राजस्थानी हिन्दी काव्य के शिखर पुरुष !! - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 14 जनवरी 2013

राजस्थानी हिन्दी काव्य के शिखर पुरुष !!


  • जन कवि श्यामसुंदर श्रीपत
  • कालजयी रचनाओं ने दी अमर कीर्ति


 मरुधरा की रत्न परंपरा में श्री श्यामसुंदर श्रीपत वह हस्ताक्षर रहे हैं जिनकी राजस्थानी व हिन्दी काव्य परम्परा ने साहित्य जगत को वह कालजयी काव्य कृतियाँ समर्पित की हैं जो युगों तक उनकी अप्रतिम रचनाओं व शब्द शिल्प की बदौलत अमरत्व के साथ प्रेरणा संचरित करती रहेंगी। सरल, सहज व सौम्य स्वभाव के साथ माधुर्य का भरपूर समावेश, प्रेम, आत्मीयता और सर्वस्पर्शी रागात्मक भाव और वाणी का ओज ही वे कारक रहे जिन्होंने श्याम सुंदर श्रीपत को अद्भुत व्यक्तित्व के धनी के रूप में प्रतिष्ठित किया।
      
शब्द शिल्प के करामाती जादूगर

उनकी रचनाओं का काव्य एवं शिल्प हो या रचनागत वैशिष्ट्य, शब्दों के बेहतरीन जादूगर के रूप में उन्होंने अपने मौलिक भावों और दिव्य प्रज्ञा को इस तरह आकार दिया कि उनकी हर रचना मंत्र मुग्ध कर देने वाली सिद्ध हुई। काव्य सृजन और सुमधुर गायन दोनों में इतना जबर्दस्त प्रावीण्य कि जब वाणी काव्य रस बरसाने लगती तब श्रोताओं के समक्ष इस काव्य धारा में डूबते-उतराते ऎसी अनुभूतियों का साक्षात सहज ही हो जाता जो कभी दिल की गहराइयों में कोई टंकार कर जाती, तो कोई जिन्दगी भर के लिए भुलाये नहीं भूली जाती।
      
हर विधा में माहिर

श्यामसुंदर श्रीपत ने प्रेम, श्रृंगार और करुणरस प्रधान कविताओं व गीतों की रचना के साथ ही सम-सामयिक हालातों पर भी अपनी पैनी कलम का कमाल दिखाया। काव्य गोष्ठियों से लेकर कवि सम्मेलनों की बात हो, या फिर विभिन्न अवसरों की, श्यामसुंदर श्रीपत की तरन्नुम में मधुर कण्ठ से झरने वाली काव्य रचनाएँ श्रोताओं को गुदगुदाने के साथ ही वैचारिक उत्तेजना के भाव भी भरने में समर्थ होती थीं।
      
ओजस्वी व्यक्तित्व ने दी ऊँचाइयां

उनके पूरे व्यक्तित्व से बरसता रहने वाला ओज ही उनके ओजस्वी शख्सियत और विराट व्यक्तित्व की झलक देने वाला रहा। आत्मीय भावों व मानवीय संवेदनाओं को अपने जीवन में सर्वोपरि महत्त्व देने वाले श्यामसुंदर श्रीपत का समग्र जीवन सत्यं शिवं सुंदरं का उद्घोष करता रहा।
      
जन कवि के रूप में मशहूर

मरुभूमि में शिक्षा, संस्कृति और साहित्य की त्रिवेणी बहाने वाले श्यामसुंदर श्रीपत का जन्म श्री अजीतमल पुरोहित श्रीपत के घर 31 अक्टूम्बर 1932 को जन्मे  श्यामसुंदर की आदर्श शिक्षकीय जीवन की वजह से ‘गुरुजी‘ तथा जन कवि के रूप में अमिट पहचान कायम हुई। हिन्दी एवं राजस्थानी काव्य रचना तथा चित्रकला की अभिरुचियों ने उनके व्यक्तित्व को निखारकर ऊँचाइयां दी। आरंभिक भिक्षा-दीक्षा जैसलमेर में ही प्राप्त करते हुए उन्होंने 1952 में मैट्रिक उत्तीर्ण की तथा शिक्षक के रूप में आजीविका शुरू की। सन् 1958 में बी.ए. तथा 1962 में हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि पाने के उपरांत 1964-65 में बी.एड. की डिग्री हासिल की। श्रीपत ने 1960 में उदयपुर से समाज शिक्षा में डिप्लोमा किया तथा कामटी (महाराष्ट्र) से एनसीसी अधिकारी का प्रशिक्षण कोर्स पूरा किया।
      
जीवन भर निभाया सृजन धर्म

राजस्थानी व हिन्दी में सैकड़ों काव्य रचनाओं के सर्जक श्यामसुंदर श्रीपत की सैकड़ों रचनाओं ने पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाया, लाखों श्रोताओं व पाठकाेंे की वाहवाही प्राप्त की। रेडियो व टेलीविजन के नामी कवियों में शामिल श्यामसुंदर श्रीपत के दो राजस्थानी कविता संग्रह मरु गंगा (2003) तथा मरु महक (2004) खूब चर्चित हुए। जैसलमेर जिले के आदर्श शिक्षक के रूप में वे पहले शिक्षक थे जिन्हें सन् 1976 में राज्यस्तरीय शिक्षक  पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
      
कई पदों पर यादगार कर्मयोग का दिग्दर्शन

अपने अनूठे सृजन व बहुआयामी व्यक्तित्व की छाप छोड़ने वाले श्रीपत को अनेक अवसरों पर सम्मानित एवं पुरस्कृत किया गया। सन् 2005 में राजस्थानी साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर ने उन्हें विशिष्ट साहित्य पुरस्कार से अलंकृत किया। शिक्षा विभाग में प्राचार्य, शिक्षा प्रसार अधिकारी, वरिष्ठ उप जिला शिक्षा अधिकारी, बाप एवं जैसलमेर पंचायत समिति में विकास अधिकारी सहित विभिन्न पदों पर सेवाएं देते हुए वे अपनी मातृभूमि जैसलमेर में जिला शिक्षा अधिकारी पद से सेवानिवृत्त हुए।
      
दैदीप्यमान आभामण्डल का मोहपाश

काव्य की तमाम विधाओं में महारत रखने वाले श्यामसुंदर श्रीपत छंदोबद्ध कविता के करामाती रचनाकार थे। इसके साथ ही काव्य की लयबद्ध ओजस्वी प्रस्तुति का माधुर्य भरा उनका प्रवाह अच्छे गीतकार के रूप में भी अविस्मरणीय छवि दर्शाने वाला था। साहित्य, संस्कृति और शिक्षा के मूत्र्तमान बिम्बों का साकार दिग्दर्शन कराने वाली यह विभूति पश्चिमी राजस्थान से लेकर दूर-दूर तक अपने आभामण्डल की चमक-दमक का दशकों तक आभास कराती रही।
      
आज के दिन ही ली संसार से विदा

साहित्य की भगीरथी बहाने वाली यह महान विभूति 14 जनवरी 2012 को संसार को अलविदा कह दिव्य लोक में समा गयी। आम आदमी के हृदयाकाश में जनकवि के रूप में अमिट प्रतिष्ठा स्थापित करने वाले श्यामसुंदर श्रीपत आज हमारे बीच नहीं है मगर उनका कालजयी साहित्य अमर है। उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व साहित्य के नवांकुरों से लेकर प्रतिष्ठित साहित्यकारों तक के लिए नवीन ऊर्जा व प्रेरणा का संचार करने वाला है। श्यामसुंदर श्रीपत की प्रथम पुण्य तिथि पर भावमीनी श्रृद्धांजलि...।



---डॉ. दीपक आचार्य---
जिला सूचना एवं जनसंपर्क अधिकारी,
जैसलमेर

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