मनुष्य के रूप में जन्म लेने वाला हर कोई चाहता है कि उसकी पूरी जिन्दगी का निर्वाह आसानी से होता रहे और किसी प्रकार के कष्ट या संकटों से उसका वास्ता ही नहीं पड़े। समाज में रहने वाले सामाजिक प्राणी होने के नाते आदमी को घर-परिवार, पास-पड़ोस, समुदाय तथा क्षेत्र भर में लोगों से किसी न किसी काम से कभी न कभी संबंध करना ही पड़ता है अथवा हो जाता है। मनुष्य चूंकि समुदाय में जीने का आदी है और इसलिए उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी हर बाहरी और परिवेशीय कारक से प्रभावित होती है। कभी उसकी मनचाही होती है तो वह खुश हो लेता है। कभी अनचाही हो जाने पर दुःखी और विषादग्रस्त हो जाता है। कभी कुछ भी चाहा-अनचाहा न होने पर उदास और मायूस रहने लगता है। इन सारे झंझावातों के बीच रहता हुआ पूरी जिजीविषा से जीने का सुकून पाने के लिए प्रयत्न करने वाला इंसान यह भी चाहता है कि उसके सारे काम आसानी से होते रहें, उसे जो कुछ अभीप्सित है वह अपने आप, बहुत कम परिश्रम में उसे प्राप्त होता रहे और वह जमाने भर का वह सब कुछ प्राप्त कर ले जिसे लोकप्रियता और संपन्नता की सीमाओं में बाँध कर देखा जाता है। इसके लिए कई सारे रास्ते हैं जिन्हें अपनाया जा सकता है। कुछ रास्ते मानवता से जुड़े हुए हैं जिन्हें अपनाया जाना श्रेयस्कर होता है जबकि कई सारे रास्ते आसुरी भावों से भरे हुए हैं जिन्हें अपनाना मनुष्य की सीमाओं से बाहर तथा वर्जित माना गया है लेकिन सिर्फ उन्हीं के लिए जो मनुष्य हैं, मनुष्य योनि पाए असुरों के लिए सब कुछ जायज हो गया है आजकल। हर कोई आदमी आजकल सफलता और समृद्धि पाने के लिए शोर्ट-कट अपनाना चाहता है जहाँ उसे बिना किसी मेहनत के, औरों को भ्रमित कर अथवा उल्लू बनाकर या फिर दबावों, प्रलोभनों और प्रताड़ना का भय दिखाकर वह सब कुछ हासिल हो जाए जिसके लिए जमाने भर के असंतुष्ट, अतृप्त, अशांत और उद्विग्न लोगों की जमात दिन-रात भिड़ी हुई है।
न घर-परिवार की चिंता है, न समाज की, न उसूलों की और न मातृभूमि की। एक सूत्री एजेण्डा है सारे जहाँ की दौलत को अपने नाम कर लेने का। चाहे इसके लिए कुछ भी क्यों न करना पड़े। सारे हथकण्डों, षड़यंत्रों और गोरखधंधों का इस्तेमाल करने लगा है आदमी। अपने हित साधने के लिए वह सामने वालों का कुछ भी नुकसान कर या करवा सकता है, यहाँ तक कि यमराज का काम भी अपने हाथ में ले सकता है। आदमियों की जात-जात की इस भारी भीड़ में अपने कामों और जीवन निर्वाह को आसान बनाने के लिए कई रास्तों में से तीन-चार मार्ग सहज और सुरक्षित हैं। इनमें आदर्शों पर जीने वाले और संस्कारित परिवारों से जुड़े लोग स्वाभिमान के साथ जीवन जीते हैं। इन लोगांे को हर प्राप्त सामग्री और सभी प्रकार के कारकों में संतोष होता है। इनका स्वाभिमान इतना प्रगाढ़ होता है कि ये लोग परम संतुष्टि के साथ जीवन निर्वाह का सुकून पूरी मस्ती से पाते हैं और इन्हें पता होता है कि उनके द्वारा अपनाया गया स्वाभिमान का मार्ग सहज नहीं है किन्तु एक बार अपना लिया गया है तो इसमें आनंद ही आनंद है। स्वाभिमान के साथ जीने का अपना अलग ही आनंद है जिसे वे लोग सात जन्मों में भी नहीं पा सकते हैं जो आसुरी वृत्तियों को अपनाए होते हैं। दूसरे मार्गों में सफलताएं तो असीमित पायी जा सकती हैं लेकिन मनुष्यता से रिश्ता दूर से दूर होता जाता है।
आजकल के बहुसंख्य लोग सफलता पाने के लिए किसी भी हद तक स्वाभिमान, संस्कार और शुचिता का परित्याग करने लगे हैं। इन्हें कोई हिचक नहीं है। इनके चाल-चलन और जीवन व्यवहार पर गौर किया जाए तो साफ आभास होता है कि ये किसी आसुरी साम्राज्य से सीधे धरती पर जन्म ले लिए हैं। इनमें कोई बड़ा आसुरी भाव वाला आदमी है तो कोई छोटा। लेकिन मनोवृत्तियों और हरकतों में न्यूनाधिक समानता है। ऐसे लोग हर क्षेत्र में पसरे हुए मानवी परिवेश में प्रदूषण फैलाने वाले खर-दूषण बने फिर रहे हैं। इनमें एक किस्म उन लोगों की है जो जीवन भर चापलुसी अपनाये रहते हुए अपने काम बनाते रहते हैं। इनका कोई सा कर्म हो, उसमें पग-पग पर चापलुसी झलकती है जिसे आजकल लोग बटरिंग या चमचागिरि के नाम से ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं।
लच्छेदार भाषा और लटकों-झटकों तथा लहरिया जिस्म के साथ जब ये चापलुसी के अध्याय शुरू करते हैं तब लगता है जैसे ये सामने वाले के समक्ष नर्तन ही कर रहे हैं। बेवजह तारीफों के पुल बाँधना और जिनसे काम हो, उन्हें माई बाप, बोस, गुरु, मालिक, ईश्वर या शासकों तक की संज्ञाएँ दे डालना इनके लिए अत्यन्त सहज है। इनसे भी बढ़कर एक तीसरी किस्म है उन लोगों की जिनके लिए भगवान की दी हुई बुद्धि और शरीर का कोई महत्त्व नहीं होता। इन्हें लगता है कि भगवान ने यह सब उन्हें अपने सांसारिक काम निकलवाने के लिए साधन के रूप में प्रदान किया है। इसलिए इस किस्म के लोगों का उन सभी के लिए किश्तों-किश्तों में समर्पण होता रहता है जिनसे इनका कोई न कोई काम पड़ता रहता है। इनका समर्पण छोटों-बड़ों, पात्र-कुपात्र आदि उन सभी के लिए हो सकता है जो इनके किसी न किसी काम में मददगार हो सकते हैं। इस करिश्माई प्रजाति के लोगों के लिए उनका समर्पण वह एकमात्र ब्रह्मास्त्र होता है जिसके जरिये वे अपने-अपने कल्पवृक्षांे और ढपोड़शंखों को ब्रह्मपाश में बाँध कर अपने काम बड़ी ही आसानी से करवा लेने का मोहजाल फैला देने में माहिर होते हैं। सामने वाले इनके इस सलीके से परोसे हुए समर्पण को श्रद्धा का अतिरेक मानकर फूले नहीं समाते और इनसे ऐसे संबंध स्थापित कर लेते हैं कि इनके परे कुछ होता ही नहीं। कुछ लोग खुद सम्पूर्ण समर्पण के साथ पसर जाते हैं और कुछ शातिर लोग ऐसे होते हैं जो औरों को इनके आगे परोस कर समर्पण व तथाकथित श्रद्धा को आकार देते रहने को ही अपना गौरव समझते हैं।
जो लोग अपनी सारी मनुष्यता छोड़ कर औरों की चापलुसी तथा उनके समक्ष पसर जाने तक का समर्पण भाव जताते हैं उनके सारे काम सहज और आसान हो जाते हैं। यों कहें कि ऐसे समर्पितों के काम दूसरे लोगों के माध्यम से साकार होते रहते हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि तब इन लोगों का समर्पण और व्यवहार किन्हीं एक-दो के प्रति नहीं होता बल्कि इनका समर्पण सार्वजनीन उदारता पा लेता है। जीवन को मनुष्य के रूप में जीना चाहें तो पूरे स्वाभिमान के साथ मातृभूमि और समाज की सेवा का यादगार सफर तय करें अन्यथा बाकी के रास्ते तो हमारे सामने हैं हीं, इनके लिए अपने इलाके में भी खूब गुरु और गुरुघंटाल बैठे हुए हैं जिनका पावन सान्निध्य ही हर मामले में दक्ष कर देने को काफी है।
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