खुद का वजूद खो बैठते हैं....... - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 13 जनवरी 2013

खुद का वजूद खो बैठते हैं.......


परायों की चर्चा करने वाले !!!!


रोजमर्रा की हमारी जिन्दगी में कई तरह के लोगों से हमारा पाला पड़ता रहता है। इनमें कइयों को देखकर और मिलकर सुकून का अहसास होता है, कई सारे अपनी हरकतों की वजह से कार्टून या अफलातून दिखते हैं और ढेरों लोग कभी जानवर तो कभी असुरों के निकट होने का अहसास कराते हैं। आदमियोें की तमाम प्रकार की किस्मों के बीच एक जोरदार किस्म है टाईमपासिंग। इस किस्म के लोगों के लिए अपनी पूरी जिन्दगी कैसे गुजारें, टाईम कैसे पास करें, यह सबसे बड़ी समस्या होता है। अपना टाईमपास करने के लिए ये लोग अपनी आँखों को जमाने व परिवेश से लेकर दूसरे लोगों पर टिकाये रखते हैं। इन्हें पूरी जिन्दगी अपने बारे में फुर्सत मिले या न मिले लेकिन दूसरे लोगों की जिन्दगी में क्या कुछ हो रहा है, क्या कुछ हुआ तथा क्या होना चाहिए, इसके पूरे कथानकों की भूमिका गढ़ी जाती है। इस किस्म के लोगों में आदमी भी हो सकते हैं और औरतें भी। पर एक बात बड़ी ही रोचक और मजेदार यह है कि इस किस्म के आदमी ज्यादा बातों के लिए मशहूर अपने क्षेत्र की महिलाओं से भी ज्यादा बातूनी होते हैं और इस मामले में ये बातूनी आदमी चर्चाओं मेंं आधे आसमाँ से लेकर दुनिया तक को पछाड़ देने का सारा सामथ्र्य रखते हैं।

यह आवश्यक नहीं कि इस किस्म के चर्चेडू और बातूनी लोग वे ही हों जिनके पास कोई खास काम नहीं हो अथवा ज्यादा काम नहीं हो। आजकल तो गपोड़, डफोड़ और चर्चेडू बातूनी आदमियों की भरमार हर कहीं है। ये लोग किसी दफ्तर, दुकान या प्रतिष्ठान में हो सकते हैं, खेल के मैदानों से लेकर फोर और सिक्स लेन पर भी, सर्कलों, चौराहों और चौबारों पर मदारियों के करतबों की तरह भीड़ जमाकर बैठे रहने वाले भी हो सकते हैं और दुनियावी मठ-मन्दिरों के परिसरों, जनता के लिए बने परिसरों से लेकर उन सभी जगह हो सकते हैं जहां आदमियों की आवाजाही बनी रहती है। इन लोगों में पहले वे ही लोग शामिल हुआ करते थे जिनके पास कोई काम नहीं हुआ करता था और उन्हेें लगता था कि भगवान ने इतनी बड़ी और लंबी उमर आखिर दे डाली है, कैसे गुजारें इसे? लेकिन अब इस किस्म में वे सारे लोग शामिल हो गए हैं जो कहीं न कहीं काम-धंधों में रमे हुए हैं और उनके लिए भी दुनिया के और सारे काम-काज से कहीं ज्यादा महत्त्व बेकार की बातों का है और इन्हीं की वजह से उन्हें वे सारे रस मिल जाते हैं जो उनकी जीवन यात्रा को आगे धकियाने के लिए मददगार होते हैं।

कई सरकारी और गैर सरकारी डेरों में बड़े साहबों से लेकर नीचे तक के करमचारियों में खूब सारे ऎसे हैं जिनमें बनती ही इसलिए है कि ये लोग एक-दूसरे से दूसरों के बारे में चर्चाएं करते रहकर परायों की जिन्दगी की खुरचन का रसपान करने के आदी हो गए हैं। दफ्तरी समय में और इसके बाद भी ऎसे नाकारा और नुगरे लोगों का समूह तकरीबन रोजाना ऎसी गोष्ठियों करता रहता है जिनमें ये अपने या अपने दफ्तर/प्रतिष्ठान के बारे में चर्चा नहीं कर दूसरे लोगों के बारे में नॉन स्टाप चर्चाओं में मशगुल रहते हैं भले ही इन दूसरे लोगों का इनकी जिन्दगी से कोई मतलब हो न हो। आजकल दफ्तरों से लेकर स्कूलों, सरकारी और गैर सरकारी बाड़ों और दूसरे संस्थानोें तक में ऎसे फिजूलचियों की तादाद खूब बढ़ती जा रही है। इन्हें डींगे हांकते हुए, जोर-जोर से चिल्लाते हुए और हवा में हाथ हिला-हिला कर, गर्दन को रिवॉल्विंग चेयर की तरह घुमा-घुमा कर बातें करने में पूरी दक्षता के साथ देखा जा सकता है। इनके चेहरों और हाव-भाव तथा अजीब किस्मों से भरी मुद्राओंं को देखकर ही लगता है कि ये आदमियों की जाने कैसी प्रजाति है जिसमें आदमीयत से कहीं ज्यादा मिक्स्चर की गंध आती है।

जिन्दगी भर रोजाना किसी न किसी के बारे में चर्चा गोष्ठियों के आदी इन लोगों का जीवन ही पूरा ऎसा हो जाता है कि इनके मुँह से निकलने  वाले हर शब्द तक में परायेपन की बू आती है। इन लोगों  के लिए यह शाश्वत सत्य है कि ये जो कुछ बोलते हैं उसका निन्यानवे फीसदी हिस्सा पराये लोगों के बारे में, दूसरों के लिए और फिजूल ही होता है। लगातार बेकार की बातों में रस लेने वाले इन बेकारियों और चर्चेडुओं की हरकतें बहुत जल्द आम हो जाया करती हैं और तब इन लोगों की पूरी जिन्दगी अपनी न होकर परायों पर आश्रित हो जाती है। परायों के चिंतन का अवसर ना मिले तो ये लोग मरे या अधमरे जैसे दिखते हैं और दूसरों के बारे में कुछ भी नया मिल जाए तो फिर इनके चेहरे और चाल में भी ऎसा अकड़पन आ जाता है जैसा इनकी वास्तविक जवानी में भी नहीं देखा गया हो। जीवन का आधा सफर तय कर चुकने के पश्चात ये लोग अपने वजूद को भुला बैठते हैं और इनका पूरा जीवन दूसरों पर आश्रित हो जाता है। यह वह दौर होता है जब ये अपने आपके होने या न होने के बारे में न कुछ सोच पाते हैं, न ही समाज और क्षेत्र के लिए कुछ कर पाते हैं।

इनका पूरा वक्त दूसरों के बारे में अनर्गल चर्चाओं और बेतुकी बातों से भरी बहसों में जाया होता रहता है और एक स्थिति वह आ जाती है जब इन्हें खुद को लगने लगता है कि वे इतने पराये हो चुके हैं कि अपने बारे में सोचने-समझने और जानने की सारी क्षमताएं भुला बैठे हैं। जीवन में जितना ज्यादा परायों के बारे मेें चिंतन होता है उतना व्यक्ति अपने बारे में सोचना और समझना भूल जाता है और अपना वजूद खो बैठता है। अपने आस-पास भी ऎसे खूब सारे लोग हैं, जो चर्चेडू और गपोड़ी, बातूनी आदि किस्मों के होते हैं। इसी प्रकार अपने क्षेत्र में भी ऎसे काफी लोग हैं जो दूसरों के बारे में जानने और चर्चाएं करने के हमेशा उत्सुक बने रहते हैं।  इन लोगों के कारण न समाज को फायदा है, न क्षेत्र या  देश को। ऎसे लोगों को जानने की कोशिश करना या उनका सामीप्य पाना भी अपने लिए आत्मघाती है क्योंकि इन लोगों के लिए कोई अपना नहीं होता, इन्हें मरते दम तक परायों की ही फिकर लगी रहती है।



---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

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