अंधविश्वासों और रूढ़ियों के उन्मूलन का इतिहास रचा
स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म सन् 1824 भाद्रपद कृष्णा 9, गुरूवार, संवत् 1881 में गुजरात प्रान्त के काठियावाड़ सम्भाग में मोरवी राज्य के एक छोटे से गांव टंकरा में हुआ था। इनके पिता का नाम करसन जी था। वे शिव के कट्टर अनुयायी थे। सरकार की और से लगान वसूल करते थे। अतः उन्हें अपने इलाके में तहसीलदार होने के कारण खूब मान-सम्मान मिलता था। दयानन्द का बचपन का नाम मूलशंकर था। उन्होंने पिता की देख रेख में संस्कृत तथा धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया।
नन्हीं सी घटना ले आयी बड़ा बदलाव
मेधावी होने के कारण 14 वर्ष की अल्प आयु में ही उन्होंने अनेक शास्त्रों और ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया, किन्तु जीवन की एक घटना ने उनके जीवन को बदल दिया। माघ वदी 14 को महाशिवरात्रि के दिन मूलशंकर ने वृत रखा और रात्रि को पिता के साथ शिव मन्दिर में पूजा तथा रात्रि जागरण के लिए गये। मंदिर में जब अन्य लोग मीठी झपकियाँ ले रहे थे, लेकिन मूलशंकर जागता रहा। उसने देखा कहीं से एक चूहा आकर शिवलिंग पर चढ़ाई करके मिठाई तथा फल खा रहा है। बालक के मन में शंका उत्पन्न हुई कि क्या यही शिव हैं, जो दानवों का संहार करते हैं, जबकि एक चूहा तक उनसे हटाया नहीं जा रहा।
जीवन का सत्य जानने गृह त्याग दिया
उन्होंने पिता को जगाया और शंका प्रकट की। पिता ने अनेक तर्क दिये किन्तु उसका समाधान न कर सके। बालक मूलशंकर ने व्रत तोड़ दिया और हमेशा के लिए मूर्ति पूजा से उनका विश्वास उठ गया। उनकी बहिन व चाचा की मृत्यु ने उन्हें ज्ञान करवाया की जीवन में कुछ भी शाश्वत नहीं है। मृत्यु क्या है? इस बात को जानने के लिए 22 वर्ष की उम्र में 1846 में उन्होंने घर त्याग दिया।
मूलशंकर से बन गए दयानंद
मूलशंकर घर को छोड़कर जंगलाें की खाक छानते रहे। 24 वर्ष की आयु में ब्रह्म्रचारी मूलशंकर का स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से साक्षात्कार हुआ। उन्होंने स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से संन्यास की दीक्षा ग्रहण की और दीक्षा लेने के पश्चात् वे दयानन्द सरस्वती कहलाने लगे। अब दयानन्द ऋषि मुनियों के दर्शन करते हुए, देश में फैले अत्याचारों को देखते हुए, भयंकर नदियाें, कांटों की झाड़ियों, हिमालय के बर्फ ढंके शिखरों को पार करते मथुरा पहुंचे। यहां उन्हे प्रज्ञाचक्षु नेत्रहीन स्वामी विरजानन्दजी के दर्शन हुए। दयानन्द जी ने स्वामी जी का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। वस्तुतः स्वामी जी के यही वास्तविक शिक्षा गुरु हुए।
गुरु दक्षिणा में समर्पित किया जीवन
इन्हीं के चरणों में उन्होंने अष्टाध्यायी महाभाष्य, वेदान्तसूत्र तथा अन्य अनेक पुस्तकों का गहन अध्ययन किया। अध्ययन पूरा होने के पश्चात् जब गुरुदक्षिणा देने की बात आई तो स्वामी विरजानन्द ने उनके द्वारा समर्पणार्थ लाई गई लौंग अस्वीकार करके देश में सत्य-ज्ञान के प्रचार एवं वैदिक धर्म की स्थापना के लिए निरन्तर प्रयास करने की दक्षिणा मांगी। दयानन्द भी गुरु को इसका दृढ़ विश्वास दिलाकर गुरु दक्षिणा चुकाने के लिए धर्म प्रचार के लिए निकल पड़े। इस समय उनकी आयु 39 वर्ष की थी।
पाखण्डों का विरोध करने किया भारत भ्रमण
वे सारे भारत में घूम-घूम कर वाद विवाद करते रहे। उन्होंने स्थान-स्थान पर समाज के पाखण्डों का विरोध किया। उनका जीवन समाप्त होने के बाद उनके विचार जारी रहे इसके लिए उन्होंने अपने अनुायायियों को एक मंच पर लाने के लिए मुम्बई में 1877 में आर्य समाज की स्थापना की। उन्होंने लगभग 40 ग्रन्थों की रचना की जिनमें अष्टाध्यायी भाषा, आर्योद्देश्य रत्नमाला, कुरान लीला, पोप लीला, व्यवहार भानु, आत्मचरित्र, सत्यप्रकाश विशेष उल्लेखनीय है।
वैदिक धर्म प्रसार मेें अमूल्य योगदान
वैदिक धर्म स्थानपनार्थ दयानन्द चार वर्ष तक आगरा, ग्वालियर, इन्दौर आदि स्थानों में प्रचार करते उदयपुर होते हुए जोधपुर गए। उदयपुर के महाराणा उनके शिष्य बन गए। जोधपुर के महाराजा ने उनसे मनुस्मृति पढ़ी ।
दीवाली को विलीन हुआ सूरज
जोधपुर में एक वैश्या नन्हीजान ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के रसोईये जगन्नाथ के माध्यम से उन्हें जहर तथा पिसा हुआ कांच दूध में मिलाकर पिलवा दिया। इससे स्वामी जी का स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन बिगड़ने लगा। अन्त में दिवाली के दिन 30 अक्टूबर 1883 को स्वामी दयानन्द सरस्वती चिरनिद्रा में लीन हो गए।
देशभक्ति और समाजसुधार के पोषक
राष्ट्रीयता के पोषक, संस्कृत के प्रबल प्रवक्ता, राष्ट्रीय भाषा हिन्दी के पक्षधर स्वामी दयानन्द सरस्वती ने तमाम संकीर्णताओं, अन्धविश्वासों, रूढ़ियों, विकृतियों आदि का डट कर विरोध किया। विद्या प्रवर, जाति सुधार, स्त्री शिक्षा, नारी जागरण, स्वभाषा गौरव तथा स्वमत, समन्वयक - भावना को प्रतिष्ठापित करने की चेतना उत्पन्न की। वे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी होने के साथ ही एक महान् समाज एवं धर्म सुधारक, राष्ट्रवादी विचारों के पोषक थे।
(अनिता महेचा)
कलाकार कॉलोनी
जैसलमेर
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