सामाजिक पिछड़ेपन के लिए !!!!!
ज्यों-ज्यों मानवीय मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है त्यों-त्यों सामाजिक व्यवस्थाओं में विषमताओं और असंतुलन का दौर इतना बढ़ गया है कि कभी भी विस्फोट संभव है। आज जो हालात हमारे सामने हैं उसका मूल कारण ही मानवीय अनुशासन का अभाव और अतृप्ति का यौवन पर होना है। आज हमारे चारों तरफ अपराधों, समस्याओं और अशांति का जो माहौल बना हुआ है उसका कारण ही यह है कि हर कोई अशांत, उद्विग्न और अतृप्त है। तृप्ति के सारे पैमाने ध्वस्त हो चले हैं और हर कोई अतृप्त बना हुआ भटक रहा है। जिनके पास कुछ नहीं है वे भी, और जिनके पास बहुत कुछ है वे भी, अतृप्त हैं। हर आदमी दुनिया की सारी संपदा को अगस्त्य की तरह पी जाना चाहता है। संतोष और आत्मतुष्टि जैसे शब्दों का अब कोई वजूद ही नहीं रहा। अतृप्ति की उधेड़बुन में आदमी की आवारगी बढ़ती जा रही है और वह अपने ही अपने फेर में कभी निन्यानवे के मकड़जाल में उलझा रहता है कभी चार सौ बीसी के।
आदमी की अतृप्ति ने उसका सुख-चैन और नींद छिन ली है और वह हमेशा चौकन्ना रहकर अपने ही अपने लिए सोचता, बुदबुदाता और षड़यंत्र रचता रहता है। संसार भर का सुख-वैभव और संपदा पा जाने का भूत इस कदर हावी है कि आदमी के जीवन में कहीं कोई स्पीड़ब्रेेकर नहीं आता, बिना ब्रेक की गाड़ी तरह वह दौड़-भाग में जुटा हुआ है। आदमी का स्वभाव अपने और परिवार के इर्द-गिर्द नज़रबंद होकर रह गया है और ऐसे में उसे बाहर की ओर झाँकने तक की फुर्सत नहीं है। जो समाज में रहता है उसकी संस्कृति और सभ्यता का ख्याल रखना जरूरी है। आज हम दूसरों को विपन्न और अभावग्रस्त देखकर खुद कैसे प्रसन्न रह सकते हैं? यह गंभीरता से सोचने की बात है।
हमारे आस-पास की बात हो, पड़ोसियों की अथवा दुनिया के किसी कोने की, जहाँ कोई भी प्राणी भूख-प्यास से पीड़ित हो, अर्थाभाव से समस्याओं ने घेर रखा हो, विपदाओं का सामना कर रहा हो और जीवन निर्वाह का संकट सामने हो, ऐसे में हमें चुपचाप देखते रहने या आराम से जीने का अधिकार किसने दिया है? एक मनुष्य के रूप में हमें कोई अधिकार नहीं है कि हम चैन से जीएं या सोएं। गरीबी और अमीरी की खाई बढ़ती जा रही है। फिजूलखर्ची और मूर्खतापूर्ण आयोजनों की भरमार के साथ ही हमारे मानसिक दौर्बल्य ने समाज के लिए जीने मरने की सारी उदात्त परंपराओं को हाशिये पर ला खड़ा कर दिया है। इन सभी का मूल कारण यह है कि अच्छे को अच्छा कहने और बुरे को बुरा कहने का हमारा सामर्थ्य या साहस नहीं रहा है क्योंकि हम सब अपने स्वार्थों और कुकर्मों की बहियां खोल कर बैठे हुए हिसाब लगाने में दिन-रात रमे हुए हैं। जहाँ सारे के सारे नंगे हैं वहाँ कौन किसे नंगा कहे? नंगा कहने की भूल भी कर दे तो खुल जाती हैं नई फाईलें और बहियां। लोग पीछे पड़ जाते हैं कब्र खोदने, मानों कि दुनिया में सच-झूठ का फैसला करने के लिए इन्हीं लोगों को भगवान ने धरा पर भेजा है।
बात सामाजिक व्यवस्था की हो या कला-संस्कृति, आर्थिक परिवेश की। हर कहीं जबर्दस्त असंतुलन ने मानवीय सभ्यता की नींव हिला कर रख दी है। यह बात आज किसी की समझ में नहीं आ रही कि हमारी कोई सी इकाई कमजोर होगी तो अन्ततोगत्वा समाज और राष्ट्र कमजोर होगा। और ऐसा हो गया तो हमारे सामने इतिहास की ओर झाँकने और अफसोस करने के सिवा कोई चारा नहीं होगा क्योंकि हम अपने ही स्वार्थ, कलह और ऐषणाओं तथा उच्चाकांक्षाआंे की वजह से सदियों तक गुलाम रहे हैं। आज मांग और आपूर्ति का सिद्धान्त गड़बड़ा गया है। जिन लोगों की जिन्दगी आराम से कट रही है, कोई जरूरत नहीं है वे लोग भी नौकरियों में रमे हुए हैं। ऐसे में कई जरूरतमन्द बेकार और बेरोजगार बेचारे नौकरियों और काम-धंधों की तलाश में भटक रहे हैं।
जिन लोगों ने आधी जिन्दगी सरकारी बाड़ों और नौकरियों में गुजार दी ऐसे लोग भी नौकरियों का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं और जाने कितने-कितने डेरों में घुग्धुओं की तरह घुसे पड़े हैं। और बाहर बेरोजगारों की भीड़ जमा हैै। कई सारे लोग हम देखते हैं जिनके लिए नौकरी महज शौक होकर रह गया है। नौकरी के नाम पर वे क्या कुछ नहीं कर रहे? वे किस उन्मुक्तता और निरंकुशता से नौकरी कर रहे हैं, वह हम सब अच्छी तरह जानते हैं। बेरोजगारों और जरूरतमन्दों की भारी भीड़ के होते हुए रिटायर्ड लोग नौकरियों में फिर से लगे रहें, यह मानवीय संवेदनाओं का सबसे दुर्बल पक्ष ही तो है। कई लोग ऐसे हैं जो चाहते हैं कि मरते दम तक नौकरियों में लगे रहें और उनकी शवयात्रा भी निकले तो सरकारी बाड़ों से।
सेवानिवृत्ति का अर्थ समझना होगा और उन सभी लोगों को गंभीरता से यह सोचना होगा कि ईश्वर ने उन्हें मनुष्य बनाया था केवल नौकरी के लिए नहीं, बल्कि समाज की सेवा के लिए। आज यदि सारे रिटायर्ड लोग नई पीढ़ी के हित में यह फैसला कर लें कि वे समाज सेवा के कामों में जुटेंगे और अब नौकरी नहीं करेंगे, तो उनके इस एकमात्र फैसले से देश के करोड़ों बेरोजगारों की जिन्दगी सुधर जाए। वहीं समाज सेवा के क्षेत्र में रिटायर्ड लोगों के आने से सामाजिक सेवा के सभी क्षेत्रों को उनके दीर्घकालीन अनुभवों और ज्ञान का लाभ मिल सकता है और इससे हमारा समाज देखते ही देखते कितना उन्नत हो जाएगा, उसकी कल्पना भी सुकून देने वाली है। यही बात उन लोगों के लिए भी है जो किसी न किसी बिजनैस, कला-संस्कृति, साहित्य, मीडिया, स्वयंसेवी संगठनों, रचनात्मक गतिविधियों आदि से जुड़े हुए हैं। उन्हें भी चाहिए कि सारे ही लाभ खुद न लेकर आने वाली पीढ़ी के प्रति भी कुछ सोच-समझ रखें और उन्हें मार्गदर्शन तथा प्रोत्साहन देकर आगे लाएं।
अभी हो यह रहा है कि इन क्षेत्रों के लोग भी सिर्फ अपना ही अपना देखने और अपने ही घर भरने की आदत से ग्रस्त हैं। नई पीढ़ी में अपार क्षमताएं और अद्भुत प्रतिभाओं के होने के बावजूद उन्हें अवसरों से सायास वंचित किया जा रहा है। जबकि हमारी जिम्मेदारी है कि हमारे वंश की ही तरह अपने कर्मयोग का वंश भी निरन्तर आगे बढ़ता रहे और इसके लिए हर कर्म में नई पीढ़ी का पर्याप्त प्रतिनिधित्व होना चाहिए। ताकि जो परंपराएं हमारे पुरखे शुरू कर गए हैं वह अक्षुण्ण बनी रहें। इनमें हमें स्पीड़ ब्रेकर या बांध की तरह नहीं रहना चाहिए। आखिर कब तक हम ही हम लाभ लेते रहेंगे, पीछे भी लम्बी लाईन है, उसका ख्याल रखें। जो लोग अपने आस-पास का ध्यान रखते हैं उनका ध्यान पूरा जमाना रखता है। ऐसा नहीं कर हम खुद ही सारे लाभ लेते रहेंगे तो फिर हमारे और श्वानों में क्या कुछ अंतर रह गया है, पेट तो कुत्ते भी भर लेते हैं और वह भी बिना कुछ मेहनत किए कराए।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com
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