तो मजाक में भी झूठ न बोलें !!!
अपने मुँह से जो शब्द बाहर निकलता है वह अपने आप में महानतम ऊर्जाओं का भण्डार होता है। इन शब्दों की इतनी जबर्दस्त ताकत होती है कि वह शब्द के साथ लगे हुए संकल्पों को साकार कर सकते हैं। यह सामर्थ्य आदमी में तब तक घनीभूत रहता है जब तक उसमें राग-द्वेष, मद-मात्सर्य, लोभ-मोह आदि का कोई पर्दा ढंका हुआ न हो। मनुष्य जितना भीतर-बाहर से शुद्ध होगा उसकी वाणी का प्रभाव बरकरार रहेगा। इसीलिए निर्मल, निश्चिंत, अनासक्त और निष्कपट लोगों की वाणी का सीधा व धारदार प्रभाव लक्ष्य भेदन में देखने को मिलता है। व्यक्ति मन-मस्तिष्क और हृदय से जितना ज्यादा पवित्र और सात्त्विक होगा उसके संकल्पों और वाणी के फलीभूत होने का प्रभाव उतना ही अधिक तथा त्वरित असरकारी होगा।
वाणी की शुद्धता के लिए खान-पान और व्यवहार की शुद्धता ही सर्वोपरि आधार है। किसी भी व्यक्ति की वाणी और संकल्पों को सुदृढ़ भावभूमि प्रदान करने के लिए यह जरूरी है कि वह व्यक्ति हर दृष्टि से शुचिता पसंद हो और शुचिता बनाए रखने के लिए निरन्तर पूरे प्रयासों के साथ प्रयत्नशील बना रहे। खान-पान में अपवित्रता अथवा भ्रष्टाचार व बेईमानी अथवा हराम के पैसों से आयी या बनी सामग्री का उपयोग एवं उपभोग करने मात्र से चित्त और जिह्वा के साथ सभी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ दूषित हो जाती हैं। दूसरी तरफ कोई व्यक्ति किसी भी कारण से अथवा अपने आपको भीड़ से अलग दिखाने भर के लिए ही सही, बाहर का खान-पान छोड़ देता है लेकिन उसका मन-मस्तिष्क और वृत्तियाँ यदि सात्त्विक और पवित्र नहीं हैं अथवा व्यभिचारी प्रवृत्तियों, राग-द्वेष, शत्रुता, षड़यंत्रों, कथनी और करनी में भेद, अपने स्वार्थों के लिए नापाक समझौतों में रमना आदि को अपनाता है, उस अवस्था में भी उसकी सारी पवित्रता समाप्त हो जाती है और ऐसे लोगों की वाणी अपनी प्रभाव क्षमता खो देती है।
इसलिए व्यक्तिगत जीवन में हर प्रकार की शुचिता जरूरी है। आज के घोर कलिकाल में भी यह बात नहीं है कि वाणी का प्रभाव सामने न दिखाई दे। आज भी खूब सारे लोग हैं जिनकी वाणी का सटीक प्रभाव होता है। कुछ का तत्क्षण होता है, कुछ का धीरे-धीरे अथवा उपयुक्त समय आने पर। आजकल आदमी के जीवन में स्वार्थों, ऐषणाओं, हराम का माल हड़पने और अपने तथा अपने परिवार के लिए जमीन-जायजाद बढ़ाते रहने, सस्ती लोकप्रियता पाने का भूत इस कदर सवार है कि अधिकांश लोग सारी मानवीयता को भुलाकर इसी दौड़ में पागलों की तरह लगे हुए हैं। न इन्हें अपने बंधुओं और भगिनियों की पड़ी है, न समाज की, और न ही उस धरा की, जिसका अन्न-पानी वे लेते रहकर इस मुकाम तक पहुंचे हैं। इन सारे दुर्गुणों के कारण अधिकांश लोग जीवन में पग-पग पर झूठ बोलने के आदी हो गए हैैं।
अपने स्वार्थ पूरे करने में जमाने भर की धूर्त्तताओं और पाखण्डों, आडम्बरों को अपना चुके ये लोग घर-परिवार से लेकर समाज और क्षेत्र तक में झूठ बोलने में इतनी महारत हासिल कर चुके हैं कि अब भुले-भटके कभी कभार सच बोल भी दें तो दूसरों को यही लगता है कि यह इनका कोई नया झूठ ही है। लोग चाहते तो हैं कि वे जो कुछ बोलें वह लोगों के जेहन में भीतर तक उतर जाए और लोग वैसा ही करें जैसा वे कह रहे हैं। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। इसका मूल कारण यह है कि हमारे शब्दों में ताकत नहीं रही। शब्दों के भीतर का प्राणतत्व खो गया है इस कारण हमारी वाणी या हमारे शब्द नपुसंकता के शिकार हो गए हैं।
आदमी अन्दर-बाहर सब तरह से एक जैसा होता है अथवा मन-मस्तिष्क से लेकर जिह्वा तक का प्रवाह एक ही रस भरा होता है, शुचिता पूर्ण होता है तभी वाणी का कोई असर होता है। झूठे लोग लाखों शब्दों को उगलने के बाद भी कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाते जबकि एक सच्चा आदमी दो शब्द कहकर ही जमाने भर में परिवर्तन ला सकता है। असल में शब्दों की ताकत का सीधा संबंध व्यक्ति के आचरण और सभी प्रकार की शुचिता से है, शब्दों की संख्या या आवाज की तीव्रता से नहीं। पूर्ण रूप से शुचिता से भरा हुआ आदमी होंठ न हिलायें और मात्र भीतरी वाणी से ही अपना संकल्प व्यक्त कर दे तब भी वह अपने आप साकार होने का पूरा सामर्थ्य रखता है।
लेकिन ऐसी स्थिति प्राप्त करना आजकल के आदमियों के लिए असंभव तो नहीं लेकिन मुश्किल जरूर है। आजकल ज्यादातर लोगों की पूरी जिन्दगी शब्दों का वमन करने, वाक्यों के फव्वारे उमड़ाने, जोर-जोर से चिल्लाने, उपदेशों की झड़ी लगा देने में लगी हुई है। जमाने भर में हजारों उद्घोषक, प्रबोधक, भाषणबाज, वक्ता हैं, चिल्ला-चिल्ला कर अपनी बात रखने वाले लोगों की भरमार है फिर भी इनके वक्तव्यों, भाषणों और उपदेशों का संसार पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। इसका मूल कारण यह है कि इनके शब्द अपनी ताकत, जान और अर्थवत्ता खो चुके हैं। इस कारण से घण्टों तक बरसने वाले शब्द भी सामाजिक प्रभाव की कोई फसल या घास-फूस तक उगा पाने के लायक नहीं रहे हैं।
आजकल हर कोई बोलना चाहता है, दूसरों को सुनाना चाहता है। बोलने वालों की बेतहाशा भीड़ हर कहीं विद्यमान है जो कभी लच्छेदार भाषणों, वार्ताओं और परिचर्चाओं में जमी रहती है, कभी कहीं ओर। हर तरफ बातों की बातों का ज्वार उमड़ा हुआ है। कई लोग तो ऐसे हैं जिन्हें भाषण का मौका नहीं दिया जाए तो अधमरे से पड़े रहकर औरों को कोसते रहते हैं। आजकल भाषण शब्दों की उलटी करने से ज्यादा कुछ नहीं रह गए हैं। हालात ये हैं कि इन भाषणों का कोई असर नहीं पड़ रहा है। खुद प्राणतत्व से हीन शब्दों से समाज में चेतना की उम्मीद करने वाले मूर्ख और अज्ञानी ही कहे जा सकते हैं।
ऐसी बात नहीं है कि वाणी को कोई प्रभाव नहीं देखा जा सकता। कोई भी व्यक्ति यदि झूठ बोलना पूरी तरह छोड़ दे तो साल भर के भीतर उसमें वह प्रभाव आना शुरू हो जाता है कि उसकी कही हुई बातें गंभीर असर करेंगी और जो शब्द बोला जाएगा वह तीर की तरह निकल कर लक्ष्य समूह के हृदय और मस्तिष्क तक सहज स्वाभाविक रूप से पहुँच कर अपना असर जरूर दिखाएगा ही। आज हमारी वाणी अपना दम-खम, प्रभाव और सत्यता खो चुकी है उसका सीधा सा कारण यही है कि हमने सच्चाई को छोड़ दिया, इस वजह से सच्चाई ने हमें छोड़ दिया। वाणी का वही वजूद आज भी है लेकिन हमारे करम ही ऐसे हो गए हैं कि झूठ न बोलें तो हमारे स्वार्थ पूरे करने में जाने कितनी बाधाएं आ धमकें।
हमने जीवन के असली आनंद को त्यागकर जो कुछ पाया है वह अशांत और अतृप्त करने वाला ही है क्योंकि झूठ अकेला नहीं होता, उसके साथ कई सारी बुराइयां और आशंकाएं अपने आप आ ही जाती हैं जिनकी वजह से झूठे आदमी को अपने झूठ का बचाव करने के लिए हजारों दूसरे झूठों का सहारा लेना ही पड़ता है। वाणी की सच्चाई को परखने के लिए अपने चाल-चलन और चरित्र में परिवर्तन लाएं, शुचिता के भाव रखें और स्वार्थों से ऊपर उठकर तहे दिल से स्वीकारें कि भगवान ने कुछ सोच-समझ कर ही हमें मनुष्य बनाया होगा, झूठ बोल कर जिन्दगी गुजारने भर के लिए नहीं। हमेशा सत्य बोलें और मजाक में भी झूठ का सहारा न लें वरना ईश्वर के घर में हमें झूठन मानकर जहाँ फेंक दिया जाएगा वहाँ से वापस मनुष्य बनने के सारे रास्ते अपने आप ही बंद हो जाते हैं।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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