वृक्ष की शीतल ठण्डी छांव अच्छी लगती है, जब धूप काटने को दौड़ती है, वो गिरते पत्ते, वो डालियों के बीच बंधी रस्सी पे बैठकर सारा-सारा दिन झूला-झूलना, बैर के पेड़ों पे चढ़ के बैर तोड़ना बहुत ही अच्छा लगता था। जब गुलमोहर के पेड़ पर सुहावने फूलोें से “मौसम“ लद जाता था और मुस्कुराता हुआ “सावन“ दस्तक देता था तब कितना अच्छा लगता था।
बेषक ये बीते जमाने की बातें हो चली हों, अब तो जहां भी नजर दौड़ाओ जिंदगी सरपट कंकरीट की सड़क पर दौडती ही नजर आयेगी आपको अब अगर पेड़ दिख भी जायें तो गनीमत समझिये अब तो पूजा करने के लिए भी महिलाओं को पेड़ ढूंढना पड़ जाता है। पेड़ क्या हैं और क्यों जीवन में इनकी महत्तता है कि इनके न होने से किसी प्रकार की कमी हो जायेगी क्या ?, पेड़ कहीं जीवन तो नहीं ? पेड़ हमारे साथी तो नहीं ?, क्या ये मात्र लकड़ी और औषधी जुटाने को साधन भर है ?, क्या ये मार्ग का रोड़ा है जिसे विकास के नाम पर तोड़ दिया जा सके?, क्या ये हजारों बेजुबान मासूम पक्षियों को बसेरा नहीं देते ? और क्या ये वातावरण के संतुलन के कारक नहीं है ?
इन सवालों की फेहरिस्त तो छोटी है लेकिन ये लम्बी भी हो सकती है अगर विचार किया जाए किंतु समय सबके लिए मूल्यवान है हम स्वयं से सवाल न ही पूछे और केवल उत्तर को खोजें तो ज्यादा बेहतर होगा। पेड़ पुरातन काल से ही इस धरती पर हैं और यूं कहें कि जबसे मानव सभ्यता का जन्म हुआ तब से पृथ्वी पर इनकी मौजूदगी बनी हुई हैं कई सभ्यताएं धरा पर विकसित हुई और प्राकृतिक प्रकोप के कारण विनाष को भी झेला लेकिन वनस्पति और वृक्ष हमेषा से ही विद्यमान हैं, और कई संस्कृतियों का पालन-पोषण इन्हीं की बदौलत हुआ हैं, जलवायु मिट्टी और पानी की उपलब्धता के कारण अवष्य ही इनके प्रकार और आकार में विविधता स्थान बदलने के साथ बदलती रही हो लेकिन वृक्षों का मूल समान है जो कि मानव सेवा करना है। वृक्षों के बिना मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती वृक्षों में भगवान निवास करता है, ये हमारे पालनहार हैं कुछ और विस्तृत चर्चा करने से पहले आइए जान लेते हैं कुछ विषेष जानकारियां पेड़ों के बारे में:
1. कोई भी पेड़ बूढ़ा होने पर भी नहीं मरता है वह केवल कीटों के द्वारा नष्ट होता है अथवा मानव द्वारा काटे जाने पर मरता है संयुक्त राज्य अमरीका के कैलिफोर्निया एवं नेवादा में पाइन के पेड़ ऐसे हैं जिन्हें विष्व के प्रौढ़तम वृक्षों में शुमार होने का गौरव हासिल है जिनकी उम्र तकरीबन 4000 से 5000 साल है । ( जानकारी स्रोत: http://en.wikipedia.org/wiki/List_of_oldest_trees)
2. पेड़ औसतन 90 प्रतिषत पोषक तत्व पर्यावरण से ग्रहण करते हैं और 10 प्रतिषत पोषक तत्व मिट्टी से ग्रहण करते हैं।
3. विष्व में 100000 ज्ञात प्रजातियां मौजूद हैं पेड़ों की। (जानकारी स्रोत:http://wiki.answers.com/Q/How_many_species_of_trees_is_there)
4. तकरीबन एक एकड़ में फैले वृक्ष एक दिन में 20000 गैलन पानी को वाष्पीकृत कर देते हैं ओर यही कारण इन्हें वर्षा कराने में मदद करता हैं।
5. मृदास्खलन को रोकने में पेड़ों की जड़ें कारगर साबित होती हैं चंूकि पेड़ों की जड़ें अपने आस-पास की मिट्टी को बांधे हुए रखती है।
6. खेतों के बीच लगे पेड़ खेतों की भूमि को उपजाऊ बनाये रखने में सहायक होते हैं।
7. पेड़ अपना भोजन का अधिकांष हिस्सा सूर्य की रोषनी में लेते हैं और ऐसे में कार्बनडाई आॅक्साइड को ग्रहण कर आॅक्सीजन छोड़ते हैं और ये छोड़ी गई आॅक्सीजन पर्यावरण में असंतुलित होती आॅक्सीजन की मात्रा को संतुलन में लाते हैं।
8. तुलसी और पीपल ऐसे वृक्ष हैं जो कि हर समय आॅक्सीजन देते हैं।
9. पेड़ वसंत ऋतु के आने पर अपने पुराने पत्ते गिरा देते हैं और उनमें नये पत्ते आते हैं, सूखे हुए पत्ते मृदा में मिलकर पुनःचक्रण का हिस्सा बन उसे खाद के रूप में उपजाऊ बना देते है।
10. पेड़ स्वास भी लेते हैं और उन्हें काटने पर दर्द भी होता है।
आइये जानते हैं हमारे पेड़ों के बारे में किसने क्या कहाः
1. “पृथ्वी द्वारा स्वर्ग से बोलने का अथक प्रयास हैं ये पेड“़- रविन्द्रनाथ टैगोर
2. “यदि हम प्रकृति को सही सही अर्थ में पहचाने तो प्रत्येक हरे-भरे पेड़ की भव्यता के आगे सोने और चांदी के पेड़ की भव्यता भी कम पड़ जायेगी“-मार्टिन लूथर
3. भवन्ति नम्रास्तरवः फलोदृगमैः
नवाम्बुभिर्भूरिविलम्बिना घनाः।
अनु़द्धताः सत्पुरूषाः समृद्धिभिः
स्वभाव एवैषः परोपकारिणाम्।।
पेड़ शुरू से ही “दाता“ रहे हैं:
पेड़ आॅक्सीजन देतें हैं, लकड़ी पौष्टिक फल सब्जियां फूल इत्यादि देते हैं, भगवान श्रीकृष्ण ने भगवत् गीता में कहा है कि एक सच्चा प्राप्तकर्ता वहीं है जो स्वयं को सेवा मंे लगा देता है और जितना उसे मिलता है उससे कहीं अधिक देने का कार्य करता हैं। पेड़ सदैव प्राकृतिक बदलावों को झेलते हैं लेकिन फिर भी तटस्थ रहकर हमें निरंतर कुछ न कुछ देते ही रहते हैं, वे स्वयं तेज चिलचिलाती धूप सहन करते हैं लेकिन राहगीरों को छाया देते हैं ये ठीक “ज्ञान योग“ की भांति है जो षिक्षा देता है कि कष्ट सहकर भी औरों के लिए आसान रास्ता बनाओ।
क्या कहती राज्य की रिपोर्ट:
राजस्थान वन-विभाग प्रषासनिक प्रतिवेदन 2011-12 के अनुसार हरित राजस्थान योजना का क्रियान्वयन किया जा रहा है जिसके तहत विभिन्न विभागों के सहयोग से तकरीबन 65693 हैक्टेयर भूमि पर वनारोपण किया गया है राज्य में अब तक 5396 ग्राम्य एवं वन सुरक्षा समितियों का गठन किया गया है जो 9.13 लाख हैक्टेयर क्षेत्र के प्रबंधन का कार्य संभाल रही है। प्रदेष का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 342239 वर्ग किमी. है जिसमें 32702.24 वर्ग किमी. कुल वन क्षेत्र है, आरक्षित वन क्षेत्र 12432.79 वर्ग किमी., 17490.73 रक्षित वन क्षेत्र है। राज्य वृक्ष खेजड़ी है और राज्य पुष्प रोहिड़ा है। सर्वाधिक वन क्षेत्र वाला जिला उदयपुर है। राज्य एजेंसियों के साथ-साथ 1901 स्वयं सहायता समूह कार्यरत है जो वन और जीव सुरक्षा से जुड़े कार्यों की देखरेख कर रहे हैं। वानिकी समाचार मई 2012 के अंक के अनुसार राज्य का वनावरण 51 वर्ग किमी. बढ़ा है। प्रतिवर्ष 5 जून को मनाया जाता है विष्व पर्यावरण दिवस । राज्य में 9161.21 वर्ग किमी. क्षेत्र में दो राष्ट्रीयकृत पार्क जिनमें कैवलादेव एवं रणथम्भौर राष्ट्रीय पार्क एवं 25 अभ्यारण्य स्थापित हैं। लेकिन अभी भी 180 लाख हैक्टेयर भूमि ऐसी है जो बेकार पड़ी हुई है वहीं राष्ट्रीय स्तर पर इसकी स्थिति 937 लाख हैक्टेयर है। (जानकारी स्रोत:http://www.rajforest.nic.in)
ग्लोबल वार्मिंगः
वैष्विक तापमान जिसे आप ग्लोबल वार्मिंग के नाम से जानते हैं सबसे बड़ी समस्या बनती जा रही है, इससे निपटने के लिए पूरे विष्व में प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन फिर भी ये समस्या वर्ष प्रतिवर्ष बढ़ती ही जा रही है। ग्लोबल वार्मिंग से तात्पर्य पर्यावरण के बढ़े हुए तापमान से हैं जो हर वर्ष बढ़ता ही जा रहा है जिससे न केवल मानव बल्कि पशु-पक्षी भी परेषान हैं, इसका अनुभव ठीक वैसा है जैसा कि एक धूप में खड़ी कार में बैठे व्यक्ति को महसूस होता है जिस कार के शीषे बंद कर दिये गये हों और एसी भी न चल रहा हो। हमारी पृथ्वी प्राकृतिक और पारंपरिक ऊर्जा स्रोत के बतौर सूर्य से उष्मा संचय करती हैं ये उष्मीय किरणें वायुमंडल से प्रवेष करती हुई धरती तक पंहुचती हैं और परावर्तित होकर पुनः लौट जाती हैं धरती का वायुमंडल कई गैसों से मिलकर बना हैं और जिसमें कई ऐसी गैसों की अधिकता प्रदूषण फैलने से बढ़ गई हैं जो वायुमंडल में प्राकृतिक आवरण का रूप ले लेती हैं और परावर्तित हुई उष्मा को पुनः नहीं जाने देती यहीं रोक लेती हैं जिससे तापमान में वृद्धि होती है। अग्निषामक यंत्रों और रेफ्रिजरेटरों में भरी जाने वाली सीएफसी गैस की वजह से ओजोन मंडल को खतरा बढ़ता जा रहा है जिससे वे उष्मीय किरणें जो अनचाही हैं जिन्हें हमारी ओजोन परत वायुमंडल में प्रवेष करने से पहले ही रोक देती हैं वे सीधे तौर पर पृथ्वी पर पंहुच रहीं हैं जिससे असाध्य रोगों में भी वृद्धि हुई है। वाहनों, हवाई जहाजों, बिजली बनाने वाले संयंत्रों, उद्योगों इत्यादि से अपषिष्ट के रूप में जो धुआं छोड़ा जाता हैं वो भी प्रदुषण का ही एक हिस्सा है। जंगल की बेतहाषा कटाई से प्राकृतिक नियंत्रक की ईकाई के रूप में पेड़ भी हमारे सहयोगी नहीं बन पा रहे हैं । विष्व और राष्ट्रीय स्तर की कुछ इकाईयां पर्यावरण संरक्षण का कार्य कर रहीं हैं जो इस प्रकार हैं-
विश्व की पर्यावरण संस्थाएंः
अर्थ सिस्टम गवर्नेंष प्रोजेक्ट
ग्लाॅबल एनवायरमेंट फेसिलिटी (जी ई एफ)
इंटरगवर्मेंटल पैनल आॅन क्लाइमैट चैंज (आई पी सी सी)
यूनाईटेड नेषन्स एनवायरमेंट प्रोग्राम (यू एन ई पी)
वल्र्ड नेचर आॅर्गेनाइजेषन (डब्ल्यु एन ओ)
भारत की पर्यावरण संस्थाएंः
सैन्ट्रल पाॅल्युषन कंट्रोल बोर्ड (सी पी सी बी)
गुजरात पाॅल्युषन कंट्रोल बोर्ड
मिनीस्ट्री आॅफ एनवायरमेंट एंड फाॅरेस्ट
पौराणिक महत्व है वृक्षों का:
पेड़ पौराणिक, लोकमहत्व एवं आत्मिक तथा आध्यात्मिक महत्व रखते हैं भारत की दंतकथाएं, वेद, पुराण आदि महाकाव्य इस प्रकार के विषेष महत्व के पौराणिक प्रमाण जुटाने के लिए काफी हैं, इसी का परिणाम है कि पूरे भारत में देवी-देवताओं के साथ -साथ पेड़ों की भी पूजा की जाती है । हिन्दू पौराणिक मान्यता के अनुसार बरगद के पेड़ को इस प्रकार बताया गया है कि वह इच्छापूर्ति अथवा मन्नत पूरी करने में सक्षम हैं इस प्रकार वह पवित्र पेड़ांे में गिना जाता है इसे पुराणों में बरगद वटवृक्ष और बड़ के नामों से उल्लेखित किया गया हैै महाकाव्यों एवं लोकमत के अनुसार भगवान षिव दक्षिणामूर्ति स्वरूप बरगद के पेड़ के नीचे शांत मुद्रा में विराजमान हैं जिनके चरणों में ऋषि-मुनि बैठे हैं। बरगद के वृक्ष को देखें तो इसके कभी ना खत्म होने वाले विकास से यह दीर्घायु जीवन का प्रतीक भी माना जाता है। तुलसी के पौधे को भी पुराणों में विषेष महत्व प्राप्त हैं और मत के अुनसार देवी महालक्ष्मी जो कि भगवान विष्णु की भार्या हैं उन्हीं का ही एक स्वरूप तुलसी माना जाता हैै और यही कारण है कि इसे हजारों घरों में देखा जा सकता है और विषेषकर ऐसे मंदिर जंहा भगवान विष्णु एवं कृष्ण की पूजा-अर्चना की जाती है। कमल जो कि सुंदरता शुद्धता और पवित्रता का प्रतीक है को भी कई देवी-देवताओं के आसन के रूप में इस्तेमाल किया गया है। भगवान बुद्ध ने लुम्बिनी में अषोक वृक्ष के नीचे जन्म लिया था, भगवान महावीर ने भी वैषाली में अषोक वृक्ष के नीचे बैठकर ही सम्पूर्ण संसार से नाता तोड़ लिया था। रामायण में भी अषोक वाटिका के प्रमाण दर्षाये गये हैं जहां सीता माता को रावण ने कैद करके रखा था और वीर हनुमान ने सर्वप्रथम प्रभु श्रीराम की ओर से भेंट कर उन्हें संदेष दिया था। बांस के वृक्ष का महत्व पौराणिक और लोकमत के बतौर इसलिए है कि श्रीकृष्ण अपनी मधुर बांसुरी से सभी को मंत्र मुग्ध कर देते थे और वो बांस वृक्ष से बनी होती थी। बोधी वृक्ष को पावन वृक्ष माना गया है जो कि बोधगया में पाया जाता है और जिस वृक्ष के नीचे बैठकर ज्ञान की प्राप्ति भगवान गौतम बुद्ध को हुई जो कि आत्मिक ज्ञाता और बौद्ध धर्म के प्रणेता थे। धार्मिक ज्ञान के अनुसार बोधि वृक्ष को उसके दिल के आकार के पत्तों से पहचाना जा सकता है। इनके अलावा नीम, पीपल, गूलर, आंवला, बेल, अर्जुन आदि वृक्षों की भी सामाजिक और धार्मिक मान्यताएं रहीं हैं समय के साथ । बेल, रूद्राक्ष और बैर को भगवान षिव का प्रिय माना गया है, श्रीफल या नारियल को भगवान वरूण जो वर्षा के जनक हैं का प्रिय, जामुन को भगवान गणेष का, आम को पवनपुत्र हनुमान का प्रिय, कदम्ब को भगवान कृष्ण का प्रिय, अषोक को भगवान कामदेव और सिल्क काॅटन या रूई को महादेवी लक्ष्मी का प्रिय माना गया है। विभिन्न उत्सवों और त्यौंहारों पर भारत में ही नहीं वरन् पूरे विष्व में पेड़ों की पूजा की जाती है वृक्षों की पूजा केवल हिन्दू धर्म में ही नहीं बल्कि विभिन्न धर्माें में की जाती है। कार्तिक माह में तुलसी की पूजा, जेठ में बड़ की पूजा, मार्गषीर्ष में कदम्ब की वैषाख माह में पीपल की पूजा, बृहस्पतिवार को केली की पूजा, आंवले के पेड़ के नीचे कार्तिक मास को खाना खाने का रिवाज है कार्तिक मास में आंवला नम का अपना ही महत्व है, बडी तीज को स्त्रियां मिलकर नीम की पूजा करती है और खेजड़ी के वृक्ष की तो आये दिन महिलाएं कुंकुम लगाकर मौली बांधकर पूजा करती आईं हैं। केले के पत्तों को पवित्र माना गया है और भगवान को भोग लगाने के साथ ही उस पर भोजन करने का भी रिवाज है भारत के दक्षिण की ओर रूख करें तो ज्ञात होगा कि वहां पर केले के पत्तों पर ही भोजन परोसा जाता है। विभिन्न रंगोलियों और पुरा काल के भित्ति चित्रों में पेड़ों को उकेरा गया जिससे उनकी महत्तता के पुख्ता प्रमाण मिलते हैं। ईसाई धर्म के मानने वालों के लिए भी क्रिसमस का त्यौंहार काफी महत्व रखता है और इस दिन क्रिसमस के पेड़ को काफी सजाया संवारा जाता है।
मांगलियावास में मौजूद है कल्पवृक्ष:
मांगलियावास राजस्थान के अजमेर जिले से 26 किमी. दूर स्थित गांव हैं जो कि राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 8 पर ब्यावर के समीप है। पूरे वर्षभर यहां पर लोगों का आना-जाना लगा ही रहता है जिनके पीछे हैं दो पौराणिक वृक्ष। ऐसे वृक्ष जो इच्छा पूर्ति करते हैं जिनकी पूजा अर्चना करने से वे प्रसन्न होकर भक्तों की झोली खुषियों से भर देते हैं। माना जाता है कि यहां 800 वर्ष पूर्व लुप्त प्राय प्रजाति का वृक्ष जिसे कल्प वृक्ष कहा जाता है लगा हुआ है जिसकी पूजा की जाती है। श्रावण मास में यहां भक्तों की भीड़ काफी बढ़ जाती है। इस वृक्ष के कई उपनाम जैसे कल्पतरू, कल्पद्रुम, कल्पपादप हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार जब समुद्र मंथन किया गया तब उसमें से कामधेनु गाय के साथ-साथ कल्प वृक्ष निकल कर आया था, गाय सभी प्रकार की जरूरतों को पूरा करने के लिए आई थी और कल्पवृक्ष को लेकर उस समय देवताओं के देव भगवान इन्द्र अपने इन्द्रलोक में लौट गये थे। यहां मांगलियावास में जो कल्पवृक्ष हैं वे दो पेड़ हैं और आपस में एक दूसरे से चिपके हुए हैं माना जाता है इनमें से एक नर और एक मादा कल्पवृक्ष हैं इनकी उंचाई 24 मीटर और 17 मीटर के करीब हैै। यहां भक्त पेड़ के तने पर मौली बांधकर मन्नत पूरी होने की रस्म अदा करते हैं।
विकास या विनाष:
जब हम एक पौधे को रोपते हैं तो कई समस्याएं आती हैं खाद डालनी पड़ती हैं उसे जरूरत के मुताबिक पानी देना पड़ता है, क्योंकि बिना पानी के कई बार पौधे नष्ट हो जाते हैं छोटे पौधों को ध्यान इस कदर भी रखना पड़ता हैं कि उसे पशु-पक्षी और कीट पतंगें नुकसान न पंहुचा दें और इस प्रकार जब एक पौधा पेड़ बनने की ओर अग्रसर होता हैं उसे 20 से 25 वर्ष लग जाते हैं और हम इंसानों को उसे काटने में एक दिन भी नहीं लगता । प्रकृति माॅं स्वरूपा है जो बच्चे को पालन-पोषण और उसे बड़ा करने का कार्य करती है और बदले में कुछ नहीं मांगती हम प्रकृति माॅं का शुरू से ही दोहन करते आ रहे हैं भूमि में मौजूद खनिज पदार्थों तेल गैस, जंगल के वृक्ष, पर्वत, कोयला और न जाने क्या क्या लेकिन इस अंधाधुंध दोहन से असंतुलन की स्थितियां बढ़ रही हैं जिसका परिणाम हमें आये दिन प्राकृतिक प्रकोपांे के रूप में देखने को मिल रहा है। एक तौर पर देखा जाए तो कमोबेष एक हरे-भरे वृक्ष पर कई सौ पक्षी और हजारों कीट-पतंगों का पोषण होता है वर्षा, तेज धूप और प्राकृतिक आपदाओं से ऐसे पक्षीओं को एक वृक्ष ही सहारा देता है और जब हम एक पेड़ काट रहे होते हैं तो हम विकास के नाम पर रास्ता साफ नहीं कर रहे होते हैं हम उन बेजुबान प्राणीयों से उनका घर छीन रहे होते हैं। इसीलिए कहते हैं जब एक पेड़ मरता है तो उसके साथ-साथ कई जीवन भी समाप्त हो जाते हैं।
वृक्षों का संरक्षण वृक्षोें का विकास न केवल इसलिए आवष्यक है कि वे पर्यावरण संतुलन बनाये रखने में हमारे सहयोगी हैं बल्कि साथ ही साथ वे किसी को सहारा दे रहे हैं वे किसी को छाया दे रहे हैं और जब ये सोच आमजन में विकसित हो जायेगी तब वृक्षों को संरक्षण हो पायेगा। हाॅं ये अवष्य है कि घर के आस-पास के लगे वृक्षों की कटाई-छंटाई होनी जरूरी हैं क्योंकि बढ़ी हुई डालियां परेषानी पैदा कर सकती हंै लेकिन इससे ये तात्पर्य कदापि न लगायें कि वृक्ष को समूल नष्ट कर दिया जाए। पेड़ से मिलने वाली लकड़ी बेषकीमती होती है और उससे हमारे घर दफ्तरों के फर्नीचर और कई उपयोगी सामान बनाये जाते हैं उनमें टीक, सागवान, पाइन और चंदन जैसे वृक्ष तो ऐसे हैं जिनकी लकड़ी बहुत उंचें दामों में बिकती हैं और आप जानते ही हैं कि भारत में चंदन की तस्करी इसी वजह से शुरू हुई। खनिज संपदा के रूप में वृक्ष हमें कई उपहार दे रहे हैं और वहीं हम उनका अवैध कटाव करके उनकी तस्करी कर रहे हैं तो कहां संरक्षित रह पायेगी हमारी संस्कृति हमारी विरासत। आज जो जंगल खाली मैदानों में तब्दील हो चुके हैं वहां मानव बस्तियां तो बसाई जा सकती है लेकिन वो वातावरण नहीं दिया जा सकता है मषीनी एयरकंडीषन से आप अपने कमरे और घर की हवा को तो शुद्ध कर सकते हैं लेकिन पर्यावरण को शुद्ध करने के लिए आपको पेड़ रूपी एयर कंडीषन ही चाहिए।
वृक्षों से जुड़ा महत्वपूर्ण आंदोलन: सन् 1730 का चिपको आंदोलन
जोधपुर जिले में खेजड़ली नाम का एक गांव है जो कि जोधपुर से 26 किमी दक्षिण-पूर्व में आया हुआ है । ये नाम यहां पर बहुतायात में पाये जाने वाले वृक्ष खेजड़ी के कारण पड़ा । सन् 1730 में 363 व्यक्तियों ने अमृता देवी के नैतृत्व में हरे-भरे खेजड़ी के वृक्षों को बचाने के लिए पेड़ों से चिपककर अपनी जान देकर प्रथम बार रिकाॅर्ड संख्या में इस कार्य को अंजाम दिया और पेड़ों की रक्षा की। उस दिन भाद्रपद का दसवां दिन और मंगलवार था, अमृता देवी जो तीन बेटियों आसु, रतनी और भागु बाई के साथ अपने घर पर थी उसने देखा कि सोते हुए गांव में कई दूसरे लोग आधमके हैं। उसने देखा कि ये जष्न गिरिधर भंडारी जो कि राजा अभय सिंह (मारवाड़ शासक) के मंत्री थे ने करवाया था, वो चाहता था कि इस गांव से खेजड़ी के वृक्षों को काट दिया जाए ताकि अपने निवास को बनाने के लिए चूना पकाया जा सके। ये गांव विष्नोई समाज के लोगों का था जो कि थार के रेगिस्तान से घिरा था और यहां काफी हरियारी थी। राजा के आदेष से खेजड़ी के वृक्षों की लकड़ी लाने को कहा गया था जिसका अमृता देवी ने विरोध किया क्योंकि विष्नोई समाज में पेड़ नहीं काटने की धार्मिक प्रवृति है, सामंती पुरूषों ने उसे पैसा देने का आग्रह किया लेकिन अमृतादेवी ने उसे ठुकरा दिया और कहा कि ऐसा करना मेरे धर्म के खिलाफ होगा, उसने कहा कि वो अपनी जान दे देगी लेकिन पेड़ों को नहीं कटने देगी। अमृतादेवी ने उस समय ये शब्द कहे थे, “सर सन्ते रूख रहे तो भी सस्तो जान“ तात्पर्य है कि एक सिर कटाकर यदि एक वृक्ष बचाया जा सका तो भी कम है। ऐसा कहकर उसने अपना सिर आगे कर दिया और वृक्षों की कटाई के लिए लाई गई कुल्हाड़ी के वार ने अमृतादेवी का सिर धड़ से अलग कर दिया इस पर उसकी तीनों बेटियों ने निडर होकर अपने सिर भी आगे बढ़ा दिये। ये खबर पूरे गांव में आग की भांति फैल गई सभी विष्नोई समाज के लोग एकत्रित हो गये और इस पर कार्यवाही करने करने के लिए जुट गये। चूंकि उन चार सिर को काटने के बावजूद भी पेड़ों का काटा जाना नहीं रूका तो ये तय किया गया कि प्रत्येक विष्नोई एक-एक पेड़ से चिपककर उसकी रक्षार्थ अपनी जान गंवा देगा, जाने देने का सिलसिला शुरू हुआ और चारों और चीख-पुकार और मातम जैसा माहौल हो गया भारी कोलाहल की स्थिति देखकर हाकिम वहां से भाग निकला और महाराजा को इस वाकये के बारे में बताया जैसे ही राजा को ज्ञात हुआ कि लोगों ने अपनी जानें पेड़ों को बचाने के लिए कुर्बान कर दी हैं तो शीघ्र ही राजा ने पेड़ों को काटने का आदेष वापिस ले लिया। उस समय 363 की संख्या में विष्नोई समाज के लोग जिनमें बच्चे बूढ़े जवान और नव-विवाहित कन्या और पुरूष भी शामिल थे ने अपनी आहूति इस यज्ञ में दी थी। महाराजा अभय सिंह ने अपने अधिकारियों से हुई इस भूल के लिए माफी मांगी और एक राज्यपत्र जारी किया जिसमें पेड़ों के साथ-साथ वन्य जीवों की रक्षा विष्नोई चार-दीवारी में सुरक्षित की। (जानकारी स्रोत: www.silentharmony.in)
वृक्षों की महत्तता को जानकार भी यदि हम आज अनभिज्ञ बने उन्हें काटने को उत्सुक रहे तो हमारा कल सुरक्षित नहीं रहेगा, जीवनदायी सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले पेड़ों को काटे जाने से बेहतर है उनकी रक्षा की जाए। यदि खराब और ठूठ हो चुके अथवा में मार्ग में बाधक बने रहे वृक्षों के अकारण काटा भी जाए तो अनुपात में उतने पौधों को रोपा जाए साथ ही साथ उनका उचित रखरखाव तब तक किया जाए जब तक कि वे पेड़ न बन जाए। विद्यालयों में मैदान के कुछ भाग में पौधारोपण किया जाकर प्रतिवर्ष एक कक्षा के बच्चों को वृक्ष गोद देना चाहिए ताकि खाली समय में वे इसकी देखरेख कर सके और सीख सके और उनमें भी प्रकृति के प्रति जुड़ाव हो सके। 1730 का चिपको आंदोलन आज भी यादों में जीवित है और मिसाल बना हुआ है और प्रेरणा दे रहा है कि किस प्रकार हम पेड़ों की जान देकर भी रक्षा करें तो भी कम है।
---आनन्द हर्ष---
815, नानक मार्ग गांधी काॅलोनी,
जैसलमेर(राज.) 345001
मोबाईल नं. 9414469362
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