जननी, जन्मभूमि और जगदीश्वर !!!
हमें उसी के प्रति वफादार और जवाबदेह होना चाहिए जिसने हमें बनाया है और दायित्व सौंपे हैं। पहला तो है वह विधाता ईश्वर जिसने हमें धरा पर मनुष्य के रूप में भेजा है, दूसरी है जननी जिसने विधाता के भेजे हुए सूक्ष्म शरीर को स्थूल आकार देकर जन्म दिया है। तीसरी है हमारी मातृभूमि जहाँ हम पैदा हुए हैं। इन तीनों के हम पर स्वाभाविक ऋण हैं जिनसे उऋण होने के लिए ही मनुष्य का पूरा जीवन दिया हुआ है। इन तीनों के ही प्रति जवाबदेही का बोध हमारे भीतर जग जाए तो इससे जगत और जीव मात्र के प्रति हमारी संवेदनाओं का जागरण स्वतः ही हो जाता है। दूसरी ओर इन तीनों में से किसी भी एक के प्रति जवाबदेही कम हो जाए अथवा शून्य हो, तब तीनों की हम पर कृपा और आशीर्वाद बना रहना मुश्किल है और ऎसे में हमारा पूरा जीवन उस तिनके की तरह हो जाता है जो बाढ़ में फंस कर बिना किसी लक्ष्य के बहता ही चला जाता है। जननी, जन्मभूमि और जगदीश्वर इन तीनों के ही प्रति अगाध विश्वास, श्रद्धा और समर्पण होने पर ही किसी भी व्यक्ति का जीवन सफल हो सकता है और उसकी कई पीढ़ियां भी सुधर जाती हैं जो उसे युगों तक कीर्ति दिलाती हैं। इनमें से एक के प्रति भी उपेक्षा या अनादर का किंचित मात्र अंश भी आ जाने पर तीनों की कृपा और आशीर्वाद से हम वंचित हो जाते हैं और फिर इसका कोई ईलाज नहीं होता।
आजकल पाश्चात्य चकाचौंध और कबाड़ी जिन्दगी के चलते हर कोई आदमी अपने लिए अनाप-शनाप कबाड़ भरना चाहता है। यह कबाड़ आलीशान भवन, भौतिक सुख-विलासिता के संसाधनों से लेकर बैंक लॉकरों, मुद्राओं से भरी अटैचियों और ऎश्वर्य दिलाने और दर्शाने वाली वस्तुओं का हो सकता है। आदमी को कबाड़ जमा करने में आजकल जितना आनंद आता है उतना किसी और काम में नहीं। जहाँ कहीं कोई अच्छी चीज देखी नहीं कि चाह लेता है झपट्टा मारकर अपने कब्जे में ले लेना। यह अलग बात है कि इतना सब कुछ कर चुकने के बाद भी उसे आनंद की प्राप्ति नहीं होती और जिन्दगी भर कुत्तों की तरह भटकता ही रहता है, कभी गलियों में, कभी चौराहों पर, कभी उन मार्गों पर जो राजसत्ता के प्रदूषण से भरे हुए हैं, तो कभी उन प्रासादों के परिसरों में जहाँ कुछ न कुछ झूठन हर दिन मिलने की गुंजाइश हो। कभी आदमी उन लोगों के इर्द-गिर्द घूमता और चापलुसी करता रहता है या जी हुजूरी में रमा रहता है जिन्हें आदमी होने के काबिल तक नहीं माना जा सकता है। आदमी के जीवन में बदचलनी का आजकल वह दौर आ चुका है जिसमें आदमी उन सभी के प्रति जवाबदेही भुला बैठा है जिनके प्रति होना चाहिए।
आजकल आदमी अपने क्षुद्र स्वार्थों की प्राप्ति में गलाकाट स्पर्धा में रमा हुआ उन लोगों के प्रति जवाबदेही दर्शाने में पूरी जिन्दगी समर्पित कर देता है जो नाम मात्र के आदमी हैं और आदमी के खोल में इनके भीतर जाने कितने हिंसक जानवर, व्यभिचारी चरित्र, हराम के पैसों के भण्डार और कुत्सित वासनाओं के कोठर विद्यमान हैं। आदमी ने अपने संस्कार और चरित्र, वंश परंपरा के गौरव और गर्व आदि सब कुछ को भुल भालकर उस अहाते में अपना बसेरा बना लिया है जिसमें उसी की तरह के ढेरों अनुचर दिन-रात झूठन खाने और झूठ उगलने में लगे हुए हैं। हमारे अपने कहे जाने वाले इलाके में भी ऎसे झूठनखोर और हराम की कमाई खाने के आदी श्वान वृत्ति के खूब लोग विद्यमान हैं। इन लोगों को पता ही नहीं है कि वे आदमी हैं और आदमी के रूप में जीवन जीने के लिए ही पैदा हुए हैं। आजकल लोगों की भीड़ मेंं खूब सारे चेहरे मौजूद हैं। कोई जननी, जन्मभूमि और जगदीश्वर तीनों की ही उपेक्षा करता है। इसके बावजूद सत्य यही है कि उसका अस्तित्व इन तीनों के ही कारण है। इसे न वह नकार सकता है, न और कोई। वह माने या न माने लेकिन उसी जननी का पुत्र कहा जाएगा, उसका जन्मस्थान भी वही कहा जाएगा और वह अंश भी कहा जाएगा तो उस परमपिता जगदीश्वर का ही।
जो है उसे स्वीकार करना चाहिए। हमारे अस्वीकार करने से सत्य को नष्ट नहीं किया जा सकता। इन तीनों को ही आदर-सत्कार और सम्मानपूर्वक समर्पण भाव से जो मानता है उसी का जीवन वस्तुतः धन्य है। कई लोग जननी को उपेक्षित कर देते हैं और असम्मान का भाव दर्शाते हुए उसे ऎसी हालत में रख देते हैं जहाँ वह अपने ही पुत्रों के कारण व्यथित, दुःखी और त्रस्त रहती है। ऎसे पुत्रों का पूरा जीवन आज नहीं तो कल नारकीय स्थिति में पहुंचने वाला ही है क्योंकि इतिहास हर उस घटना को दोहराता है जिसे हम दुराग्रहों के कारण आकार देते हैं। जो जननी को दुःख देता है, उपेक्षा करता है, वह चाहे कितना ही बड़ा और प्रभावशाली क्यों न गिना जाए, उसका जीवन एक समय के बाद दुर्भाग्य से ऎसा घिर जाता है कि वह मानसिक और शारीरिक यंत्रणाओं के चक्रव्यूह में घिर जाता है और जिन्दगी का सारा आनंद छीन जाता है। इसी प्रकार अपनी मातृभूमि की सेवा के लिए जीना हमारा परम कत्र्तव्य है। मातृभूमि के ऋण को चुकाये बगैर न जननी के आशीर्वाद फलते हैं, न जगदीश्वर के। क्योंकि जहाँ के अन्न, हवा और पानी का उपयोग कर हमारा शरीर बनता है उस शरीर का मातृभूमि के लिए कोई उपयोग न हो पाए तो हमारा जीना व्यर्थ ही है।
आजकल लोग अपनी मातृभूमि की रक्षा की बात तो दूर है, इसके सम्मान की रक्षा तक करने से दूर भागते हैं। ऎसे लोगों का नरक में भी कोई ठौर नहीं होता। आजकल जो समस्याएं, आतंकवाद आदि का साया हम देख रहे हैं उसका मूल कारण ही मातृभूमि के प्रति श्रद्धा का अभाव है। मातृभूमि की रक्षा और सेवा के फर्ज को हम आज भुला बैठेंगे तो हम कहीं के न रहेंगे। जो लोग हमारी मातृभूमि पर किसी भी प्रकार के हमले करने के आदी हो गए हैं उनका समूल उन्मूलन करना हर मातृभूमि सेवी का कत्र्तव्य है। हर व्यक्ति को चाहिए कि वह उस जगदीश्वर के प्रति कृतज्ञ रहे जिसने हमें मनुष्य का चौला देकर भेजा है वरना हम ढेरों लोग ऎसे देखते हैं जो जानवर होने लायक भी नहीं लगते। जगदीश्वर ने धरा पर हमें इसलिए नहीं भेजा है कि हम संवेदनशीलता, मनुष्यता और चरित्र को भुलाकर आसुरी वृत्तियों में रम जाएं अथवा आसुरी वृत्तियों से भरपूर लोगों के पिछलग्गू बनकर उनकी परिक्रमा, जयगान करते रहें और उनके फेंके हुए टुकड़ों पर पूरी जिन्दगी निकाल दें और समाज तथा दुनिया को कुछ भी दे पाने की स्थिति में होने की बजाय लूट खसोट और भ्रष्टाचार, बेईमानी, व्यभिचारोें में व्यस्त रहें। जो व्यक्ति जननी, जन्मभूमि और जगदीश्वर का आदर-सम्मान करता है, उनकी मंशाओं के अनुरूप जीवन जीता है तथा उन्हीं के आदर्शों को आगे बढ़ाता है, उसी का जीवन धन्य है, शेष सारे तो खाने-पीने, सोने और सिर्फ घटिया मनोरंजन के लिए पैदा हुए लगते हैं।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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