(दुनिया का पहला एटम बम ‘ लिटिल ब्वाय ’ )
" आदमी खुद को कभी यू भी सजा देता है ,
रौशनी की चाह में शोलो को हवा देता है "
आजकल भारत में परमाणु ताकत का अहसास करानेवालों की कमी नहीं
है. बिजली उत्पादन में परमाणु ताकत का इस्तेमाल करने के तर्कों की भरमार है. लेकिन संसार
के मानचित्र पर परमाणु ताकत ने जो तबाही मचाई है क्या हमने कभी उसके करीब जाकर
परमाणु की उस विनाशक ताकत को अनुभव करने की कोशिश की है कि अगर दांव उल्टा पड़ा तो
क्या होगा?
जापान के हिरोशिमा शहर से होते हुए अश्विनी कुमार जोशी की अनुभव रिपोर्ट-
रूह कांप जाती
है रौंगटे खड़े हो जाते हैं
मानवता पर कहर ढाने वाले, दुनिया के पहले एटमी बम जिसे 'लिटिल ब्वाय' का नाम दिया गया था, जापान में हिरोशिमा शहर पर 6 अगस्त 1945, सुबह ठीक 8-15 पर, शिमा अस्पताल के ठीक उपर गिराया गया था।
मेरा सपना था कि, इस जगह को एक बार जाकर जरूर देखूं जहां पर प्रलय जैसा विनाश हुआ था। शायद महाभारत युद्ध
में भी महान योद्धाओं ने ऐसा विनाश नहीं सोचा था। वहां का 'ए बम डोम' (एक इंडस्ट्रीयल प्रोमोशन बिल्डिंग जो बम से उपजे हाइपोसैंटर के 160 मीटर पास थी, जिसे 'जेनबाकू डोम' कहा जाता था और वहां पर 1996 में वल्र्ड हैरीटेज़ साइट गोष्टी हो चुकी है) का बम की
गर्मी से जले हुए खण्डर व स्टील
का पिंजर, देखते हैं तो शरीर के रौंगटे खड़े हो जाते हैं। बाकी सब इमारतें तो साफ हो चुकी है पर ये याद के रूप में सम्भाली
हुई है। बम फटने से पहले, यह डोम, खूबसूरत, शक्तिशाली लोहे की बिल्डिंग थी।
'जेनबाकू डोम' के सामने लेखक अश्विनी कुमार जोशी -
अंदाजा लगता है कि वहां इन्सानों का क्या हश्र हुआ होगा जब
हिरोशीमा पर, 580 मीटर की ऊंचाई पर बम विस्फोट किया गया था। बम विस्फोट से बने हाईपोसेंटर, यहीं धुएं व आग का गोला, तब अनुमान के मुताबिक 12 हजार मीटर ऊंचाई पर गया, मगर लगातार जारी रिसर्च से वर्ष 2010 फरवरी में, हिरोशीमा यूनिवर्सिटी में लैक्चरर व इंटेलीजैंट सिस्टमों के माहिर विज्ञानी ' मसाशी बावा ' ने कहा कि यह 12 नहीं, 16 हजार मीटर ऊंची थी।
उन्होंने कहा कि
जिस अमेरिकी विमान से विस्फोट के समय फोटो लिए गए थे वे उस वक्त 28,480 फुट ऊंचाई पर, तथा विस्फोट बिन्दु से 56 हजार फीट की दूरी पर था। विशेषज्ञों के मुताबिक, तब आसपास शहर का तापमान तीन हजार से चार हजार डिग्रीसेंटीग्रेड हो गया था। जबकि चाय/दूध सिर्फ 100
डिग्री पर उबल जाते हैं।
विस्फोट के साथ ही इतनी बड़ी, काली बारिश ने शहर पर मौत का कफन बिछा दिया, जिसका बम बनाने वालों को भी अंदाजा नहीं था, रेडियो एक्टिव किरणों ने अपना काम किया, जिसका भुगतान आज की पीड़ी भी कर रही है। (चित्र में देखें
एकलिपटिस का वृक्ष जो परमाणु असर
से बीमार हो कर आज तक बौना ही रह गया)
बम विस्फोट के बाद, अल्बर्ट आइंस्टन ने कहा था, आई मेड वन ग्रेट मिस्टेक इन माई लाइफ, वैन आई साईनड द लैटर टू प्रैजीडैंट रूजवल्ट दैट एटम बम बी यूजड' (मैं उस वक्त अपने जिंदगी की एक सबसे बड़ी गलती की जब राष्ट्रपति रूजवेल्ट को लिखे लैटर पर, एटमी बम का इस्तेमाल करने के अपने हस्ताक्षर किये)।
फिर भी, दाद देनी पड़ती है, कि 1945 की ऐसी भयानक तबाही के बाद भी हिरोशिमा शहर प्रगति में अपने नाम कर
चुका है। यादगारी इमारतों व संग्रहालयों को छोड़, लगता ही नहीं कि यहां ऐसा विनाश हुआ होगा। इसके आगे भारत में हुई प्रगति तो कुछ भी नहीं लगती। वर्ष 1994
में हिरोशिमा में एशियन गेम्स भी हो चुकी हैं। महाराजा तोजो का महल फिर से उसी तरह
ऐतिहासिक बना दिया गया है। गलियों में जिन्दगी तेज रफतार से चल रही है। हमारे देश में पहुंची अब
मैटरो ट्रेन जैसी गाडियां
तो यहां आम है। होटल, रेस्टोरेंट, शापिंग माल, शानदार बाग बगीचे, सड़कों के फूलों से भरे किनारे, मन को गदगद कर रहे हैं। गन्दगी तो ढूंढने से भी दिखाई नहीं देगी। लोग मेहनत व समय के पाबन्द है और अफसर
लोग ईमानदार है। ऐसा लगता है कि रिशवत को यह लोग तो जानते तक नहीं हैं। बच्चों के शान्ति स्मारक पर
टूरिस्ट 'शान्ति घन्ट ' बजाते हैं। ये स्मारक 'साडको' नामक बच्ची के नाम से बनाया गया है जो परमाणु असर से बीमार हो कर 10 वर्ष तक संघर्ष करती चल बसी। कहते हैं उसे विशवास था कि अगर वे एक हजार पेपर क्रेन
बनायेंगी तो स्वस्थ हो जायेगी, मगर वे सिर्फ 644 ही बना सकी, बाकी फिर उसके स्कूल ने पूरे किये। अब जपानी बच्चे इस स्मारक पर उसे पेपर क्रेन भेंट करते हैं।
एटमी बम से प्रभावित लोगों के लिए यहां पर 'हिरोशिमा नेशनल पीस मेमोरियल हाल' बनाया गया है, जिसमें विस्फोट से प्रभावित बचे खुचे लोगों की आंखों देखा वीडियो
बयान, दिल को हिला कर रख देते हैं। इसके नजदीक, खुले आकाश में, एक मशाल (फ्लेम ऑफ पीस) लगातार जल रही है। कहते हैं कि यह तब तक जलती रहेगी जब तक परमाणु शास्त्र पूरे
विश्व से खत्म नहीं हो जाते। पीस मेमोरियल म्यूजियम में परमाणु शास्त्रों के बारे तथा इस परमाणु बम
के बारे काफी ज्ञान मिलता है। यहां पर
बच्चों के शरीर के जले-भुने अंग, उनके स्कूल बैग, गर्मी से पिघला ट्रायसाईकिल जो उन बच्चों के रिश्तेदार
विस्फोट के बाद देख पाये, सुरक्षित रखा गया है ताकि आने वाली पीढिय़ां एहसास कर सकें। ये सब देख कर रूह कांप जाती है। दिल से अपने आप आवाज निकलती है,
''फिर कभी भी मानवता के साथ ऐसा न हो।" अनुमान के मुताबिक, विस्फोट के दिन मरने वालों में, 60 प्रतिशत आग व गर्मी में झुलसे, 30 प्रतिशत धमाके से मलबे में दब गये, 10 प्रतिशत अन्य कारणों से मर गये। फिर कुछ महीनों तक जख्मों व परमाणु प्रभाव से लगी बिमारियों
से मरते रहे। मरने वालों में ज्यादातर सिविलयन लोग थे।
6 अगस्त 1945 को हिरोशिमा पर शायद परमाणु बम काफी नहीं था, इसलिये 9 अगस्त को नागासाकी पर विस्फोट किया गया। जो इससे भी बड़ा था। फिर 15 अगस्त 1945 को जापान ने हथियार डाल दिये, 2 सितम्बर को लिखित कार्रवाई हुई, पेसफिक युद्ध व दूसरे विश्व युद्ध का अन्त। कुछ लोगों का
कहना है कि दूसरा विश्व युद्ध
समाप्ति करने का यही एक तरीका बचा था, क्योंकि हिरोशिमा व नागासाकी शहरों से मिलेटरी का जमाव दुश्मनों को बहुत भारी
पड़ रहा था। जहां अब स्थित पीस म्यूजियम में जापान के, अमरिका, चीन, एशिया, ब्रिटेन में, अगस्त 1945 तक युद्ध को, तरतीबवार खूबसूरती से चित्रित किया गया है। यह लड़ाई खत्म
होती ही शान्ति लहर से - जिसमें ऐसा
कहा गया है कि दुनिया में फिर से कहीं भी परमाणु विनाश न किया जाये। आपको मौका मिले तो यहां का शान्ति स्मारक पार्क व
संग्रहालय जरूर देखना जो हमारी मानवता की इज्जत करने का उपदेश देता है। यह टूरिस्टों का मुख्य आकर्षण केन्द्र है। मदर टरेसा भी यहां आ चुकी है, व भारत के परमाणु विस्फोट के चित्र भी यहां लगाये गये है।
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