नई दवा नीति-2012 के माध्यम से दवा कंपनियों की मुनाफे को कानूनी जामा पहनाने के बाद सरकार अब एक मृत प्रायः संस्था यानी नेशनल फार्मास्यूटिकल्स प्राइसिंग ऑथोरिटी (एनपीपीए) के दफ्तर देश के अन्य राज्यों में भी खोलने का मसूंबा बना रही है... एन.पी.पीए अपने निर्माण काल से लेकर अब तक जब दवाइयों के दामों पर अंकुश नहीं लगा पायी तो क्या राज्यों में इसके विस्तार से दामों पर अंकुश लग जायेगा? दवाइयों के मूल्य तय करने के नीतिगत मामलों में सरकार पहले ही कंपनियों के हाथो की कठपुलती बन चुकी है...दवाइयों के दाम बाजार ही तय करेगा...ऐसे में यह सरकार अपने को जनसरोकारी कहलवाने पर क्यों तुली है?
पांच सरकारी दवा कंपनियों जिनका सालाना टर्नओर पाँच सौ करोड़ रूपये से ज्यादा नहीं है, के भरोसे यह सरकार अपनी वाहवाही किस मुंह से कर रही है? राष्ट्र के स्वास्थ्य के मामले में निकम्मेपन की हद पार चुकीं ये लोककल्याणकारी सरकारें देश को लगातार बीमार बनाती जा रही हैं...लोककल्याणकारी राज्य में लोक का गला इस तरह से शायद ही किसी लोकतांत्रिक देश में काटा जा रहा होगा...अब तो हद की भी हद हो गयी है...क्रोध को भी खुद पर क्रोध होने लगा है...अंदर के ऊबाल को शब्द देने के लिए शब्द कम पर रहे हैं...किस संज्ञा से देश के इन गद्दारों को संबोधित किया जाए...नहीं समझ पा रहा हूं...बस उबल रहा हूं...उबल रहा हूं...और उबलता ही जा रहा हूं...
---आशुतोष कुमार सिंह, ---
लेखक स्वस्थ भारत विकसित भारत अभियान चला रही
प्रतिभा-जननी सेवा संस्थान के नेशनल को-आर्डिनेटर हैं.
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