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शनिवार, 19 जनवरी 2013

हम सब अन्यतम कृतियाँ हैं....


किसी से नहीं रखें प्रतिस्पर्धा भाव !!!


संसार भर में जन्म लेने वाला हर प्राणी अपने आप में अद्वितीय और अन्यतम है। जो भी इस सृष्टि पर पैदा हुआ है उसे ईश्वर ने अपनी तरह का अकेला ही गढ़ा है। हो सकता है चेहरे-मोहरे और कद-काठी में कहीं-कहीं समानता का आभास हो लेकिन बुद्धि और व्यवहार में थोड़ा-बहुत अंतर निश्चित ही होता है। दुनिया में आदमियों की ही बात करें तो चाहे वह किसी भी हिस्से या ध्रुव का आदमी हो, किसी न किसी दृष्टि से वह अपने आप में अकेला उदाहरण होता है। सृष्टि के सर्जक ने ऎसा कमाल का संसार बनाया है जिसमें हरेक में किसी न किसी अनुपात में कोई न कोई नवीनता या परिवर्तन दिखता और होता ही है। ऎसा करते हुए ईश्वर ने हमें अपनी अलग पहचान बनाने का संकेत दे दिया है और इसे देखते हुए हर व्यक्ति का फर्ज है कि वह ईश्वर का सम्मान करते हुए अपने आपमें कोई न कोई नयापन लाते हुए ऎसा काम कर जाए कि दुनिया को उसके विशिष्ट कर्म की गंध युगोंं तक महसूस होती रहे तथा जब यह काम करने वाला ईश्वर के घर लौटे तो उसे मनुष्य के रूप में सफल होने की शाबाशी जरूर मिले। ऎसा होने पर ही हमारा मनुष्य के रूप में जन्म लेना और मरना सार्थक है वरना दुनिया में भीड़ की तरह आने और जाने वालों का तो तांता लगा ही रहता हैे। हमें भी जाना है और उन सभी को भी, जो हमारे समय में पैदा हुए हैं या हो रहे हैं। इसमें कोई नयी बात है ही नहीं।

व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक कर्म और सेवा की अपार संभावनाओं भरे अखूट अवसर हैं जिनका लाभ लेकर हम अपने अन्यतम और अद्वितीय व्यक्तित्व को सँवार कर अलौकिक बनाने में समर्थ हो सकते हैं। यह हम पर निर्भर है कि हमें किस प्रकार अपने व्यक्तित्व का विकास करना है।  कई लोग अपने चेहरे-मोहरे, हाव-भाव और कामों से लेकर जीवनचर्या तक में किसी न किसी को रोल मॉडल बनाकर उसी के अनुरूप ढलने लगते हैं। खूब सारे लोग नकलची बंदरों की तरह दूसरों के व्यक्तित्व के साँचों में फिट होने की कोशिश करते हुए उन्हीं में ढल जाते हैं और एक दिन इनकी जिन्दगी भी परायी पहचान के साथ ढल जाती है। कुछ किस्मों के आदमियों को एक ही तरह के किरदारों की नकल और उन्हीं की फ्रेम में फिट होना अच्छा नहीं लगता। ऎसे चंचल लोेग समय-समय पर लाभ-हानि और जमाने की हवाओं का रूख देखकर अपने आपको दूसरों की तरह ढालने में लगे रहते हैं। ऎसे लोग वास्तव में बहुरूपिये कहे जाने लायक ही हैं। कुछ सीमित संख्या में लोग ऎसे होते हैं जो अपनी पहचान कायम करने के लिए अपने मौलिक विचारों भरे संकल्पों का इस्तेमाल करते हुए आगे बढ़ते हैं और दुनिया को यह जताने का सामथ्र्य पा लेते हैं कि जो कुछ वे हैं अथवा कर रहे हैं वह उन्हीं का मौलिक है।

ऎसे लोग दुनिया में अपना नाम कर जाते हैं और यह सिद्ध भी कर जाते हैं कि ईश्वर ने उन्हें जिस भावना से अन्यतम व अद्वितीय स्वरूप में भेजा था, उस ईश्वर का उन्होंने पूरा आदर-सम्मान करते हुए अपने अन्यतम स्वरूप से अलौकिकता का सफर पा लिया है। इस सारे शाश्वत सत्य के बावजूद हम छोटे-मोटे कामों, कार्यशैलियों, लोक व्यवहार और काम-काज से लेकर परिवेशीय हलचलों मेंं भागीदारी के मामले में दूसरों से प्रतिस्पर्धा करने लगते हैं जबकि इस प्रतिस्पर्धा का न कोई औचित्य है न लक्ष्य। हर आदमी को अपने ढंग से जीने और मरने तक के लिए भगवान ने मौलिक बुद्धि और हुनर दिए हैं। कोई इन पर विश्वास करता हुआ अपने आपको अन्यतम कीर्तिलायक बना देता है जबकि खूब सारे ऎसे होते हैं जिन्हें अपने पर विश्वास नहीं होता और पूरी जिन्दगी कभी इधर से तो कभी उधर से नकल करते हुए अपने आपको जोड़-तोड़ से कृत्रिमता ओढ़ते हुए कुछ बनने और दिखाने के लिए निरन्तर प्रयास करते रहते हैं। कर्मयोगी अपनी मौलिक बुद्धिमत्ता और हुनरों का इस्तेमाल करते हुए अपने कर्मयोग में ही रमते हुए लक्ष्यों की डगर पर तेजी से चलते रहते हैं। दूसरी ओर अपने मानवी साामथ्र्य पर भरोसा खो बैठे हुए लोेग परायों पर इस प्रकार आश्रित हो जाते हैं कि यह निर्भरता उनकी जिन्दगी के प्रत्येक पहलू में दृष्टिगोचर होती है।

और ऎसे लोग ही दूसरों से प्रतिस्पर्धा और ईष्र्या रखते हुए जमाने भर के कंधों पर चढ़कर आगे ही आगे बढ़ने और दूसरों की नज़रों में आने के लिए सभी प्रकार के जायज-नाजायज हथकण्डों का इस्तेमाल करते रहते हैं। इस किस्म के लोग अपने व्यक्तित्व विकास के लिए अच्छे लोगों और श्रेष्ठ कर्मों की हूबहू नकल भी नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनके अहंकार, उत्तम लोगों के प्रति चरम ईष्र्या भाव और दूसरों के संसाधनों का इस्तेमाल कर परायों की छाती पर चढ़कर भी ऊपर और आगे रहने के उनके सदाबहारी भाव ही ऎसे होते हैं कि इनके सामने सिवाय ईष्र्या और प्रतिस्पर्धा के कुछ नहीं होता। इनके द्वारा की जाने वाली प्रतिस्पर्धा भी स्वस्थ न हो कर तमाम प्रकार की मलीनताओं से भरी होती है और इस प्रतिस्पर्धा में जीतने के लिए ये लोग किसी भी सीमा तक नीचे गिर सकते हैं या गिरा सकते हैं। प्रतिस्पर्धा का स्वस्थ और शुचिता भरा भाव तभी हो सकता है जबकि मन में भावनाएं पवित्र हों और लक्ष्य के प्रति एकमेव समर्पण हो। यह लक्ष्य और इसे पाने के साधन भी सकारात्मक ही होने जरूरी हैं तभी स्वस्थ प्रतिस्पर्धा सफलता के सोपानों से साक्षात करा सकती है। लेकिन अधिकांश लोग ऎसा नहीं कर पाते हैं क्योंकि प्रतिस्पर्धा का भाव वे ही रखते हैं जिन्हें अपने मौलिक चिंतन और हुनर पर कोई भरोसा नहीं होता है। इसलिये जीवन में जहाँ भी आगे बढ़ना चाहें प्रतिस्पर्धा का भाव ना रखें।



---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

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