जितनी बढ़े भौतिकता, उतनी घटती जाए उदारता - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

जितनी बढ़े भौतिकता, उतनी घटती जाए उदारता




समृद्धि और उदारता का मेल बहुत कम देखने में आता है। जहाँ कहीं भौतिक चकाचौंध और भौतिक संपदा प्रधान होती है वहाँ आमतौर पर संवेदनशीलता और आत्मीयता के भाव गौण होते चले जाते हैं और एक स्थिति यह आती है कि दुनिया के सभी प्रकार के रिश्ते व्यावसायिक मनोवृत्ति से घिर जाते हैं जो कालान्तर में कभी भी संवेदनशीलता और मानवीय धरातल को प्राप्त नहीं कर पाते बल्कि वन वे ट्रॉफिक की तरह एक ही दिशा में बढ़ते चले जाते हैं- स्वार्थ और ऎषणा पूत्रि्त की ओर। धंधेबाजी मानसिकता जहाँ कहीं होगी वहाँ सार्वजनीन कल्याण, मानवीय मूल्यों और उदार प्रवृत्तियों का कहीं कोई स्थान नहीं होता। आजकल समुदाय और सभी जगह कमोबेश हालत यही है। व्यवसायी बुद्धि का भयंकर प्रकोप कहें या प्रभाव, निरन्तर बढ़ता जा रहा है और ऎसे में सेवा, परोपकार तथा सामुदायिक संसाधनों की बलि चढ़ती जा रही है। जड़ और भौतिक संसाधनों को ही यश और प्रतिष्ठा का पैमाना मान चुके लोगों के लिए जीवनालोक से कहीं ज्यादा पद और पैसे तथा संसाधनों के लिए जिन्दगी होम देना हो गया है और यही कारण है कि आदमी के भीतर से आत्मीयता, संवेदना, सेवा व परोपकार के भावों को खात्मा होता जा रहा है और उनकी जगह ले ली है भोग-विलासिता, स्वार्थ, व्यवसायिक मनोवृत्ति, व्यभिचारी बुद्धि और उन सभी बुराइयों ने जिनसे सायास दूरी बनाए रखने की सीख सदियों से हमें दी जाती रही है।

धंधेबाजी मनोवृत्ति सिर्फ काम-धंधों में ही होनी चाहिए लेकिन जब व्यवसायिक प्रवृत्ति का भूत समाज जीवन के तमाम क्षेत्रों में घुसपैठ कर जाता है तब लगता है जैसे हमारे आस-पास और दूर-दूर तक हर कहीं व्यवसाय की भावना हावी है जहाँ चाहे जिस तरह भी हो सके मुनाफे के लक्ष्य को ही सामने रखकर जीवन व्यवहार किया जाता है। और जहां मुनाफा होगा, लाभ-हानि से भरी सौदेबाजी होगी, वहां न सेवा होती है और न ही परोपकार। आजकल समाज से लेकर क्षेत्र तक में जो कुछ अच्छा-बुरा हो रहा है उसमें सभी जगह व्यवसाय की भावना हावी है और यह इतनी घनीभूत है कि लोगों को जहाँ नज़र दौड़ाएं वहाँ धंधा ही धंधा नज़र आता है। व्यवसायिक भावनाओं का कहर चारों तरफ ऎसा बरप रहा है कि हमारे आस-पास जितनी भीड़ छायी है उनमें बहुसंख्य लोग आदमी न होकर दुकानें ही नज़र आते हैं। कोई छोटी दुकान है कोई बड़ी। कोई ठेला-लारी और गुमटी है, कोई शॉपिंग कॉम्प्लेक्स।  जिसे देखो वह सेवा, परोपकार और लोक कल्याण की बातों को भुला चुका है और बस एक ही चिंतन का विषय है और वह है - धंधा। ये चलती फिरती दुकानें दिन-रात उल्टे-सीधे धंधों में रमी हुई हैं। इनके लिए अपना पूरा इलाका और दुनिया एक खुला चरागाह हो चला है जहां किसम-किसम के बाड़ों में घुसकर ये लोग अपनी चला रहे हैं और वे सारे काम कर रहे हैं जो धंधेबाजों को करने चाहिएं। धंधे की मानसिकता अब हर क्षेत्र में मुँह मारने लगी है।  समाज या अपने क्षेत्र का कोई आयाम ऎसा नहीं बचा है जहाँ धंधे के रूप में आदमी ने अपने आपको चलती-फिरती और सौदा करती दुकान के रूप में विकसित और स्थापित न कर लिया हो।

चारों तरफ भौतिकता की अंधी दौड़ और चकाचौंध के मोहजाल में घिरे लोगों के भीतर से मनुष्यता की गंध पूरी तरह गायब हो चुकी है और इसका स्थान ले लिया है दुकानी मानसिकता ने। हर आदमी अपने आपको दुकान के रूप में स्थापित करने लगा है और वह दुकान भी ऎसी कि जहाँ हर तरह की सौदेबाजी संभव है। आदमी के धंधे में न कोई वर्जनाएं हैं और न ही अनुशासन की किसी प्रकार की सीमाएँ। अपने स्वार्थ और ऎषणाओं की पूत्रि्त के लिए वह कुछ भी कर गुजरने को स्वतंत्र ही नहीं बल्कि इससे भी कई कदम आगे बढ़कर स्वच्छंद हो चला है। फिर जब चारों तरफ स्वच्छन्दों और उन्मुक्त लोगों की भरमार हो तो कौन कहने वाला है। फिर ये लोग भी कहां किसी की सुनने वाले हैं। मदमस्त हाथियों की तरह मद भरे लोगों की भीड़ यहाँ-वहाँ सभी जगहों पर है और इस धंधेबाज भीड़ से परेशान हैं वे लोग जो आदमी की तरह जीना चाहते हैं और दुनिया तथा समाज के लिए कुछ कर गुजरना चाहते हैं। अब समाज में परंपरागत उदारता और सेवा भावना नहीं रही। ज्यों-ज्यों भौतिकता का प्रदूषण बढ़ता चला जा रहा है, त्यों-त्यों उदारता का लोप होता जा रहा है। आज इंसान उस स्थिति में आ गया है जहां उसे संस्कारों और सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पण की आवश्यकता है, न कि उस विकास की जहाँ हर तरफ सिर्फ स्वार्थ और अपने लिए जीने की। शुचिता पूर्ण लक्ष्मी आने पर प्रसन्नता आती है और समाज के प्रति उत्तरदायित्त्व की भावनाएं विस्तार पाती हैं लेकिन जब भौतिकता की चकाचौंध भरी बुनियाद के पीछे भूख, भ्रष्टाचार और भय का ताण्डव होता है तब उदारता समाप्त होकर आपसी खींचतान, छीनाझपटी और कब्जा जमा लेने जैसी बुराइयां घर करने लगती हैं और एक दिन पूरा समाज ऎसे बेहूदा लोगों, हरामखोरों और कमीनों से इतना भर उठता है कि सामाजिक परिवर्तन के लिए किसी विचार क्रांति और लोकचेतना का ज्वार उठाने को उद्यत होना पड़ता है। इतिहास हमेशा अपने आपको दोहराता है यह बात हमें भी अच्छी तरह समझ में आ जानी चाहिए।






---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com

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