आजकल आदमी का कद छोटा होता जा रहा है और उसी अनुपात में उसका छद्म आभामण्डल बड़ा होता जा रहा है। आदमी की असलियत सारी छिप गई हैं। वह है तो राई, और बताता है अपने आपको पहाड़,। और वह भी कभी गुरु शिखर तो कभी हिमालय। जो लोग प्रतिभा या ज्ञान सम्पन्न अथवा संस्कारों से भरे-पूरे हैं वे तो बड़े ही विनम्र, शालीन और अनुशासित रहते हैं जबकि जो खाली डिब्बे हैं, खोखले हैं वे जोरों से उछलकूद करने और बजने के आदी होते जा रहे हैं। यों भी ज्यादा फबने और इतराने की कोशिश तो वे ही करते रहते हैं जो खुद कुछ नहीं हुआ करते हैं। कभी किसी हाथी का पता बताकर अपने आपको ऊँचा मानते हैं तो कभी किसी आका के नाम पर मनचाही कर गुजरते हैं। पहले के लोग हर मामले में भारी हुआ करते थे। कितना ही बड़ा सम्मान या पुरस्कार हाथों में आ जाए, कितने ही बड़े आदमी का सान्निध्य मिल जाए या फिर और किसी भी प्रकार की कितनी ही बड़ी खुशी मिल जाए, ये लोग हमेशा भारीपन के साथ नज़र आते थे और उनके पूरे व्यक्तित्व से झलकता था भरा-पूरा गांभीर्य।
एक आज का जमाना है जहाँ हर तरफ भारी लोगों की भारी कमी नज़र आने लगी है और जो भीड़ हमारे आस-पास, हमारे इलाकों में नज़र आने लगी है उसमें कुछ को छोड़ कर हर कहीं खाली पीपे ही नज़र आते हैं जो किसी न किसी बाड़े में घूमते रहकर चुग्गा पाते रहते हैं या मुँह मारते रहते हैं। खूब सारे ऎसे खाली पीपे हैं जो जिस बाड़े मेें घुस जाते हैं उसे धर्मशालाओं का रूप देकर ही दम लेते हैं। ऎसी कई धर्मशालाएं हमारे इलाके में भी हैं जहाँ आए दिन आवारा पशुओं की तरह ऎसे-ऎसे लोगों का जमघट लगा ही रहता है जिन्हें आदमियों में आवारा कहा जाए तो कोई हर्ज नहीं। क्योंकि इन लोगों की सारी हरकतें आवारा पशुओं से भी कहीं ज्यादा गई गुजरी हुई होती हैं। फिर आजकल इन आवारा खाली पीपों की आवाज कई-कई गलियारों से रह-रहकर आने लगी है। कभी किसी रंग के लबादों, और कभी किसी रंग के परिधानों में, झण्डे बदलते जाते हैं लेकिन डण्डे वही के वही। यहाँ अपने स्वार्थ को देखकर हर कोई बदल जाता है। कभी चेले-चपाटी बदल जाते हैं और कभी आका अपना रंग गिरगिट की तरह बदल कर दूसरे पालों में जा धमकते हैं। जात-जात के अनुचरोें की फौज रंग और ढंग बदलने के बावजूद वही रहती है। अलग-अलग बाड़ों में बंदरिया उछलकूद करती हुई यह फौज बाग-बाग के फल चट करने में जुटी रहती है।
इन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि बाग किसका है। अपनी गली और चौराहे से लेकर राजमार्गों और जनपथों तक बहुरूपियों के साथ इन खाली पीपों का मार्च लगातार जारी है। कभी ये मोयलों की तरह लोगों की आँखों की किरकिरी बने रहते हैं तो कभी दिन और रात देखे बिना मच्छरों की तरह लोगों के जिस्म में अपने डंक घुसेड़ते और खून पीते। कभी किसी बात पर कुत्तों की तरह भौंकते हुए, तो कहीं अपने आकाओं के लिए हिनहिनाकर सदैव तैयार रहने का संकेत देते। कभी गधे की तरह आकाओं का सारा बोझ उठाकर खुशी-खुशी चलते हुए अपने आपको धन्य मानकर पिछलग्गुओें की परंपरा को धन्य करते हुए। चारों तरफ ऎसे लोगों की भारी भरमार है। इन्हें देख लगता तो यह है कि रोजाना आवाराओं की रैली, प्रभातफेरी और मार्च निकलने की परंपरा ही बन चली हो। जित देखो उत खाली डब्बों का रैला। लगता तो यों है कि जैसे आदमियों की एक नई जात ही पैदा हो गई हो जो न पूरी तरह मनुष्य है, न असुर। देवताओं से तो दूर का रिश्ता नहीं है। फिर जितना इनके आकाओं का रौब नहीं, उससे ज्यादा रौब लोगों पर ये खाली पीपे झाड़ते हैं। रात हो या दिन, इन खाली पीपों का शोर हमें सुनने को मिलता ही रहता है। पिछले कुछ समय से इन पीपों का कुछ ज्यादा ही जोर और शोर नज़र आने लगा है।
कोई छोटा है कोई बड़ा, कोई गोल-मटोल है तो कोई चपटा, कोई नुकीला तो कोई बेहूदा-बेड़ौल। ढेरों ऎसे हैं जिनका रंग-रूप घिस चुका है लेकिन नुकीले दांतों जैसा चेहरा सभी के लिए डरावना बना हुआ है। जैसे कि दुनिया जहान के सारे लोगों को काट खा कर खत्म कर देने के लिए ही इनका जनम हुआ हो। हर तरफ पसरे हुए इन अनुचरी पीपों की तूती बोलने लगी है। इन पीपों को पता ही नहीं है कि जमाने भर के लोग उस दिन की प्रतीक्षा करने लगे हैं जब पीपों की हवा निकाल दें या पीपों में सुराख करते हुए उन्हें अपनी औकात दिखा दें। लोग डाल-डाल तो पीपे पात-पात। कभी ये पीपे कबाड़ी का माल गोदाम बन जाते हैं, कभी पूंगी के आकार में ढलकर आकाओं की प्रशस्तिगान करते रहते हैं, कभी आसन या बिस्तर के रूप में पिचक कर पसर जाते हैं और आकाओं की आत्मतुष्टि और देहपुष्टि के लिए निवेदन करने लगते हैं। इन पीपों का पुल बनाकर ही तो आकाओं की लंका की कुर्सियों और स्वर्ण के भण्डारों तक पहुंच हो पाती रही है। इसलिए पीपों के समर्पण के लिए आका भी कृतज्ञता ज्ञापित करने में पीछे नहीं रहते और जब-तब कुछ न कुछ टुकड़ें फेंकते रहते हैं। जरूरी नहीं कि ये टुकड़े रोटी के ही हों, ये किसी भी रूप में हो सकते हैं जिन्हें पाकर और भोग कर आदमी को आनंद मिलता रहता है।
इन पराये टुकड़ों पर पलते हुए लोगों की हर हरकत को देखने वाले लोगों की भी कोई कमी नहीं है लेकिन वे भी इसलिए चुप रहते हैं क्योंकि उनका मानना होता है कि समय बड़ा बलवान होता है, लेकिन यह भी सही है कि समय हमेशा एक का नहीं होता। आज इसका, कल उसका आने वाला है। समय जब बदल जाता है तब इन पीपों की हवा निकालने के शौकीन और अरसे से इन्हें मजा चखाने के प्रतीक्षातुर लोग थाम ही लिया करते हैं अपने हाथों में वे औजार, जो पीपों को इस सीमा तक बजा डालते हैं कि फिर पीपा उस काबिल ही नहीं रहता कि किसी और के लिए बजने का दंभ पाल सके। आज जो लोग दूसरों के भरोसे धींगा मस्ती और आसुरी धमाल को ही आनन्दोत्सव मान बैठे हैं उन्हें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि उनका समय भी उनका अपना नहीं रहने वाला है, समय हमेशा बदलता रहता है और आज जो चल रहा है वह कल नहीं चल पाएगा। अब जमाना करवट लेने लगा है। उन सभी लोगों को अपनी औकात में रहना होगा जो अपने दायरों को भूल चुके हैं वरना अब लोगों ने शुरू कर ही दिया है आईना दिखाना। आज लोग आईना दिखाने लगे हैं, कल इसी आईने के टुकड़े पूरे जिस्म को भी लहूलुहान करने का दम-खम रखते हैं।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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