जड़ और जीवन से भरी इस सृष्टि में हर कोई चाहता है कि आन-बान और शान से जीवन जीये। इसके लिए आदमी थोड़ा-बहुत समझदार होने के बाद से ही अपने अस्तित्व को साबित करने की यात्रा में जुट जाता है और समाज-जीवन तथा क्षेत्र की विभिन्न प्रवृत्तियों में अपने हुनर तथा व्यवहार के बूते स्थान बनाने और यश-प्रतिष्ठा पाने की लगातार कोशिशें करता रहता है। इनके लिए वह अपनी प्रतिभाओं को निखारता है, लोक व्यवहार की शिक्षा-दीक्षा पाता है और जमाने भर के प्रचलित संसाधनों तथा सेवाओं का उपयोग करते हुए आगे बढ़ने की जद्दोजहद में रमा रहता है। हमारी जनोन्मुखी वृत्तियों, सेवा तथा परोपकार के व्रत और समाज तथा क्षेत्र के लिए कुछ कर गुजरने की भावना ही वह सर्वोपरि कारक है जिसके बूते समाज हमें स्वीकारता है। समाज की स्वीकार्यता दो प्रकार की होती है। एक तो आदमी के रुतबे, संपन्नता और भय के कारणों से। दूसरा व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्व की खूबियों को समझ कर। जिन लोगों की स्वीकार्यता भौतिक संसाधनों और भय, भौतिक विलासिता और पदों तथा कदों के दबाव से होती है वह अस्थायी भाव लिए हुए होती है जबकि जो लोग अपने लोकस्पर्शी व्यवहार और निष्काम कार्यों की बदौलत समाज में अनुकरणीय कार्य करने में रमे रहते हैं उन लोगों के कर्मयोग को सदियों तक याद रखा जाता है।
आज भौतिक संसाधनों और अत्याधुनिक उपकरणों के प्रयोग वाला वैज्ञानिक युग है जहाँ आदमी के पैदा होने से लेकर मरने तक जाने कितनी तरह के यंत्रों और उपकरणों से उसका पूरा जीवन भरा रहता है। हालांकि तीव्र विकास और वैश्विक प्रतिस्पर्धा के मौजूदा दौर में इन उपकरणों की उपादेयता स्वयंसिद्ध है लेकिन हाल के वर्षों के हमारे अनुभव यही बताते हैं कि हमने आवश्यकताओें को असीमित कर दिया है और इच्छाओं के आसमान की ऊँचाई इतनी बढ़ा दी है कि वह हमेशा अपनी पहुँ से बाहर ही लगता है। अब हमारे जीवन का उद्देश्य कार्य संपादन और जीवनयापन की जरूरतों को संतोष के साथ पूरा करने की बजाय तृष्णाओं को साकार करने में लग गया है और हमारी यही सोच अपनी तमाम उद्विग्नताओं, अशांति और असफलताओं की जननी होकर रह गई है। फैशनपरस्ती और देखादेखी के दौर में हम वह सब कुछ पा लेना चाहते हैं जो हमारे आस-पास दिखता है भले ही उसकी हमारे जीवन में कोई उपयोगिता हो या न हो। विज्ञान युग के तमाम आविष्कारों का हम हमारे हित में, समाज और क्षेत्र के हित में ज्यादा से ज्यादा उपयोग करें, वहाँ तक तो बात ठीक है लेकिन आजकल हो रहा है इसका उलटा। जो संसाधन हमारे पास हैं, जिन उपकरणों को हमारी जिन्दगी को आसान बनाने के लिए बनाया गया है उन सभी का हम उपयोग कम तथा दुरुपयोग ज्यादा करने लगे हैं। इससे हमारे जीवन में प्रत्येक क्षण की उपादेयता और उपलब्धियों यानि की प्राप्ति का ग्राफ शून्य होता जा रहा है।
अब चारों तरफ जिस किस्म के लोगों की हरकतें दिखाई देने लगी हैं उनसे तो साफ लगता है कि बेजान खिलौनों ने हमें भी खिलौना ही बना कर जान छीन ली है। मनुष्य के लिए जिन उपकरणों को काम के लायक समझा जाता है उसका वास्तविक से सौ गुना ज्यादा दुरुपयोग हो रहा है। बात चाहे मोबाइल की हो, कम्प्यूटर, टीवी, इंटरनेट और दूसरे किसी भी तरह के पदार्थों या यंत्रों की। उपयोगिता से ज्यादा हम इनका शोषण कर रहे हैं और इस शोषण में इतने रम गए हैं कि हमें अपने जीवन का लक्ष्य इसी में दिखाई दे रहा है। जिन्दगी में प्रत्येक क्षण और दिन तरक्की का सफर देने वाला होना चाहिए लेकिन हम हैं कि इन बेजान उपकरणों में ही उलझे हुए टाईमपास कर रहे हैं। इनका सीधा सा असर हमारी बौद्धिक एवं शारीरिक क्षमताओं, आयु तथा जीवन व्यवहार पर पड़ रहा है। हमारे भीतर से मानवीय संवेदनाओं के सारे भाव समाप्त होते जा रहे हैं और रिश्तों में से भाव तथा आत्मीयता गायब है। बेजान वस्तुओं के निरन्तर दिन-रात सम्पर्क ने हमारे जीवन को इतना छीन लिया है कि हम दिन-रात में कई घण्टे बेजान जैसे रहने और दिखने लगे हैं। इन सभी वस्तुओं और उपकरणों के न होने के दिनों में आदमी की कद-काठी और व्यवहार जितना जानदार और शानदार हुआ करता था, आज उसके चिह्न तक मुश्किल से देखने को मिलते हैं। बेजान चीजों के प्रयोग और उनके प्रति अगाध आस्था तथा प्रेम के भावों ने हमारी स्थिति उस प्राणहीन बिजूके की तरह कर डाली है जो चक की तरह पसरे हरे-भरे खेत में एक ही जगह हिल-डुल कर खेत की रखवाली करता है।
सारे रिश्ते-नाते, लोकाचार, मांगलिक उत्सव, सार्वजनिक आयोजन, गाँवाई उत्सव, पर्व, त्योहार हों या फिर घर-परिवार अथवा समाज का कोई कार्यक्रम। इनमें आत्मीयता के भाव गायब हैं। लोग बुद्धू बक्से के सामने बैठकर, घण्टों मोबाइल पर बतियाकर और कम्प्यूटर स्क्रीन को ही अपना संसार मान बैठे हैं। बेजान वस्तुओं का आकर्षण इतना कि उपयोग हो या न हो, इनकी जरूरत आजकल हर किसी को रहने लगी है। हर कोई चाहता है कि उसके हाथों, उसके घर पर भी वह सब कुछ हो, भले ही घर-परिवार और समाज तथा क्षेत्रवासियों से दूरियाँ बढ़ती क्यों न चली जाएं। वर्तमान में बच्चों की पीढ़ी तो मोबाइल और कम्प्यूटर, इंटरनेट से लेकर टीवी तक को संगी-साथी बनाकर खेलना-कूदना और समाज तथा क्षेत्र की प्रतिस्पर्धाओं, आयोजनों में भागीदारी बनना भूला ही बैठी है। नई पीढ़ी की सेहत का जो कबाड़ा होने लगा है उससे तो हम सभी लोग अच्छी तरह वाकिफ हैं। इसी तरह चलता रहा तो आदमी बिजूकों और रोबोट की तरह चलने फिरने लगेगा और आत्मीयता भरे रिश्तों तथा जीवन आनंद की सारी संभावनाओं पर विराम लग जाएगा। जमाने भर के विज्ञान का उपयोग करें लेकिन बेजान वस्तुओं के दुरुपयोग से बचें तभी हम और हमारी पीढ़ियाँ जानदार और शानदार व्यक्तित्व के साथ जीवन निर्वाह के सारे सुकून प्राप्त कर पाएंगी अन्यथा जो कुछ होगा उसकी भूमिकाएं तो आकार ले ही चुकी हैं।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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