सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार को निर्देश दिया है कि राज्य के सभी विविद्यालयों और उससे सम्बद्ध कॉलेजों में कार्यरत गैरशैक्षणिक कर्मचारियों को प्रदेश के कर्मचारियों के बराबर का दर्जा दिया जाए. उनके वेतनमान और अन्य सुविधाओं में विसंगतियों को दूर करके उन्हें तीन माह के अंदर लागू किया जाए. सुप्रीम कोर्ट के आदेश से बिहार के विविद्यालयों में कार्यरत हजारों कर्मचारियों को लाभ होगा.
जस्टिस पी सदाशिवम और जगदीश सिंह केहर की बेंच ने पटना हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ राज्य सरकार की याचिका को खारिज कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गैरशैक्षणिक कर्मचारियों के फेडरेशन और राज्य सरकार के प्रतिनिधियों के बीच जुलाई 2007 में हुए समझौते के प्रावधानों को लागू किया जाए. बेंच ने राज्य सरकार के इस तर्क को अस्वीकार कर दिया कि कैबिनेट की मंजूरी के बिना हुए समझौते को मानने के लिए सरकार बाध्य नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समझौते के बाद राज्य सरकार द्वारा आदेश जारी करने के बाद वह अपने निर्णय से मुकर नहीं सकती. सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की इस दलील को भी नकार दिया कि राज्यपाल द्वारा आदेश जारी न होने के कारण कानून की नजर में समझौता वैध नहीं है.
अदालत ने स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद 166 के तहत इस तरह के मामलों में राज्यपाल की भूमिका निर्देशात्मक है, अनिवार्य नहीं. अगर राज्यपाल के हस्ताक्षर के बिना सरकार सर्कुलर जारी करती है तो इसे सरकार का ही आदेश माना जाएगा. बिहार सरकार के शिक्षा विभाग ने उच्च शिक्षा केसंस्थानों में कार्यरत कर्मचारियों को 1987 में ही राज्य सरकार के स्टाफ के समकक्ष दर्जा दे दिया था. इस आदेश के लागू न होने पर राज्य के तमाम विविद्यालयों और कॉलेजों के कर्मचारी कई बार हड़ताल पर जा चुके थे. हर बार हड़ताल इस आासन के साथ समाप्त की जाती थी कि राज्य सरकार जल्द ही आंदोलनकारी कर्मचारियों की मांगों को मूर्तरूप देगी.
19 जुलाई, 2007 को कर्मचारियों ने राज्य सरकार के साथ हुए लिखित समझौते के बाद ही अपनी हड़ताल खत्म की थी. जब एक साल तक सरकार ने समझौते को लागू नहीं किया तो जुलाई 2008 में कर्मचारी एक बार फिर हड़ताल पर चले गए. दरोगा प्रसाद रॉय कॉलेज के छात्र सनी प्रकाश ने शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई ने होने कारण पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को पत्र लिखा. चीफ जस्टिस ने पत्र को जनहित याचिका में तब्दील करके सुनवाई की और सात अगस्त, 2008 को राज्य सरकार को आदेश दिया कि वह समझौते को लागू करे.
हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया. अपने ही आदेश को रद्दी की टोकरी में डालने पर सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार की खिंचाई की. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 17 जुलाई, 2007 को हुए समझौते में फेडरेशन के नेताओं के अलावा राज्य विधान परिषद के अध्यक्ष प्रोफेसर अरुण कुमार और मानव संसाधन मंत्री श्री वृष्ण पटेल और विभाग के सचिव सहित कई अफसर और विधान परिषद सदस्य मौजूद थे. 50 प्रतिशत महंगाई भत्ते को मूल वेतन में सम्मिलित करने, लाईब्रेरियन को विविद्यालय अनुदान आयोग(यूजीसी)द्वारा निर्धारित वेतनमान देने, चिकित्सा भत्तों में बढ़ोतरी सहित कई मांगों को राज्य सरकार ने स्वीकार कर लिया था.
अगले ही दिन राज्य सरकार ने इस संबंध में आदेश भी जारी कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकारी परिपत्र जारी होने के बाद राज्य सरकार द्वारा उसे न मानना किसी भी सूरत में जायज नहीं है. सत्ता परिवर्तन के बाद भी राज्य सरकार को अपने आदेश को मानना होता है. अगर सरकार अपने ही आदेश को वापस लेती है तो उसके लिए नियम तय है. लेकिन दो दशक से अधिक समय से चल रहे पत्राचार में सरकार ने कभी भी अपने आदेश को वापस नहीं लिया. सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाईकोर्ट को निर्देश दिया कि इस संबंध में लंबित जनहित याचिका पर अब सुनवाई की जरूरत नहीं है.
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