धर्म के मर्म को समझना !!
धर्म क्या है? इस विराट सत्य को जानने के लिए यह जरूरी है कि हम धर्म के सभी पक्षों को आत्मसात करें और इसकी गहराइयों में जाकर देखें कि धर्म का मूल मर्म क्या है। धर्म के मर्म को समझे बिना न तो अपना जीवन सार्थकता पा सकता है और न ही हमारा आत्म कल्याण ही संभव है। जीवन भर हमें पूरे प्रयत्नों के साथ चित्त की शुद्धि और पवित्रता के भाव पैदा करने चाहिएं। जिस हृदय में पवित्रता की सरिताएं प्रवाहित होती हैं, जिस चित्त में दिव्यता की धाराएं पूरे वेग से बहती हैं और जहाँ शुचिता का भाव बरसता रहता है वहीं से आरंभ हो पाता है आत्म कल्याण और जगती कल्याण का मार्ग।
हमारे समग्र जीवन में प्रमुख रूप से दो अवस्थाएं होती हैं एक शांति और संतोष की, दूसरी असंतोष और अशांति की। इन्हीं के साथ जुड़ी होती हैं कई-कई धाराएं जो एक-दूसरे की विलोमानुपाती होती हैं। कहीं आनंद तो कहीं ईष्र्या, कहीं सुख तो कहीं दुःख। इन सभी प्रकार की सम और विषम स्थितियों में जीते हुए आदमी राग-द्वेष, शांत-उद्विग्न, रोगी-निरोगी, अच्छे-बुरे, सुरक्षित और संकटात्पन्न स्थितियों में न्यूनाधिक रूप से परमात्मा का स्मरण करता है और उसी से उसे तुष्टि का अहसास करता है। सुख के समय बहुत कम और दुःख की स्थितियों में ज्यादा से ज्यादा स्मरण करता है। बहुधा सामान्य लोग ऎसे होते हैं कि दुःख के समय भगवान को भूल जाते हैं और यही वह स्थिति होती है जब उसे दुःखों का अहसास होने लगता है। यदि परमात्मा का स्मरण सुख के समय भी बना रहे तब व्यक्ति के जीवन में दुःखों के पहाड़ भी सामने होंगे तब भी उसे दुःखों का आभास मात्र होगा, दर्द का अहसास भी होगा तो मामूली एवं सहज सहनीय।
परमपिता परमात्मा यों तो अगोचर है लेकिन भावों के अनुरूप वह कहीं भी प्रकट हो सकता है, इसके लिए भक्त के मन में ईश्वर पाने की जितनी अधिक आतुरता, वेग और असहनीय तीव्रता होगी, उतना जल्दी वह ईश्वर का सान्निध्य किसी न किसी रूप में प्राप्त पा लेता है। इसलिए ईश्वर प्राप्ति के लिए श्रद्धा और आस्था की चरमावस्था और तीव्रतम वेग का होना अनिवार्य शर्त है और इसी से व्यक्ति को आत्म साक्षात्कार तथा ईश्वर से साक्षात्कार के द्वार खुलते हैंंं। श्रद्धा और भक्ति से परमात्मा का स्मरण कर लिए जाने पर जीवन के हरेक कर्म और हर क्षण में ईश्वरीय दिव्यताओं की किसी न किसी रूप में अनुभूति सहज ही होने लगती है। ईश्वर से प्राप्ति के कई कारक हैं। जो जैसा मांगता है वैसा ही ईश्वर की ओर से उसे प्राप्त होने लगता है। यह सब व्यक्ति के संकल्प पर निर्भर करता है, जिस समय जो संकल्प हमारे मन में होता है उसी से संबंधित परमाणुओं और अणुओं की रचना होने लगती है। इसलिए संकल्प महान से महानतम होने चाहिएं ताकि ईश्वर से वह प्राप्त होने लगे जो अद्वितीय और दुर्लभ हो। इसलिए ईश्वर से क्षणिक समय के लिए ही बने रहने वाले भौतिक संसाधनों और सुखों की याचना नहीं करनी चाहिए क्योंकि जो सुख और भोग-विलास पूर्वजन्मों के कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होना है वह अपने आप प्राप्त होने वाला है।
ईश्वर से अपने लिए आध्यात्मिक उन्नति और स्वयं ईश्वर को ही मांगना चाहिए। ऎसा हो जाने पर ईश्वरीय समस्त विभूतियां हमारे लिए अपनी हो जाती हैं। इनके साथ ही हमारी आत्मा का कल्याण भी हो जाता है। ईश्वरीय दिव्यताओं को प्राप्त करने के लिए हमारे लिए यह जरूरी है कि हम न किसी के प्रति ईष्र्या भाव रखें न किसी प्रकार का विद्वेष। ऎसा करने से हमारे चित्त की शुचिता और शांति दोनों ही समाप्त हो जाते हैं और ऎसे नवीन प्रारब्ध का आरंभ हो जाता है जिसमें कर्म बंधन की सारी संभावनाएं बनी रहती हैं तथा आने वाले कई जन्मों तक इनका चक्कर बना रहता है।
आनंद और आत्मिक शांति पाने के लिए अपने चित्त को सदैव परमात्मा की भक्ति में लगाना चाहिए और प्राणी मात्र की कल्याण की कामना करनी चाहिए। धर्म का अर्थ मन्दिरों और बाबाओं के चक्कर काटना या माला और दूसरे उपकरणोें को बजाते फिरना, यज्ञ-यागादि या अनुष्ठान अथवा तिलक-छापे, जटा या मुण्डन आदि नहीं हैं बल्कि धर्म का सीधा सा अर्थ है मनुष्य जीवन के लिए निर्धारित वे सदाचार जिनके माध्यम से व्यक्ति खुद के साथ ही जगत के कल्याण के लिए प्रयत्नशील रहता है और उसके किसी भी कर्म से औरों को दुःख या निराशा का अनुभव न हो। जीवन में आने वाले संघर्षों से न घबराएं। ये संघर्ष ही हैं जो आपके जीवन को महकाते हैं, आपका महत्त्व बताते हैं और आपको भीड़ से बाहर निकाल कर स्थापित करते हैं। गुलाब काँटों से घिरा रहता है लेकिन वह सदैव दूसरों को मुस्कराहट रूपी महक देता है।
ठीक उसी तरह व्यक्ति को संघर्षों, विपरीत परिस्थितियों में भी दूसराें के प्रति सद्भावना, दया, प्रेम और करुणा के भाव अपनाने चाहिएं तभी जीवन रूपी बगिया अपनी वह अन्यतम पहचान स्थापित कर सकती है जहां आकर हर कोई आनंद की अनुभूति करेगा और जो हमारे करीब आएगा उसका जीवन भी इंसानियत की महक पाकर सुगंधित हो ही जाएगा। पीड़ाओं और दुःखों से घिरे लोगों के प्रति सेवा का भाव रखें, सदाचारों से परिपूर्ण आदर्श जीवन जीएं और अपने सम्पूर्ण जीवन को भगवद् भक्ति से इस प्रकार परिपूर्ण करें कि आने वाले कई युगों तक हमारे मानवीय मूल्यों और आदर्शों की कीर्तिपताका फहराती ही रहे।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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