संसार में आने के बाद जो कुछ प्राप्त किया है वह जाते समय संसार के लिए ही छोड़ कर जाने का विधान है। इसे चाहे कोई स्वीकार करे या न करे लेकिन इस शाश्वत सत्य से कोई इंकार नहीं कर सकता। धन-सम्पदा और संसाधनों के बारे में तो यह है ही, उन सभी के बारे में है जिन पर हमारा अधिकार है। उस ज्ञान, प्रशिक्षण और अनुभवों के लिए भी यही सिद्धान्त काम करता है, जो हम समाज में रहकर सीखे हैं, जो तजुर्बा पाते हैं तथा जो नए विचार अथवा सिद्धान्त अपनाते हैं उन सभी को इसी संसार में किसी को हस्तान्तरित करके जाने पर ही हमारी मुक्ति संभव है। जो लोग ज्ञानवान हैं, विद्वान, हुनरमंद और अनुभवी हैं या कहे जाते हैं उन सभी की गति-मुक्ति के लिए यह जरूरी है कि जो उनके पास ज्ञान संपदा है उसे किसी न किसी पात्र को सौंप के ही ऊपर जाएं, वरना उनकी तब तक मुक्ति नहीं हो सकती, जब तक कि उनकी ज्ञान या अनुभव संपदा का किसी न किसी पात्र और जीवित व्यक्ति को हस्तान्तरण न हो जाए।
लोग अपने आपको कितना ही सिद्ध, साधक या स्वयंभू क्यों न मान लें, इन सभी की गतिमुक्ति की यह सबसे पहली और अनिवार्य शर्त यही है कि जो कुछ उन्होंने ज्ञान या अनुभवों के रूप में संचित किया है वह सब सृष्टि से ही पाया है और संसार या समाज के लिए ही छोड़ कर जाना है। कोई कितनी ही उच्चस्तर तक साधना कर ले, ईश्वर से साक्षात्कार का भ्रम पाल ले या अपने आपको अद्वितीय ज्ञानसमृद्ध क्यों न मान ले, ऎसे लोगों की मृत्यु के बाद भी कई वर्षों तक मुक्ति संभव नहीं है। इसीलिए प्राचीन काल से भारतीय सभ्यता और संस्कृति में शिष्य परंपरा का विधान रहा है। युगों और पीढ़ियों से हर प्रकार के ज्ञान, हुनर और अनुभूतियों से भरे विलक्षण रहस्यों की जानकारी, स्वास्थ्य और योग से लेकर जीवन विकास के तमाम रहस्यों के नुस्खे और फार्मूले इसी परंपरा से वर्तमान काल तक संवहित होते रहे हैं। ज्ञान और अनुभवों की यह श्रृंखला सदियों से इसी प्रकार प्रवाहमान रही है। लेकिन हाल के कुछ वर्षों में यह श्रृंखला टूट सी गई है और इस कारण हर कहीं संकट और समस्याओं के बादल मण्डराने लगे हैंं।
प्राचीनकाल से यह तथ्य स्वीकारा गया है कि ज्ञान और अनुभवों को पात्र लोगों में हस्तान्तरित करना भी मनुष्य के जीवन का आवश्यक अंग है जिसके बगैर उसकी संसार यात्रा को पूर्ण नहीं माना जा सकता। इस श्रृंखला के विखण्डन के दो प्रकार के कारण आजकल सामने हैं। एक तो मनुष्य इतना स्वार्थी हो चला है कि सब कुछ अकेला ही पाना चाहता है और इस एकाधिकारवादी मनोवृत्ति के चलते वह अपने हुनर तथा ज्ञान को किसी और को देना चाहता ही नहीं है। उसकी विकृत सोच यही होती है कि इससे उसका मान-सम्मान कम हो जाएगा अथवा धंधे की आवक पर फर्क पड़ेगा। इसी सोच के चलते कई सारे ज्ञानवान और हुनरमंद लोग बिना कुछ बताए ऊपर चले जाते हैं। दूसरी सबसे बड़ी कमी पात्र लोगों की है जिन्हें यह ज्ञान या अनुभव दिये जा सकें, क्योंकि आदमी की फितरत आजकल राग-द्वेष और ईष्र्या से लेकर स्वार्थों पर आश्रित हो चली है। ऎसे में दुरुपयोग की आशंकाएं भी हैं। यही कारण है कि हमारा परंपरागत ज्ञान और अनुभवों से भरे रहस्यों का लोप होता जा रहा है और व्योम में ऎसे लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है जो अपना ज्ञान या अनुभव किसी को बाँटे बगैर संसार से विदा हो लिये। यही कारण है कि पितरों को कष्ट हो रहा है और पितरों की अकृपा से हमें भी। आजकल पितर दोष या कालसर्प के मामले खूब आ रहे हैं और इनका कारण ही यह है कि जो लोग गुजर गए उनकी गति-मुक्ति कुछ तो उनके करमों से नहीं हो पायी है और कुछ उनके वंशजों की कमजोरियों से।
ब्रह्मविद्याओं और प्राच्य ज्ञान के बारे में तो स्पष्ट कहा ही जाता है कि जो लोग इसका ज्ञान औरों में बाँटे बगैर मर जाते हैं वे ब्रह्मराक्षस होते हैं और उनकी बरसों तक मुक्ति नहीं हो पाती है। यही बात उन सभी लोगों के बारे में है जो तंत्र-मंत्र, प्राच्यविद्याओं, संगीत, साहित्य, संस्कृति, पराविद्याओं, साधनाओं, वैज्ञानिक विधियों, शिक्षा-दीक्षा, धार्मिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान, चिकित्सकीय नुस्खों, आयुर्वेद, योग वेदांत से लेकर एक आम आदमी के जीवन और परिवेश या समाज के लिए उपयोगी जानकारी रखते हैं। इन सभी विद्वजनों और अनुभवियों, अनुसंधाताओं, शोधार्थियों के जीवन का यह परम कत्र्तव्य है कि जो कुछ उनके पास है वह समाज के लोगों में बाँटें तथा इस ऋण से उऋण हों, तभी उनकी पारलौकिक यात्रा सहजता से हो सकती है वरना उनकी गति मुक्ति में तो बाधाएं आएंगी ही, पितर रूप में भी उनके लिए कई समस्याएं आती रहती हैं। ज्ञान और लक्ष्मी नित नवीनता और ताजगी चाहते हैं और इस कारण चंचल स्वभाव वाले होते हैं। इनका हमेशा अद्यतन स्वरूप ही टिकता है। ऎसे में यदि ये हुनर और ज्ञान अपने मन-मस्तिष्क में नाकारा पड़े रहते हैं और किसी को इनका लाभ नहीं मिल पाता है तब भी ये कुलबुलाते रहते हैं और एक नज़रबंदी की तरह बद् दुआएं देते रहते हैं जिनमें हमारा वर्तमान भी खराब हो जाता है।
इसलिए जो अपने पास है वह सब समाज और संसार का ही है और इसे पीढ़ियों तक श्रृंखलाबद्ध रूप में आगे चलाये रखने की जिम्मेदारी भी हमारी ही है। इस सोच को सर्वोपरि रखकर काम करें। वरना यदि पूर्वजों ने भी हमारी तरह स्वार्थी सोच रख कर इस ज्ञान श्रृंखला को अपने तक सीमित रख कर विखण्डित कर दिया होता जो आज हम भी कुछ पाने की स्थिति में नहीं होते। इस कटु सत्य को स्वीकारें और समाज तथा आने वाली पीढ़ियों के लिए ज्ञान और अनुभवों का संसार आगे से आगे संवहित व हस्तान्तरित करते चलें। इससे हमारा भी भला होगा और आने वाली पीढ़ियों का भी। और हमारी गति मुक्ति भी आसानी से हो ही जाएगी। हमारे पैदा होने के बाद जो कुछ हमें मिला वह पूर्वजों के ज्ञान और अनुभवों से मिला है। ऊपर जाने से पहले इन सब पर अपने एकाधिकार छोड़ दें तभी मौत भी आसानी से आ पाएगी और उसके बाद का सफर भी सहजता से अपने आप हो सकेगा। वरना खुद भी दुःखी, पीड़ित और अभिशप्त रहेंगे और आने वाले वंशजों के लिए भी संत्रासों का कारण बने रहेंगे क्योंकि जब पितरों की गति मुक्ति नहीं होती है तब उनके कोप का सर्वाधिक शिकार घर-परिवार वाले ही होते हैं। फैसला हमें ही करना है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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