करीब ढाई महीने से अमेरिका में हू, इन ढाई महीने में काफी कम लिख पाई हूँ । सच कहूँ तो पोते को छोड़कर कुछ करने का मन ही नहीं होता। उसके साथ एक एक पल मेरे लिए अनमोल हैं। होता है किसी और काम में लग गई तो कुछ अनमोल घड़ियाँ छूट न जाए। पर जब वह सो जाता है उस समय कुछ लिख लेती हूँ या समाचार पढ़ने लिखने का काम कर लेती हूँ। आज अंतरजाल पर गई तो पाई पूरा अंतरजाल "अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस" पर आलेख कवितायें शुभकामनाओं से भरा था। मन में तरह तरह की बातें आने लगी।
अपने स्वभाव वश मैं छोटी सी छोटी बातों को गहराई से सोचती हूँ और कई बार ऐसा होता है कि मैं उसमे उलझकर रह जाती हूँ । क्यों कि बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जिसमे सब की राय मुझसे बिल्कुल ही अलग होती है। मैं तर्क ज्यादा नहीं कर सकती इसलिए चुप रहकर मूक दर्शक बन जाती हूँ, परन्तु मेरा मन बिचलित रहता है। हाँ अनुशासन हीनता और अन्याय मैं कदापि बर्दाश्त नहीं कर सकती उस समय मैं बिल्कुल चुप नहीं रहती, चाहे वह कोई हो और किसी के साथ हो रहा हो।
बचपन में समानार्थक शब्द जब भी पढ़ती थी बस "नारी" पर आकर अटक जाती थी। मेरे मन में एक प्रश्न बराबर उठता -"इतने शब्द हैं नारी के फिर अबला क्यों कहते हैं"? अबला से मुझे निरीह प्राणी का एहसास होता। सोचती, जो त्याग और ममता की प्रतिमूर्ति मानी जाती है वह अबला कैसे हो सकती ? एक तरफ हमारे पुरानों में नारी शक्ति का जिक्र है दूसरी तरफ हमारे व्याकरण में उसी नारी के लिए अबला शब्द का प्रयोग क्यों ? पर मुझे उत्तर मिल नहीं मिल पाता। मैं अबला शब्द का प्रयोग कभी नहीं करती बल्कि अपनी सहपाठियों को भी उसके बदले कोई और शब्द लिखने का सुझाव देती ।
जब बच्चों को पढ़ाने लगी उस समय भी बच्चों को नारी के समानार्थक शब्द में "अबला" शब्द लिखने पढ़ने नहीं देती और बड़े ही प्यार और चालाकी से नारी के दूसरे दूसरे शब्द लिखवा देती । मालूम नहीं क्यों अबला शब्द मुझे गाली सा लगता था और अब भी लगता है।
1908 ई. में अमेरिका की कामकाजी महिलाएं अपने अधिकार की मांग को लेकर सडकों पर उतर आईं। 1909 ई. में अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी ने उनकी मांगों के साथ राष्ट्रीय महिला दिवस की भी घोषणा की। 1911 ई. में इसे ही अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का रूप दे दिया गया और तब से ८ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाई जा रही है। परन्तु कुछ वर्षों से "दिवस" मनाना फैशन बन गया है। क्या साल में एक दिन याद कर लेना लम्बी लम्बी घोषणा करना ही सम्मान होता है ? किसी को विशेष दिन पर याद करना या उसे उस दिन सम्मान देना बुरी बात नहीं है। बुरा तो तब लगता है जब विशेष दिनों पर ही मात्र आडंबर के साथ सम्मान देने का ढोंग किया जाता हो। सम्मान बोलकर देने की वस्तु नहीं है सम्मान तो मन से होता है क्रिया कलाप में होता है। क्या एक दिन महिला दिवस मना लेने से महिलाओं का सम्मान हो जाता है ?
हर महिला दिवस पर महिलाओं के लिए आरक्षण की बात होती है कुछेक सम्मान का आयोजन। साल के बाक़ी दिन हर क्षेत्र में अब भी न वह सम्मान, न वह बराबरी मिल पाता है जिसकी वह हकदार है या जो दिवस मनाते वक्त कही जाती है। कहने को तो आज सभी कहते हैं "नारी पुरुषों से किसी भी चीज़ में कम नहीं हैं". परन्तु नारी पुरुष से कम बेसी की चर्चा जबतक होती रहेगी तबतक नारी की स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता।
नारी ममता त्याग की देवी मानी जाती है और है भी। यह नारी के स्वभाव में निहित है , यह कोई समयानुसार बदला हो ऐसा नहीं है। ईश्वर ने नारी की संरचना इस स्वभाव के साथ ही की है। हाँ अपवाद तो होता ही है। आज नारी की परिस्थिति पहले से काफी बदल चुकी है यह सत्य है। आज किसी भी क्षेत्र में नारी पुरुषों से पीछे नहीं हैं । बल्कि पुरुषों से आगे हैं यह कह सकती हूँ। आज जब नारी पुरुषों से कंधा से कंधा मिलाकर चल रही है तब भी आरक्षण की जरूरत क्यों ? आरक्षण शब्द ही कमजोरी का एहसास दिलाता है आज एक ओर तो हम बराबरी की बातें करते हैं दूसरी तरफ आरक्षण की भी माँग करते हैं , यह मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आता है। क्या हम आरक्षण के बल पर सही मायने में आत्म निर्भर हो पाएंगे? हमें जरूरत है अपने आप को सक्षम बनाने की, आत्मनिर्भर बनने की, आत्मविश्वास बढ़ाने की। जिस दिन हमें आरक्षण की जरूरत महसूस होना बंद हो जाएगा वही दिन सही मायने में "महिला दिवस" होगा।
---कुसुम ठाकुर---
प्रधान सम्पादक
आर्यावर्त
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