सारी बीमारियों का कारण !!!
आधि, व्याधि और उपाधि ये मनुष्य के जीवन में जन्म के साथ ही लगी हुई हैं। समय बीतने के साथ ही इनका प्रतिशत न्यूनाधिक रूप से घटता या बढ़ता रहता है और इसी के साथ पूरी जिन्दगी हम कभी स्वस्थ रहते हैं और कभी अस्वस्थ। व्याधियां भी कई प्रकार की होती हैं लेकिन इनमें मानसिक और शारीरिक दो प्रकार की व्याधियां मुख्य हैं। इन बीमारियों का आरंभ सूक्ष्म धरातल पर होता है और प्राण तत्व से सीधा संबंध होता है। हर बीमारी पहले पहल मन-मस्तिष्क में सूक्ष्म आकार ग्रहण करती है और यहीं से इसका स्थूल रूप में रूपान्तरण शारीरिक व्याधियों के रूप में होने लगता है। इन बीमारियों की शुरूआत हमारे आभामण्डल से होती है और शुरू-शुरू में यह आभामण्डल दूषित होने लगता है।
जानकार लोग इसकी अनुभूति कर समय पर हीलिंग करते हुए सूक्ष्म धरातल से ही इन व्याधियों को मिटा देते हैं इसके बाद ये व्याधियां कभी आकार नहीं ले पाती हैं। इसी प्रकार किसी भी प्रकार की मलीनता हमारे मन-मस्तिष्क में आ जाने पर इसके फल को लेकर शंकाओं और आशंकाओं का जो ताण्डव सूक्ष्म धरातल पर मचता है उसकी वजह से मन-मस्तिष्क में उद्विग्नता, क्षोभ, अशांति और विषाद की वजह से लहू से लेकर दूसरे शरीरस्थ रसायनों का वेग असामान्य रूप से बढ़ जाता है और इस वजह से शरीर के सभी तंतुओं में बढ़ा हुआ प्रवाह किसी न किसी व्याधि के रूप में आकार ले लेता है और यहीं से शुरू होता है बीमारियों की शुरूआत का दौर। आम तौर पर जो लोग मन-मस्तिष्क से मजबूत होते हैं उनमें व्याधियों का असर उतना नहीं होता जितना कि आत्मविश्वास से हीन लोगोें में। इसी प्रकार मन-मस्तिष्क मेंं पवित्रता और पूर्ण शुचिता के साथ प्रेम, सद्भावना, सेवा और परोपकार जैसे आदर्श मूल्यों का भाव बना रहे तथा इसके साथ ही व्यक्ति यदि निष्काम, निःस्वार्थ भाव से जीवनयापन करे तथा मनुष्य के लिए निर्धारित अनुशासन और मर्यादाओं का पूरा-पूरा पालन करे तो काफी हद तक ऎसे लोग बीमारियों से दूर रह सकते हैं।
मलीनताओं और बीमारियों का पारस्परिक गहरा और शाश्वत संबंध रहा है। जिस अनुपात में शरीर में मलीनताएं कम होंगी, औरों के प्रति हमारी भावनाएं शुद्ध और स्वच्छ होंगी, उस अनुपात में शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता ज्यादा होगी और ऎसे में हम बचे रह सकते हैं व्याधियों से। आम तौर पर बीमारियां उन्हीं लोगों को ज्यादा होती हैं जो जीवन को भोगप्रधान मानकर संयम से दूर रहा करते हैं क्योंकि अधिक भोग बीमारियों को आमंत्रित करता है और ऎसे में भोगप्रधानता जितनी बढ़ेगी, उतना ही शारीरिक क्षरण और मानसिक गिरावट का दौर ज्यादा रहता है। इनके साथ यदि कुटिलता, दुष्टता और मलीनता का सम्मिश्रण हो जाए तब की स्थिति में बीमारियों को हमारे शरीर में बेहतर भावभूमि के साथ मजबूत नींव भी मिल जाती है और यहीं से शुरू हो जाता है उन बीमारियों का दौर जिनमें कुछ असाध्य कही जाती हैं, और काफी सारी असाध्य।
जो जितना अधिक मलीन होगा उसकी बीमारियां उतनी ही देर से कटेंगी। काफी बीमारियां पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम होती हैं और ऎसे में इनके लिए मलीनता न हो तब भी ये ज्यादा प्रभाव छोड़ती हैं। लेकिन अधिकांश मामलों में व्यक्ति की जीवनचर्या और मन की स्थितियां ही होती हैं जिनका संबंध बीमारियों से होता है। आम तौर पर हम जिन बड़े लोगों और प्रभावशाली लोगों को देखते हैं उनमें भी अपेक्षाकृत वे ही लोग ज्यादा स्वस्थ रहते हैं जो अनुशासित और मर्यादित रहते हैं और उनका विश्वास होता है कि परमात्मा ने जो जीवन दिया है उसे अच्छी तरह निभाएं और अच्छा जीवन जीयें। लेकिन जो लोग कुटिल और खल होते हैं, झूठ-फरेब, कथनी-करनी में अंतर और चोर-उचक्के, बेईमान-भ्रष्ट तथा व्यभिचारी लोगों में बीमारियों का प्रतिशत स्वाभाविक रूप से ज्यादा ही होता है।
भले ही ये लोग स्वस्थ और मस्त दिखें, तरह-तरह के लिबासों में फबते रहें, मगर असलियत तो यही है कि इनका पूरा जीवन दवाओं पर निर्भर रहा करता है। जो लोग अपने जीवन में बीमारियों से मुक्ति चाहते हैें उन्हें चाहिए कि वे मन के धरातल पर मलीनताओं को निकालने का अभ्यास करें और कुटिलताओं को अपने पूरे जीवन से बाहर निकाल फेंके। ऎसा होने पर ही बीमारियों से बचे रहा जा सकता है और जो लोग बीमारियों से ग्रस्त हैं उन लोगों पर दवा का असर देखा जा सकता है। मन की मलीनताओं के रहते न दवाओं का असर हो पाता है, न दूआओं का।
---डॉ. दीपक आचार्य----
9413306077
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें