धर्म, अर्थ, कर्म और मोक्ष... इस पुरुषार्थ चतुष्टय के निर्वाह में हमेशा व्यक्ति को अपना भविष्य और सहूलियतों को देखकर शरीर और जीवन के धर्म निभाने चाहिएं। विशेषकर धर्म के बारे में यह निश्चय ही जानना चाहिए कि व्यक्ति के जीवन में सहजता के साथ, बिना किसी परेशानी या दूसरों को दुःख पहुंचाये जो भी धर्म-कर्म किया जाए, वह अंगीकार करना चाहिए। आजकल धार्मिकता का हर कहीं विस्तार और विकास उछालें मारता दिख रहा है। चारों तरफ हो रही धार्मिक गतिविधियों को देख लगता है जैसे भारतभूमि में एक बार फिर धार्मिकता का ज्वार आ गया है। धर्म के नाम पर जो कुछ हो सकता है वह इन दिनों हो रहा है। यह अलग बात है कि अधिकांश लोगों को धर्म के मर्म से कोई सरोकार नहीं है। उन्हें धर्म के नाम पर अपनी रोटियां सेंकने, घर भरने, आश्रम और संस्थाएं चलाने, मठ-मन्दिरों को आमदनी का केन्द्र बनाने और भोग-विलासिता भरे जीवन की प्राप्ति के लिए हर तरह के गोरखधंधे चलाने के लिए मंच और अवसर चाहिएं। ये लोग अपने लाभ के लिए धर्म को कहीं भी किसी भी रूप में स्थापित या प्रतिस्थापित कर देने की क्षमताओं और हुनरों में माहिर हुआ करते हैं। आजकल धर्म के नाम पर मन्दिरों और मठों से लेकर संस्थाओं के साथ ही हर कहीं बाबाओं की भारी भीड़ लगी हुई है जिनका मानना है कि इन लोगों को दान-दक्षिणा और रुपया-पैसा भेंट चढ़ाना ही एकमात्र धर्म है और इसी से ईश्वर प्रसन्न हो सकता है। प्रतिष्ठित और सिद्ध तपस्वियों, परंपरागत तीर्थों, मठों एवं आश्रमों के महंतों, महामण्डलेश्वरों, शंकराचार्यों और गिनती के संत-महात्माओं को छोड़ दिया जाए तो आजकल अधिकतर लोगों को यही लगता है कि धर्म के चौले को धारण कर लेने मात्र से या भगवा पहन लेने और तिलक-छापा भस्मी रमा लेने से ही धर्म के वे सारे के सारे द्वार उनकेे लिए खुल जाते हैं जिनसे होकर टकसाल या भोग-विलास की ओर रास्ते जाते हैं।
धर्म सिर्फ मठों-मन्दिरों और बाबाओं या धर्म के ठेकेदारों तक कैद नहीं है बल्कि धर्म का सीधा सा अर्थ उस सदाचार पालन से है जिससे जगत और लोक कल्याण के मार्ग प्रशस्त होते हैं। पिछले कुछ साल से धर्म के नाम पर चंदा उगाही और दान-पुण्य करने पर जोर दिया जाने लगा है। लोग धर्म के भय से अथवा अपने इच्छित कामों के पूरा होने के लोभ मेें दान देने की बातों से प्रभावित होकर दान करने में पीछे नहीं रहते। इन्हीं धर्मभीरू लोगों का फायदा आजकल भिखारी और भिखारियों के स्वभाव वाले बाबा उठा रहे हैं। कोई मन्दिर बनाने के नाम पर, तो कोई अन्न क्षेत्र या गौशालाओं के नाम पर, कई ऎसे हैं जो तीर्थ यात्रा करने के नाम पर लोगों की जेबें खाली करवाने में सिद्ध हो गए हैं। हमारा अपना क्षेत्र हो या दूसरे इलाके, हर तरफ ऎसे बाबाओं की भारी भीड़ जमा है जो दिन में धर्म के नाम पर पैसे माँगती है और रात को माँस-मदिरा की पार्टियाँ उड़ाती है। भिखारियों और बाबाओं में सिर्फ यही फर्क रह गया है कि भिखारी सीधे तौर पर भीख माँगते हैं और बाबा अपने भगवों और दूसरे परिधानों में फबते हुए लोगों की जेब से पैसा निकलवाने के सारे जतन करते हुए बड़े ही प्रेम और आदर के साथ धर्म भीरूओं की जेब साफ कर रहे हैं। धर्म के नाम पर जो बाबा या धर्म का ठेकेदार जितने ज्यादा पैसे निकलवाने के वाक चातुर्य में जितना अधिक माहिर होता है उतना अधिक पूज्य और समृद्ध होता चला जाता है। भ्रष्ट, बेईमानों, चोर-उचक्कों, कमीशनखोरों और रिश्वतखोरों के लिए कहीं न कहीं किसी मन्दिर या मठ या धर्मार्थ ट्रस्ट में कुछ न कुछ दान देना मजबूरी होता है क्योंकि इन लोगों को जिन्दगी भर यही भ्रम बना रहता है हराम की कमाई में से कुछ दान कर देने मात्र से इनके गुनाह माफ हो जाएंगे और पाप पुण्य में बदल जाएंगे। और ऎसा न करें तो उनके गुनाहों का बोझ बढ़ता चला जाएगा।
इसलिए ऎसे भ्रष्ट और बेईमान लोग धर्म के नाम पर दान दें या किसी मानवतावादी काम के लिए दान दें तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन प्रायःतर होता यह है कि लोग धर्म के भय अथवा अपनी इच्छाओं की पूत्रि्त के लिए कर्ज में डूबे हुए होने के बावजूद दान करने को विवश हो जाते हैं। जबकि जिन लोगों पर कर्ज का बोझ है उन्हें दान करने या धर्म के नाम पर पैसा व्यय करने का कोई अधिकार नहीं है। उनका एकमात्र धर्म कर्ज के बोझ को अपने सर से उतारना होना चाहिए। दान तभी किया जाना चाहिए जब हमारे जीवन की अत्यल्प आवश्यकताओं की संतोषपूर्वक पूत्रि्त में इससे कोई बाधा न पहुंचे। संचित धन सम्पत्ति में से चाहे जितना दान किया जाए, उसमें कोई आपत्ति नहीं है लेकिन अपने पर कर्ज के होते हुए धर्म के नाम पर बाबाओं को दान देना, मन्दिर निर्माण के लिए राशि भेंट करना अथवा महंगे रत्नों, अनुष्ठानों एवं पूजा-पाठ के नाम पर पैसा बहाना एकदम गलत है। आमतौर पर भावनात्मक और धर्मान्ध मनुष्य इन बाबाओं और मन्दिर वालों तथा पोंगा पण्डितों के चक्कर में पड़कर अपना रुपया-पैसा व्यर्थ खर्च कर दिया करते हैं और बाद में पछताते भी हैं। जिस काम का बाद में पछतावा हो, उस काम को अपनी पूरी जिन्दगी में कभी नहीं किया जाना चाहिए।
सामान्य जिन्दगी जीने वाले लोगों के लिए मन्दिर निर्माण, यज्ञ, अनुष्ठान और पूजा-पाठ तथा बाबाओं को दान देने की प्रवृत्ति से बचना चाहिए और अपनी खुशहाली के लिए भगवद भक्ति का सहारा लेने का प्रयत्न करना चाहिए। ईश्वर को प्रसन्न करने और अपनी मनोकामनाओं की पूत्रि्त के लिए धर्म के नाम पर दान करना ही एकमात्र मार्ग नहीं है बल्कि इससे भी ज्यादा प्रभावी और तीव्र उपाय हमारे धर्मशास्त्रों में वर्णित हैं। ईश्वर के प्रति अनन्य भक्ति तथा समर्पण कर दिए जाने की स्थिति में हमारे जीवन के सभी प्रकार के कार्य ईश्वरीय सत्ता से अपने आप होते रहते हैं। तभी गीता में कहा गया है - ‘अनन्यश्चिन्तयंतो मा.....योगक्षेमं वहाम्यहम।’ यह स्थिति धर्म में सर्वोपरि एवं सहज मानी गई है। इसी प्रकार कलियुग में भजन-कीर्तन तथा जप भी वे सहज सुलभ साधन हैं जिनके माध्यम से ईश्वर को प्रसन्न कर मनोकामनाओं को पूर्णता प्रदान की जा सकती है। धर्म निभाने और दान-पुण्य करने की ही इच्छा हो तो बाबाआें और भिखारियों को रुपये-पैसे देने की बजाय खाना-पीना और वस्त्र दें लेकिन वह भी उनको जरूरत हो तथा उपयोग में आने की स्थिति हो तब, गायों और दूसरे पशु-पक्षियों के लिए दाना-पानी का प्रबन्ध करें और जरूरतमन्दों को उनके योग्य संसाधन मुहैया कराएं तथा हरसंभव मदद दें। यह जरूरी नहीं कि यह मदद सामग्री या धन के रूप में ही हो, यह सेवा और सम्बल से लेकर प्रोत्साहन और उत्प्रेरणा जगाने के किसी भी माध्यम के रूप में हो सकती है। इसलिए धर्म के मर्म को समझें, दान के लिए पात्र देखें तथा खुद की पात्रता भी तय करें।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें