उसे नहीं संरक्षक रहने का अधिकार !!!
रक्षण और संरक्षण ये दोनों ही शब्द अपने आप में विराट अर्थों वाले हैं जिनका बहुआयामी प्रभाव तथा अस्तित्व हमेशा रहा है। व्यक्ति से लेकर समुदाय तक को एक अनुशासन में बाँधे रखकर इनके विकास और विस्तार में संरक्षक की भूमिका सर्वोपरि है। इसके बगैर सब कुछ असुरक्षित और स्वच्छन्द हो जाता है तथा लक्ष्यों में भटकाव की स्थिति आ जाती है। बात घर-परिवार के संरक्षण की हो, समाज की अथवा सरहदों से बँधे किसी भी क्षेत्र की। संरक्षण का धर्म निभाने वाले को संरक्षक कहा जाता है और उसका फर्ज ही होता है संरक्षण। संरक्षण का अर्थ बहुविध संरक्षण से है जिसमें सभी को साथ लेकर चलने से लेकर सभी के कल्याण की भावनाओं को संबल, सभी को विकास के तमाम अवसरों से जोड़ना और हर इकाई को मानसिक, शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक दृष्टि से सबल एवं समृद्ध बनाना शामिल है। इसके अलावा व्यक्ति के जीवन से लेकर परिवेश और समाज तक जुड़े हुए सभी पहलुओं पर पैनी नज़र बनाये रखते हुए सभी के उत्थान विषयक प्रयासों को आधार देना भी प्रमुख कत्र्तव्यों में शामिल है।
अन्य सभी रिश्तों से कहीं अधिक भारी और उत्तरदायित्त्वपूर्ण होता है संरक्षक का धर्म। आजकल भीड़ तो खूब आ-जा रही है लेकिन संरक्षकों का टोटा पड़ता जा रहा है। संरक्षकों के नाम पर जो भीड़ सामने आ रही है, जो चेहरे दिखाई देने लगे हैं वे संरक्षकीय दायित्वों को निभा पाने की बात तो दूर है, अपना संरक्षण तक कर पाने की स्थिति में नहीं कहे जा सकते। ढेरों संरक्षक नाम मात्र के हैं जैसे फसलों से लहलहा रहे खेत में टंगे जात-जात के रंगों को लकड़ियों, घास-फूस से बने बिजूके या फिर रोबोट। इन्हें खुद को पता नहीं है कि आखिर उनका जन्म क्यों हुआ है, उनके काम क्या हैं, और उन्हें जाना कहाँ है? ढेरों संरक्षक जाने किस-किस से सिफारिश भिड़ा कर अथवा बड़े लोगों की कृपा या दया पाकर जमे हुए हैं। ये संरक्षक घर-परिवार से लेकर समाज और क्षेत्र तथा दुनिया के तमाम किस्मों के बाड़ों में जमे हुए हैं और ‘सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं’ की तर्ज पर संरक्षक के नाम पर जिन कामों को अंजाम दे रहे हैं उसके बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है।
कई बाड़े ऎसे हैं जहाँ संरक्षकों की भूमिका से पूरा परिवार त्रस्त है, कई संरक्षक उस श्रेणी के हैं ही नहीं कि उन्हें संरक्षण का कोई छोटा सा जिम्मा भी सौंपा जा सके। कई लोग ऎसे हैं जो संरक्षक तो कहे जाते हैं मगर असली संरक्षक के रूप में भूमिका निभा रहे हैं वे लोग जो उनके मातहत हैं अथवा वे लोग जो उनकी चापलुसी और चम्पी करते हुए सारे अधिकार पा चुके हैं। कुछ संरक्षक तो ऎसे हैं जिनसे कभी भी कोई काम करवा लो, कुछ समझ में नहीं आने वाला। कुछ संरक्षक ले-दे कर काम करने में विश्वास करते हैं तो कई सारे अंधे और बहरे बने हुए वो सब कुछ कर लेते हैं जो लोग उनसे करवा लिया करते हैं। कई सारे संरक्षक ऎसे हैं जिन्हें उनके मनचाहे भोग-विलास और ऎश्वर्य के उपकरण उपलब्ध करवा दिए जाएं तो फिर कुछ भी कर सकने का साहस जुटा लेते हैं। असली संरक्षक वे ही कहे जाते हैं और होते हैं जो कि अपने संरक्षितों की मानसिकता, जरूरत, और सुख-दुःख का ख्याल रखें और यथोचित निर्णय लेकर राहत प्रदान करें। पर आज कितने लोग ऎसे हैं जो संरक्षक के रूप में खरे उतर पा रहे हैं। वो जमाना चला गया जब संरक्षक को अपने आप के संरक्षक होने पर गर्व और गौरव था और वह उसी रूप में संरक्षकीय दायित्वों को निभाता भी था, जो अर्से तक यादगार बने रहते थे और अनुकरणीय भी।
अब हालात दूसरे हैं। अब किसी संरक्षक की यादें बनी रहना मुश्किल हो चला है। ऎसा इसलिए है कि जो संरक्षक हैं उनका पूरा ध्यान संरक्षितों की ओर नहीं होकर अपनी ओर ही केन्दि्रत हो चला है और ऎसे में संरक्षितों के समूहों से संरक्षकों की दूरियां बढ़ती जा रही हैं। अब संरक्षक परिवार के मुखिया की भूमिका की बजाय साम्राज्यवादी, संग्राहक और कबाड़ी प्रवृत्ति का होता जा रहा है जहाँ अपने लिए कुछ भी करना बुरा नहीं समझा जाता। चाहे फिर वह अपने ही लोगों का शोषण या दोहन हो अथवा नज़रअंदाजी। यही वजह है कि संरक्षक के प्रति दिली इज्जत और सम्मान का निरन्तर ह्रास होता जा रहा है और संरक्षकों की छवि धूमिल होने लगी है। कई सारे संरक्षकों के बारे में तो उनके मातहत ऎसी-ऎसी टिप्पणियां करते रहते हैं कि इसे सुन भी लिया जाए तो सर शर्म के मारे झुक जाता है। लेकिन इससे संरक्षकों को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि संरक्षकों के लिए अपनी प्राथमिकता अपने संरक्षितों पर केन्दि्रत होने की बजाय दूसरी प्रकार की वस्तुओं के संरक्षण की ओर बढ़ती जा रही है और ऎसे में उनका पूरा ध्यान जीवन से जड़त्व की ओर ध्रुवीकृत हो चुका है। इन सभी स्थितियों मेंं संरक्षकों से कैसे उम्मीद रखी जा सकती है, इसकी कल्पना सहज ही संभव है।
जो लोग समाज-जीवन के विभिन्न क्षेत्रों और कर्मयोग के भिन्न-भिन्न आयामों मेें संरक्षक बने हुए हैं या बन गए हैं अथवा बना दिए गए हैं, उन सभी को चाहिए कि वे संरक्षण धर्म के मूल मर्म को आत्मसात करें और संरक्षक की भूमिकाओं पर खरे उतरें और ऎसा काम कर जाएं जिससे कि उनका संरक्षकीय कार्यकाल हमेशा याद किया जाता रहे। ऎसा हम सभी लोग कर पाएं, तभी हमारे संरक्षक होने का अर्थ है, वरना यहाँ-वहाँ कई सारे संरक्षक हुए हैं, होते रहे हैं और होते रहेंगे। संरक्षकों की भारी भीड़ में खो जाएं अथवा याद किए जाएं, यह हमें ही सोचना है। हम ऎसा न कर पाएं तो हमें संरक्षक रहने का कोई अधिकार नहीं है। हमें यह भ्रम भी तोड़ना ही चाहिए कि हम ही हैं, सच तो यह है कि हमसे भी अच्छे और गुणी लोग हैं जो आगे आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। खुद हट जाएं तो ठीक है, वरना जमाना ऎसा धक्का मारने को तैयार बैठा है जहाँ से धकिया दिए जाने पर हमें कहीं कोई ठौर नहीं मिलने वाला।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com
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