फिजूल लिखी जाती हैं 40 फीसदी दवाइयां ! - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 7 अप्रैल 2013

फिजूल लिखी जाती हैं 40 फीसदी दवाइयां !


  • - दवा कंपनियां डाक्टर को कमीशन के तौर पर न सिर्फ मोटी रकम देती हैं बल्कि ऐशोआराम की तमाम सुविधाएं भी मुहैया कराती हैं
  • - अमूमन हरेक छोटी बड़ी दवा कंपनियां ऐसे क्षेत्रों की ही तलाश में रहती हैं जहां साक्षरता का अभाव व लोगों में स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता का अभाव होता है


सहरसा/सुपौल/मधेपुरा: एक रिपोर्ट के मुताबिक निजी व सरकारी अस्पतालों में डाॅक्टर 40 फीसदी दवा बेवजह लिखते हैं। जिनका मरीज की बीमारी से कोई संबंध नहीं होता है। इसकी वजह कुछ और नहीं बल्कि दवा कंपनियों से डाॅक्टरों को मिलने वाला तगड़ा कमीषन व गुप्त प्रलोभन है। लालच में आकर डाॅक्टर मरीजों को दवाइयों की लंबी चैड़ी लिस्ट थमा देते हैं, जिसका खामियाजा सामान्य बीमारियों से पीडि़त मरीजों को महंगी दवाइयां खरीदकर भुगतना पड़ता है। इन दवाओं में मुख्य रुप से विटामिन की कैप्सूल, आयरन व कैल्सियम सीरप और टाॅनिक षामिल है। पर्चियों पर बेवजह दवाइयां लिखने की बात डाक्टर के विभिन्न संगठन भी स्वीकार करते हैंै। इंडियन एकेडमी आॅफ पीडियाट्रिक्स (आइएपी) की एक रिपोर्ट की मानें तो मरीजों की पर्चियों पर 40 फीसदी ऐसी दवाइयां लिखी जाती हैं जिनका बीमारी से कोई वास्ता नहीं होता है। ऐसा करने के लिए दवा कंपनियां डाक्टर को न सिर्फ कमीषन के तौर पर मोटी रकम देती हैं बल्कि ऐषोआराम की तमाम सुविधाएं भी मुहैया कराती हैं। 

गौरतलब है कि कुछ माह पूर्व एसोसिएषन आॅफ फिजीषियन आॅफ इंडिया (एपीआई) के राश्ट्रीय अध्यक्ष डा. अमल कुमार बनर्जी ने भी दवा कंपनियों से ज्यादा कमीषन पाने के चक्कर में मरीजों को फिजूल की दवाइयां लिखने की बात कही थी। वहीं इंडियन मेडिकल एसोसिएषन (आइएमए), सहरसा के सदस्य डाॅ. अवनीष कुमार कर्ण (सर्जन) की मानें तो षहर में इन्वेस्टीगेषन बेस्ड (मेडिकल जांच आधारित) इलाज करने का चलन कम ही है। इस कारण डाक्टर मरीज की पर्ची पर अलग से दवाइयां लिखते हैं। कर्ण कहते हैं कि अलग से लिखी गईं दवाइयां मरीज के हितों को देखते हुए ही लिखी जाती हैं। वहीं दूसरी ओर सदर अस्पताल सुपौल के डीएस डाॅ. अरुण कुमार वर्मा का भी कहना है कि मेडिकल जांच के आधार पर ही दवाइयां लिखी जाती हैं। बता दें कि इन दवाओं का बीमारी से कोई संबंध तक नहीं होता है। डाॅ मुरारी झा (नया बाजार, सहरसा) कहते हैं कि कोसी क्षेत्र में टूल्स एंड टेकनिक के अभाव में डाक्टर मजबूरन ही दवाइयां लिखते हैं। हालांकि उन्होंने माना कि कई मामले में डाक्टर्स बेवजह दवाइयां लिखते हैं। कहते हैं कि कई मामलों में तो खुद मरीज ही टाॅनिक व ताकत की दवाइयां लिखने की बात कहते हैं। बता दें कि कोसी क्षेत्र के ग्रामीण हलकों में नीम हकीम व झोलाछाप की कोई कमी नहीं हैं और इनके द्वारा बड़े पैमाने पर दवाइयों की बिक्री भी होती है। कम कीमत पर दवाई व डाक्टर की उपलब्धता की वजह से ग्रामीण तबका षुरुआती दौर में इन झोलाछाप को ही तवज्जो देते हैं लेकिन मामला गंभीर होने के बाद ही किसी कंसलटेंट डाक्टर्स की षरण में आते हैं। बात तब तक बिगड़ चुकी होती है और चूंकि कोसी क्षेत्र में दुरुस्त स्वास्थ्य सेवा मसलन पैथोलाॅजी के अभाव में डाक्टर कुछ अधिक दवाइयां लिखते हैं। 

आंकड़े बताते हैं कि कोसी क्षेत्र में विटानिक और टाॅनिक की खपत सूबे के अन्य क्षेत्रों से ज्यादा है। नाम न छापने की षर्त पर एक बड़ी दवा कंपनी के कर्मी ने बाकायदा लिस्ट दिखाते हुए कहा कि कोसी क्षेत्र में किस तरह से मरीजों की पर्चियों पर बेवजह सीरप व टाॅनिक लिखी जा रहीं हैं। अमूमन हरेक छोटी बड़ी दवा कंपनियां ऐसे क्षेत्रों की ही तलाष में रहती हैं जहां साक्षरता का अभाव रहता है या फिर यूं कहें कि लोगों में स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता का अभाव होता है। इसी कमी को निजी दवा कंपनियां भुनाती हैं, और डाॅक्टर्स के साथ सांठगांठ कर धड़ल्ले से उन दवाओं को भी पर्ची में लिखवाती है जिनका मरीजों की बीमारी से कोई लेना देना नहीं होता है और नाहक ही मरीजों की जेबें ढ़ीली होती हैं। इस बाबत सिविल सर्जन, सहरसा का कहना है कि अतिरिक्त दवाइयां लिखने की षिकायत अभी तक सामने नहीं आयी है, ऐसे में किसी प्रकार की कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है। सूत्रों की मानें तो सरकारी अस्पतालों की स्थिति तो और भी बुरी है। वहां मौजूद डाॅक्टर महज हाजिरी बनाकर अपने अपने निजी क्लिनिकों का रुख कर लेते हैं। मजबूरन मरीजों को उनके क्लिनिक तक जाना पड़ता है। कभी कभार विभागीय स्तर पर यदि सख्ती बरती भी जाती है तो एकाध दिन तो सब कुछ सही चलता है और कुछ ही दिनों बाद स्थिति ढ़ाक के तीन पात साबित होती है। 



---कुमार गौरव---
सहरसा/सुपौल/मधेपुरा

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