्तर ह्रास होता जा रहा है और आदमी का चौला धारण करने वालों की संख्या में निरन्तर इजाफा हो रहा है। आदमी और आदमीयत दोनों का संतुलन इतना बिगड़ गया है कि उसे सुधारना और नियंत्रण में लाना टेढ़ी खीर हो गया है।

जिन मानवीय मूल्यों की वजह से आदमी को आदमी के रूप में जाना-पहचाना और स्वीकारा जाता था वह सब अब स्वाहा होने लगा है। सभ्यताओं के निरन्तर विकास, भौतिकता की चकाचौंध और वैश्वीकरण, उदारीकरण तथा यांत्रिकीकरण के मौजूदा दौर में हम मंगल और चाँद पर पहुंच गए हैं और वहाँ भी बस्तियां बसाने की फिराक हैं मगर आदमीयत की गंध आदमी से दूर होती जा रही है। उसे पकड़ पाने में हम सब विफल हो चले हैंं। आदमीयत के निरन्तर लोप होते चले जाने की स्थितियों का सर्वाधिक कुप्रभाव हमारे घर-परिवार और परिवेश के माहौल पर पड़ा है जहाँ निरन्तर सुकून भरी हवाओं के बीच लोक मंगल के गीतों की स्वर लहरियों की बजाय अब कलह और अपराधों के कारण करुण-क्रंदन सुनाई देने लगा है। जाने किन-किन साधनों और संसाधनों का शोरगुल इतना कि आदमी के भीतर से सारी संवेदनाएं और जमाने भर को अनुभव करने का सामथ्र्य तक खो गया है। गृह कलह से लेकर समाज और समुदाय, क्षेत्र से लेकर देश-दुनिया और ध्रुवों तक अशांति का वातावरण पसरने लगा है।

वैश्विक धाराओं की सबसे निचली इकाई आदमी के भीतर जब से मानवीय संवेदनाओं का पलायन हुआ है तभी से इकाई पर इकाई की श्रृंखलाबद्ध दुर्गति और अवनति से पूरा परिवेश दूषित हो चला है। आज समाज में दैवत्व और मनुष्यत्व के गुण स्वाहा हो रहे हैं और उसका स्थान ले रहे हैं क्रोध, तामसिकता और उद्विग्नता। जिसे देखो वह निरन्तर भागदौड़ और जमाने भर का भोग-विलास तथा ऎश्वर्य देने वाले संसाधनों को पाकर भी खुश नहीं है। उसे हमेशा अधूरेपन का बोध होता है और यही अधूरापन उसके चित्त की शांति को लील रहा है,  दिमागी खोखर को चूल्हा बना रहा है और आदमी के भीतर गर्मी इतनी बढ़ती और दिमाग पर चढ़ती जा रही है कि ग्लोबल वार्मिंग का खतरा अभी से साकार होने लगा है। अपने आस-पास मनुष्य देह में विचरण करने वालों, अपने संपर्कितों से लेकर अपने क्षेत्र और दुनिया के कोने-कोने तक में जो घटनाएं सामने आ रही हैं उनसे लगता है कि आदमी अपना आपा खोता जा रहा है और वह उस युग में पीछे लौटने लगा है जहां उससे आदमीयत की बजाय पैशाचिक वृत्तियों और हिंसा की वजह से जाना जाता था। हमारे रोजमर्रा के जीवन में देखते हैं कि अब आदमी का भारीपन खत्म हो गया है। बात-बात में आदमी गुस्सा करने लगता है जैसे शहर भर के तमाम कुत्तों ने गुस्सा करने और गुर्राने का ठेका उसे ही दे रखा हो। छोटी सी बात अपने मन की नहीं हुई कि उबल पड़ता है आदमी। आदमी चाहता है कि जो भी कुछ हो, वह उसके मन की हो। मन की ना हो तो उसे हिंसक और क्रूर होते हुए भी देर नहीं लगती, वह किसी भी हद तक गिर सकता है।

किसम-किसम के लोग आजकल हमारे बीच जाने किन-किन परिधानों में फबते हुए आवाराओं की तरह घूमने लगे हैं। इनमें कोई दलाली कर रहा है, कोई दल्लागिरि, कोई दादागिरि तो कोई कुछ और। ऎसे हल्के और बात-बात मेंं उबल पड़ने वाले लोगों की अब चारों तरफ भरमार है। इनमें खूब सारे तो ऎसे हैं जिन्हें गालियों का अर्थ भले पता न हो मगर गुस्से से बेकाबू होकर कहीं भी, किसी के भी सामने चिल्लाकर बात करने, हाथ झटकने, गालियों की बौछार करने और अभद्र व्यवहार के सारे लक्षणों का व्यावहारिक प्रदर्शन करने में माहिर होते हैं। इन लोगों को अपने कद या व्यक्तित्व से कोई सरोकार नहीं होता, न ही सामने वाले के सम्मान या प्रतिष्ठा से। बिना कोई मेहनत किए माल उड़ाने और हराम की खाने का लाइसेंस पा चुके इन लोगों को सिर्फ अपने उल्टे-सीधे कामों और दलाली से मतलब है। ऎसी हरकतें करने वाले भले ही अपने बारे में आत्मचिंतन का समय न निकाल पाएं लेकिन जमाने की नज़रों में इनकी पहचान असुरों के रूप में होने लगती है जिनके लिए मानवीय मूल्यों का कोई अर्थ नहीं हुआ करता।

आजकल लोगों की भीड़ ऎसी सामने आ रही है जिनका अभिव्यक्ति कौशल हो या समग्र जीवन, न कोई माधुर्य बचा है, न शालीनता या अनुशासन। इन लोगों को अपने गोत्र, वंश और परिवार की पुरातन परंपराओं से भी कोई वास्ता नहीं रहा। मर्यादाओं के सभी बंधनों से मुक्त होकर उन्मादी, स्वच्छन्द और उन्मुक्त जीवन जीने के आदी हो चुके इन लोगों का जीवन तब तक पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता जब तक कि इनमें मनुष्यता के लक्षण न आएं। इसके लिए ये लोग प्रयत्न भी नहीं करना चाहते। ऎसे में शामत तो बेचारे उन लोगों की है जो नियम-कायदों से चलते हैं, कानून की पालना करते हैं, नौकरी-धंधे में ईमानदारी की खाते हैं और अपने पूरे जीवन में अनुशासन तथा मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखाओं का व्यतिक्रम करना पाप से कम नहीं समझते। इसीलिए ईश्वर को इनके अगले जन्म के लिए बौद्धिक भण्डारों के न्यूनाधिक्य के बारे में कुछ सोचना नहीं पड़ता क्योंकि उनके लिए अगली बार जो योनि निश्चित की होती है उसमें बुद्धि का कोई उपयोग होगा ही नहीं।

इस पूरी भीड़ में कुछ लोग ऎसे भी हैं जो गलती से इन असुरों के बीच फंस गए हैं। इन लोगों के लिए वाणी का संयम, माधुर्य और शालीनता का अभ्यास करना चाहिए ताकि उन्हें मनुष्यों की श्रेणी में गिना जाकर उनसे मानवी व्यवहार किया जा सके। मनुष्यों की आरंभिक पहचान वाणी और व्यवहार ही है और जो लोग इस कसौटी पर खरे उतरते हैं उन्हें ही मनुष्य माना जाना चाहिए, शेष लोगों को मनुष्य देहधारी खोखे मानने से किसी को कोई हर्ज नहीं होना चाहिए।



---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

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