निहाल हो जाएगी ये धरा, और आसमाँ !!!!
आज महिला दिवस है और यह दिन महिलाओं के लिए समर्पित है। आज हर कहीं महिलाओं की महिमागान और महिलाओं के कल्याण, विकास तथा सम्मान-पुरस्कारों की बातों का दिन है। यों तो हर दिन उस महिला को ही समर्पित है जो जननी है और सृष्टि रचने का माद्दा रखती है या यों कहें कि सृष्टि की रचना ही उसी के जिम्मे है। ऎसा न होता तो न हम होते और न इस जहाँ में और कोई। आदिशक्ति से लेकर वर्तमान नारी तक में समायी असीम ऊर्जाओं, महानतम सामथ्र्य और ब्रह्माण्ड तक को बदल देने की क्षमताओं से परिपूर्ण आधे आसमाँ के बगैर दुनिया के अस्तित्व की कल्पना तक व्यर्थ है। दुनिया के सृजन और पालन का दायित्व निभाने वाली प्रकृति न होती तो पुरुष भी नहीं होता। लेकिन प्रकृति की नैसर्गिक कोमलता, ममत्व, मातृत्व और स्नेह धाराओं के हमेशा पूरे वेग से बहते आ रहे इस समन्दर की उपेक्षा होने लगी है। और वह भी और कोई नहीं, वह पुरुष जिसे इसी प्रकृति से पैदा किया है। नारी के मर्म और उसमें समाहित सामथ्र्य का जो परिचय पा जाता है वह बड़ी ही सहजता के साथ प्रकृति के सारे अनसुलझे रहस्यों का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। लेकिन जो लोग नारी को सिर्फ भोग्या और वस्तु मानने की अप-संस्कृति के अनुचर हैं उनके लिए नारी अपने किसी भी किरदार में समझने योग्य नहीं होती भले ही वह माँ, बहन, पु़त्री, पत्नी आदि किसी भी रूप में हो।
आज की नारी को जो कष्ट भुगतने पड़ रहे हैं उसके मूल में नारी का कोई दोष नहीं है बल्कि उस समाज का दोष है जिसे पुरुषप्रधान कहा जाता है। इसमें भी गौर करने योग्य बात यह है कि जो लोग वाकई पुरुष हैं उनके मन में नारी के प्रति सम्मान ओर आदर हमेशा बना रहता है। नारी के प्रति असम्मान और अनादर के भाव रखने वाले वे लोग हैं जिन्हें पुरुष कहा तो जाता है, पर असल में ये पुरुष हैं नहीं। क्योंकि पौरूष का अर्थ जो समझते हैं, निर्वाह करते हैं उनके लिए नारी उनके प्रत्येक कर्म में सहभागी होती है या यों कहें कि नारी के सहयोग के बिना उनका कोई सा काम सफल नहीं हो सकता। आजकल नारी के साथ गैंग रेप, बलात्कार, मारपीट, प्रताड़ना, हिंसा आदि जो कुछ हो रहा है उसे करने वालों के जीवन और चरित्र को देखें तो ये लोग कहीं से पुरुष नहीं लगते बल्कि लगता यह है कि जैसे आदमी की पैकिंग में कोई जानवर या नपुसंक ही धरा पर आ धमके हों। जो आदमी जितना ज्यादा निर्वीर्य, नपुंसक और नालायक होगा, उसके मन में नारी के प्रति सम्मान और आदर कम होगा। उस आदमी को पुरुष कैसे माना जा सकता है जो नारी के प्रति प्रेम, सम्मान और आदर की बजाय दूसरी भावनाएं रखे। क्योंकि जो असल में पुरुष हुआ करते हैं वे ही जान सकते हैं नारी का सामथ्र्य और सृष्टि निर्माण में योगदान।
आज समाज में आदमी की पैकिंग मेें घूमने वाले ऎसे लोगों की खूब भरमार है जो अपने आपको पुरुष तो कहते हैं लेकिन पुरुषत्व का कोई लक्षण इनमें विद्यमान नहीं होता और यही कारण है कि ये जमाने भर में अपने पुरुषत्व के मिथ्या दर्शन कराने के लिए नारी पर विजय का दंभ भरने की खातिर ऎसी हरकतें कर लिया करते हैं जिनसे पुरुष समाज की नहीं बल्कि घर-परिवार और समाज नामक संस्था को शर्मसार होना पड़ता है। यह हकीकत है कि जो लोग महिलाओं को असम्मान की भावना से देखते हैं और उनका निरादर करते हैं अथवा उनके लिए बेहूदा बातें करते फिरते हैं, ऎसा आवारा आदमियों की मनोवैज्ञानिक एवं शारीरिक जाँच की जाए तो उनमें कहीं न कहीं पुरुषत्व के पलायन हो जाने या दूषित होने की स्थितियाँ ही सामने आएंगी। पौरूष का प्रथम सूत्र यही है कि वह उन सभी लोगों के लिए संरक्षण और प्रोत्साहन के साथ विकास में भागीदार बने जो उसके अपने कहे जाते हैं अथवा समुदाय में हैंं। खासकर नारियों की रक्षा और उनकी इज्जत-आबरू की सुरक्षा का दायित्व पुरुष पर ही है लेकिन इसे वही अच्छी तरह निभा सकता है तो वास्तव में पुरुष हो। पुरुषों के नाम पर आवाराओं की तरह घूमने वाले लोगों से यह अपेक्षा कभी नहीं की जा सकती। हर व्यक्ति दो धु्रवों से बना है और तभी वह जीवंत रह सकता है जब दोनों का समावेश हो। किसी एक धु्रव के भी अलग हो जाने या रुष्ट होने की स्थिति में जीवंतता की कोई कल्पना नहीं की जा सकती।
आधे आसमाँ की सारी समस्याओं की दूसरी सबसे बड़ी जड़ है उन्हीं की बिरादरी। आमतौर पर महिलाओं को सर्वाधिक खतरा महिलाओं से ही है। दुनिया में केवल महिलाओं में ही यदि महिलाओं के प्रति ईष्र्या-द्वेष और पारस्परिक नकारात्मक भाव समाप्त हो जाएं तो दुनिया भर से महिलाओं की सारी परेशानियां अपने आप समाप्त हो जाएं। लेकिन ऎसा हो नहीं पा रहा। सास-बहू, ननद-भोजाई, पड़ोसनों, बहन-भाभियों से लेकर महिलाओं-महिलाओं में जो रिश्ते हैं उन सभी में कलह का मूल कारण महिलाएं ही हैं। घर-परिवार की न हों तो बाहर की महिलाएं भी हो सकती हैं। जब तक महिलाओं का दूसरी महिलाओं से ईष्र्या और द्वेष का भाव समाप्त नहीं हो जाता तब तक महिलाओं के उत्पीड़न के लिए सिर्फ पुरुषों को ही दोष देना बेमानी हैै। इन हालातों में महिला दिवस का यह दिन महिलाओं के लिए आत्मचिन्तन का वार्षिक पर्व है जब उन्हें गंभीरता से यह संकल्प लेना चाहिए कि कोई एक महिला दूसरी किसी महिला के प्रति कोई द्वेष भाव नहीं रखेगी फिर चाहे उसके लिए सुन्दरता और समृद्धि कोई कारण हो, या फिर कौटुम्बिक रिश्ते-नाते। अकेले आधे आसमाँ में इस प्रकार का सौहार्द, प्रेम, समन्वय और सामूहिक विकास की सोच यदि विकसित हो जाए तो कोई कारण ही नहीं बचता कि महिलाओं को परेशान होना पड़े। पारस्परिक सुपर ईगो और कलह ही वह मुख्य कारण है जिसकी वजह से आधा आसमाँ विभाजित और बिखरा हुआ लगता है। इसका फायदा दूसरे उठाते रहे हैं।
आजकल महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार और शक्तियां दिए जाने की बातें तूल पकड़ रही हैं। और ऎसा कहने वालों में अभिजात्य वर्ग की वे महिलाएं ज्यादा मुखर हैं जिन्हें न भारतीय संस्कृति की समझ है, न इतिहास का ज्ञान। हकीकत तो यह है कि अर्वाचीन काल से भारतीय नारी को नर के मुकाबले कई गुना ज्यादा माना और महत्त्व दिया गया है और उतना ही आदर-सम्मान दिया गया है। यहाँ तक कि नारी का नाम पहले आता रहा है और उसके बाद नर का। आज सीताराम, लक्ष्मीनारायण, पार्वतीशंकर, राधाकृष्ण, शचीपति आदि प्रचलित नामों को देखने से ही हमें ज्ञात हो जाना चाहिए कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति में नारी का स्थान कितना अधिक ऊँचा और आदरणीय था। मदालसा, भारती, गार्गी जैसे खूब नारी पात्र हैं जिन्होंने नारीत्व को गौरवान्वित किया और आदिशक्ति का अंश होने का प्रमाण दिया है। आज हम घर-परिवार, समाज और देश में जो भी समस्याएं देख रहे हैं, प्राकृतिक और मानव निर्मित जो भी आपदाएं हमे चुनौतियां दे रही हैं, उन सभी का समाधान यही है कि हम महिला जगत का पूरा-पूरा सम्मान करें ताकि आदिशक्ति प्रसन्न रहे और दुनिया में सुख-शांति व समृद्धि का वरदान हमें निहाल करता रहे।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com
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