दुरुपयोग की आदत खत्म करें !!!
जो अपना है वह अपना है ही, दूसरों का है वह भी अपना कैसे हो जाए, यह आजकल के आदमी की फितरत में आ गया है। पुरुषार्थ और मेहनत करके अर्जित करने की परंपरा का ह्रास हो रहा है और बिना मेहनत किए सब कुछ पा जाने का शगल इतना परवान चढ़ा हुआ है कि आदमियों की हरकतों को देख कर संशय होने लगता है कि यह वही आदमी है जिसे आदमी के साँचे में ढालकर भगवान ने इस धरा पर भेजा है। पूर्वजों ने अपने पुरुषार्थ को सर्वोपरि माना और जो कुछ अर्जित किया उसे अपनी मेहनत से अर्जित किया। दूसरे की कोई सामग्री, अन्न-जल या मुद्रा जो कुछ भी हो, उसे पाने का इरादा कभी नहीं रखा बल्कि हमेशा इसी बात को ध्यान में रखा कि जो अपने लिए होना चाहिए उसके लिए स्वयं पुरुषार्थ करके अर्जित किया जाए। ऎसा नहीं किया जाकर दूसरों के हिस्से से कुछ भी अनायास या सायास, मांग कर अथवा और किसी रास्ते से पाया जाएगा वह चोरी ही कहलाएगी और इससे अपने पर कर्ज बढ़ेगा जिसे उतारने के लिए कई और जन्म भी लेने पड़ सकते हैंंं।
जिन्दगी के उस सुकूनदायी दौर में कमाने और खाने की श्रृंखला की बजाय जीवनमुक्ति की श्रृंखला विद्यमान थी जिसका यही मूलमंत्र था कि जीते जी सारी सांसारिक ऎषणाओं का किस प्रकार अनासक्त उपभोग किया जाए ताकि दुनिया का उपकार भी होता रहे और किसी का कर्ज अपने सर पर लेकर नहीं मरना पड़े। लेन-देन के मामलों में सावधानी होने के साथ ही मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत तथा आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की भावनाओं को सर्वोपरि सम्मान भी था और ऎसे मेें लोगों की कुदृष्टि न किसी पर पड़ती थी और न ही इस प्रकार की भावनाओं का बीजांकुर ही निकल पाता था। पर हाल के कुछ दशकों में आदमी का समूचा व्यवहार और दृष्टि सब कुछ स्वच्छंद और उन्मुक्त होता जा रहा है। आदमी का पूरा व्यवहार अब परायों के माल को अपनी तरफ आकर्षित करने और उसे किसी न किसी तरह अपने कब्जे में ले लेने के सारे जतन करने पर केन्दि्रत होता जा रहा है। आदमियों की एक किस्म तो ऎसी ही हो गई है कि वह अपने जगने से लेकर सोने तक के सारे कामों के लिए परायों की सामग्री का उन्मुक्त उपयोग और उपभोग करना चाहती है। और इस हुनर को ही अपना स्टेटस सिम्बोल या जीवन भर की सबसे बड़ी योग्यता मानती है।
इन लोगों के लिए अपनी जिन्दगी की सफलता का पैमाना अपने पुरुषार्थ की बजाय दूसरों के संसाधनों को अपने लिए इस्तेमाल करने की कला ही हुआ करती है। उन लोगों को आजकल सर्वाधिक सफल भी माना जा रहा है जो दूसरों के संसाधनों पर मौज उड़ाने में महारत रखने लगे हैं। इस किस्म के लोगों के लिए यह जरूरी नहीं कि ये छोटे हों या बड़े, प्रभावशाली हों या बिना किसी प्रभाव के, पढ़े-लिखे हों या फिर अनपढ़। आदमियों की इस किस्म में सभी तरह के लोग हो सकते हैं। ऎसे लोग आजकल सभी स्थानों पर पाए जाते हैं और खूब संख्या में। अपने आस-पास भी ऎसे लोग हैं और अपने इलाके में भी। हमारे अपने कर्मस्थलों पर भी ऎसे लोग हैं और उन स्थानों पर भी जहाँ हमारा परिचय है। हमारे रोजमर्रा के काम-काज में सम्पर्क में आने वाले खूब लोग भी ऎसे हैं जिनकी हरकतें ऎसी ही हैं। खुद के संसाधनोें को संभाल कर रखने, पैसा बनाने और संग्रह करने में माहिर ऎसे लोगों की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि ये लोग जहां जाएंगे वहां उनकी पैनी निगाह ऎसे उपकरणों और संसाधनों पर जरूर पड़ जाती है जिनका ये लोग बिना पूछे या पूछकर उपयोग करने के आदी होते हैं।
कुछ नहीं तो ऎसे लोग टेलीफोन का चोगा उठाकर धडाधड़ डायल करते हुए जमाने भर की खबर ले लेंगे या फिर दफ्तर या घर-दुकान अथवा प्रतिष्ठान से अपने काम की कोई चीज ही बिना शर्म के उठा लेंगे या मांग लेंगे। हालात ये हो गए हैं कि किसी भी प्रकार की सामग्री या संसाधन का उनके लिए कोई उपयोग भले न हो, पर लोक दिखावन मकसद से ही सही, इन पर हाथ मार कर अपने घर ले जाकर संग्रहित कर ही लेंगे। पुस्तकों के मामले में ऎसे लोगों की कोई कमी नहीं है जो जहाँ कोई पुस्तक देखी नहीं कि गिद्ध की तरह झपट कर ले लेंगे या फिर छिपा कर रख लेंगे। ऎसे लोगों के घरों में चुरायी हुई पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं का इतना भण्डार हो जाता है कि पूरा घर ही लगता है कि जैसे चोरी या उड़ाये हुए माल का गोदाम ही हो। इसी तरह ये लोग वस्तुओं को जमा करते रहने के आदी हो जाते हैं। कई सारे लोग अपने साथ झोला रखना कभी नहीं भूलते। इन लोगों का पक्का लक्ष्य होता है कि शाम ढले घर जाएं तब झोला भरा हुआ ही होना चाहिए।
चाहे फिर कोई सी करामात अपनानी पड़े या अभिनय दिखाना-करना क्यों न पड़े। ये लोग रोजाना और बरसों के अभ्यास के बाद लोगों को गुमराह एवं भ्रमित करने के आदी हो ही जाते हैं और इस अभ्यास की बदौलत ये रोजाना अपने हक में कुछ न कुछ नया जमा करते ही रहते हैं। ये अलग बात है कि ये इनमें से कुछ भी सामग्री ये अपने पर खर्च नहीं कर सकते हैं और न कर पाने की स्थिति में होते हैं। इनके भाग्य में सिर्फ जमा करना ही लिखा है और पुरुषार्थहीन ऎसे लोग दुनिया भर के संसाधनों को जमा करने का पाप अपने सर पर लेकर अन्ततोगत्वा स्वर्ग सिधार जाते हैं। घर-गृहस्थी की बात न भी करें तो आदमियों की एक और अजीब किस्म होती है जो कि अपने लिए उपयोगी संसाधन खरीदने में विश्वास नहीं रखती बल्कि बाहर से कबाड़ लिए जाने में माहिर होती है।
छोटे से लेकर बड़े तक आदमी जहां काम करते हैं वहीं के संसाधनों को अपने लिए इस्तेमाल करने ये घर ले जाते हैं। हमारे अपने आस-पास भी ऎसे कितने ही महान महान कर्मयोगियों की भरमार है जो यह मानते हैं कि वे जहां काम करते हैं वहां की भी सारी सामग्री पर उनका अधिकार है फिर चाहे इसका इस्तेमाल घर के लिए हो या दफ्तर के लिए। सालाना हजारों और लाखों कमाने वाले भी ऎसे भिखारी किस्म के लोग हमारे आस-पास हैं जो अपने लिए पराये संसाधनों का इस्तेमाल करने के आदी हो गए हैं। इन बेशर्म और निर्लज्ज लोगों के लिए हमारे पास कुछ शब्द नहीं हुआ करते हैं मगर इससे उन लोगों पर कहां कोई फर्क पड़ता है जिन्होंने मानवता की सारी सीमाओं को लांघ दिया है और पूरा जीवन परायों की सामग्री के भरोसे ही सौंप रखा है। जो लोग जिन्दगी में हर क्षण के लिए परायी सामग्री के आदी होते हैं ऎसे लोग जीवन के उत्तरार्ध तक पहुँचते-पहुँचते खुद भी पराये हो जाते हैं और उनके लिए अपने जीवन का कोई मूल्य नहीं हुआ करता सिर्फ परायों के भरोसे जिन्दगी को गिरवी रख कर जैसे-तैसे टाईमपास करने के।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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