अंधाधुंध आविष्कारों भरे विज्ञान के मौजूदा युग में हर तरफ नए-नए उपकरणों ओर संसाधनों का भारी जमावड़ा होने लगा है। आदमी के पैदा होने से लेकर मरने तक काम में आने वाले ढेरों उपकरण हैं जिनकी जरूरत अब आदमी को पड़ने लगी है। पहले आदमी अपने आप में सक्षम और मस्त था। उसे किसी पर आश्रित रहने या पराश्रित जिन्दगी जीने की जरूरत नहीं हुआ करती थी। वह अपने हाल में आनंदित था, संतोषी जीवन जीता था और पूरी आत्मीयता के साथ समाज में अपना वजूद कायम करता था। वह अकेले अपने दम पर दुनिया को हिला देने तक का सामथ्र्य रखता था। कालान्तर में हमारे भीतर से परिश्रम और आत्मीयता के साथ ही इंसानी शक्तियों का निरन्तर ह्रास होता चला गया और धीरे-धीरे हम पराश्रित होते चले गये। हमने एक-एक कर अपना सामथ्र्य खोना शुरू कर दिया और इसकी बजाय उन उपकरणों की मदद लेना आरंभ कर दिया जो हमारे कामों और जिन्दगी को सहूलियतों से भरने लगे। हमने अपनापन और अपने परिश्रम को त्यागते हुए उन सभी वस्तुओं को अपना लिया जिनके बगैर भी हमारा काम अच्छी तरह चल सकता है। लगातार होते जा रहे अनुसंधानों और उपकरणों के कबाड़ ने हमारा पूरा ध्यान अपने आपको, अपने घर को और परिवेश को कबाड़ खाना बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रख छोड़ी है।
आज हम पूरी तरह परजीवी हो चले हैंं। दिन हो या रात, हर क्षण हमें उन उपकरणों या संसाधनों की जरूरत पड़ती है जिनके बगैर हमारा जीना हराम हो जाता है। उपकरणों के अंधाधुंध आविष्कारों ने आज के आदमी को इतना नाकारा बना डाला है कि वह अपने जीवन का कोई सा काम अपने बूते नहीं कर सकता। सिवाय कल्पनाओं और सोचने के। इसमें अभी भी हमारा प्रभुत्व है और यही वजह है कि हम कल्पनाओं के महल खड़े करते हुए उस दिशा में भाग रहे हैं जिस दिशा में असंतोष, उद्विग्नता और अशांति के साथ अंधेरे का माहौल पसरा हुआ है और वहाँ एक बार चले जाने के बाद इंसान के रूप में वापस लौटना कोई खेल नहीं है। हर मामले में हम आत्मनिर्भरता खो चुके हैं। पहले केलकुलेटर्स ने हमारी गणितीय प्रतिभा और मेमोरी को डिलीट कर दिया जिससे मामूली गणनाओं तक के लिए केलकुलेटर का इस्तेमाल हमारे जीवन का अनिवार्य अंग हो गया। फिर हमारे ज्ञान और मनोरंजन के लिए टीवी का बक्सा आया। जिसे फुरसत के समय या सीमित अवधि तक देखने की मर्यादाओं ने सारी सीमाएं तोड़ दीं। बच्चों-बूढ़ों से लेकर घर के सभी लोगों के लिए इस बक्से के सामने घण्टों बैठे रहने की आदत विकसित होती चली गई और आज आदमी का अधिकांश समय टीवी के सामने गुजरता है।
बीच में वीडियो, कैसेट्स आदि ने धमाल मचायी। आज बहुत से लोगों के लिए टीवी उनकी जिन्दगी का वो हिस्सा बन चला है जिसके बगैर उनका मन कहीं लग ही नहीं पाता। दुनिया की बहुत बड़ी आबादी चारदीवारियों में कैद होकर रह गई है जैसे किसी ने नज़रबन्दी की सजा दे दी हो। फिर आ गया कम्प्यूटर, इंटरनेट, गेम्स और ऎसे उपकरण जिनसे आँखें और सेहत दोनों बरबादी के कगार पर आती जा रही हैं। फिर अब सोशल नेटवर्किंग साईट्स का मायाजाल तो ग़ज़ब ही ढाने लगा है। यही कारण है कि जहाँ देखो उधर चश्माधारियों की संख्या बेतहाशा बढ़ती ही चली जा रही है। अब चश्मा हमेशा साथ रहने की मजबूरी हो गई है। एकमात्र चश्मा हमारे पास न हो तो हम पूरी तरह नाकारा हो जाते हैं। हाल के दशकों में मोबाइल के भूत ने आधी से ऊपर जनंसख्या को अपने मोहपाश में जकड़ लिया है। जिन लोगों के लिए मोबाइल अपने काम-धंधे के लिए जरूरी हैं उनके लिए तो ठीक है मगर आजकल हर कोई मोबाइल चाहता है, चाहे उसके लिए कोई उपयोगी हो या न हो। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के लिए मोबाइल स्टेटस सिम्बोल हो गया है। जैसे मोबाइल नहीं तो दुनिया कुछ नहीं। जिन लोगों के पास मोबाइल हैं उनमें अस्सी फीसदी लोग ऎसे हैं जिनका काम मोबाइल के बिना चल जाता है और उनके लिए मोबाइल का होना कोई जरूरी नहीं है। मगर छोटे-छोटे स्कूली बच्चों से लेकर मजदूरों तक के पास मोबाइल हो गया है।
इसके अलावा हर आयु वर्ग के लोगों के लिए ऎसे ढेरों उपकरणों का वजूद है जिनके बगैर आदमी को अपना वजूद खतरे में पड़ा हुआ दिखाई देता है। इन सारे उपकरणों की वजह से मनुष्यों की सेहत पर बुरा असर पड़ने के साथ ही आत्मनिर्भरता और स्व सामथ्र्य का माद्दा खोने लगा है। इन बाहरी संसाधनों की वजह से आदमी श्रम से जी चुराने लगा है और इस कारण उसे कई बीमारियों ने घेर लिया है। अब आदमी को इन उपकरणों के साथ ही अपना शरीर बचाये रखने के लिए कई प्रकार की दवाइयों को रखना भी मजबूरी हो गया है। इन सारे उपकरणों का यदि सदुपयोग हो तो अच्छी बात है लेकिन आम तौर पर इन उपकरणों ने हमारी मनःस्थिति को डांवाडोल कर दिया है और हमारा ध्यान इतना भटका दिया है कि हमें हमारे स्वयं के बारे में, घर-परिवार, स्कूली पढ़ाई या काम-धंधों में बरकत लाने और समाज तथा क्षेत्र के लिए जीने की फुर्सत ही नहीं है पर दिन-रात इन इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में आंखें, कान और दिमाग लगाये रखते हैं। यह इंसान के भटकाव का वह भीषण युग है जहाँ आदमी घनचक्कर होकर भंवर में फंसता जा रहा है। ऎसे में लक्ष्यों की प्राप्ति और जीवन की सफलता के मार्ग पर बड़े-बड़े स्पीड़ब्रेकरों का रंगीन संसार मुँह बांये हमेशा खड़ा रहने लगा है।
आज हालात ये हो गए हैं कि हम इन उपकरणों का उपयोग नहीं कर रहे हैं बल्कि ये उपकरण अब हमारा उपयोग करने लग गए हैं। इन बेजान चीजों से मनुष्य के इस मोह का ही परिणाम है कि हम संवेदनाएं और मानवीयता खोते चले जा रहे हैैं। अपने आपको बचायें, वरना ये संसाधन हमें खा जाने वाले हैं।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com
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