ईश्वर ने इंसान को अपार क्षमताओं और इनके विस्तार की तमाम संभावनाओं के साथ भेजा है जिनका वह ठीक-ठीक उपयोग करते हुए अपने सामथ्र्य को इतना विस्तार दे सकता है कि उनके बलबूते मनुष्य विश्वस्तर पर पहचान बनाने लायक सामथ्र्य पाने का अधिकारी बन सकता है। यह मनुष्य को ही तय करना है कि ईश्वर प्रदत्त खजाने का कितना अधिक से अधिक उपयोग अपने व्यक्तित्व को ऊँचाइयों देने के लिए कर सकता है। इनके उपयोग के लिए नियंता ने मनुष्य को पूरी तरह स्वतंत्र छोड़ रखा है। वह अपने बुद्धि, बल और विवेक के अनुरूप सोचकर इनका इस्तेमाल अपने लिए कर सकता है। कुछ लोग इस खजाने को खोल ही नहीं पाते और ऎसे ही वापस चले जाते हैं। कुछ लोग सुराख कर भीतर सिर्फ झाँक भर लेते हैं और फिर दूसरे-तीसरे चक्करों में भटक जाया करते हैं। कई लोग आधा-अधूरा या चवन्नी भर उपयोग कर पाते हैं और कई बिरले ही ऎसे होते हैं जो पूरे खजाने का उपयोग करते हुए जाने कितने हुनरों में दक्षता का वैश्विक स्तर प्राप्त कर लेते हैं और विश्वस्तर पर पहचान कायम कर जननी, जन्मभूमि और जगदीश्वर सभी को गौरव प्रदान करते हैं।
बहुधा होता यह है कि अपार क्षमताओं और अपरिमित सामथ्र्य होने के बावजूद लोग ज्यादा कुछ कर नहीं पाते। हमारे आस-पास तथा अपने परिक्षेत्र में खूब सारे लोग ऎसे हैं जिनके पास अपार ज्ञानराशि और हुनर है लेकिन इनके बारे में यही कहा जाता है कि मेधावी होने के बावजूद बेचारे जाने किस दुर्भाग्य के आगे नहीं बढ़ पाए और यहीं के यहीं अटक कर रह गए हैं। कई लोग इसके लिए इनके भाग्य को दोष देते हैं, कई लोग इनके लक्षणों या विपन्नता को, और कई सारे लोग अच्छा माहौल नहीं मिलने को दोषी ठहराते हैं। हमारे अपने पूरे क्षेत्र में ऎसे दर्जनों लोग हैं जो इन स्थितियों के मारे हुए हैं। असल में इन प्रतिभाशाली लोगों के पिछड़े रह जाने के मूल कारणों को तलाशा जाए तो इनमें या तो आत्महीनता ही है अथवा स्थान विशेष का मोह। आत्महीनता के लिए व्यक्ति के परिवेश को दोषी ठहराया जा सकता है लेकिन जिन लोगों में स्थान विशेष मोह होता है वे असीमित ऊर्जाओं और सामथ्र्य से भरे पूरे होने के बावजूद अपना विकास नहीं कर पाते हैं और जहाँ एक बार किसी न किसी मोह में फँस जाते हैं उसी क्षेत्र को दुनिया मानकर वहीं रमे रहने को ही जिन्दगी मान बैठते हैं।
बस यहीं से उनका विकास थमने की यात्रा का आरंभ हो जाता है जो इनमें सारी संभावनाओं और क्षमताओं के बावजूद इनकी प्रतिभाओं पर ताला लगा देता है और ये लोग चाहते हुए भी अपनी पहचान के दायरों को उच्चतम स्तर तक पहुंचा नहीं पाते। स्थान विशेष का मोह कई कारणों से हो सकता है। कई बार गृह मोह होता है जबकि बहुधा किसी न किसी आकर्षण के मारे स्थान मोह का सृजन हो जाता है। कुछ लोगों में पैसे कमाने का भूत इतना सवार होता है कि वे जहाँ हैं वहीं उनके साथ ऎसे-ऎसे लोगों का गिरोह जुड़ता चला जाता है जो इन्हीं की तरह हराम की कमाई करते हुए समृद्धि की डगर पा लेना चाहते हैं और बिना पुरुषार्थ किए अकूत धन-दौलत कमाने के पीछे पागलों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। ऎसे में बिना किसी मेहनत के धन की आवक ऎसा मोहपाश है कि लोग अपना स्थान छोड़ना ही नहीं चाहते, वे कुण्डली मारकर जम रहने चाहते हैं और इसके लिए वे किसी भी सीमा तक समर्पण और दण्डवत करने को हमेशा तैयार रहते हैं। ऎसे लोगों की पूरी जिन्दगी ही औरों के सामने सब कुछ खोल कर पसरने और हर तरह का आनंद देने में गुजर जाती है। अपना स्वाभिमान और सर्वस्व बेचकर भी कुछ लोग एक ही स्थान पर जमे रहने के आदी हो गए हैं।
इन लोगों को अपनी प्रतिष्ठा से कहीं ज्यादा दौलत की पड़ी होती है और धन-दौलत या जमीन-जायदाद पाने के लिए इस बिरादरी के लोग कुछ भी कर सकते हैं, किसी भी सीमा तक नीचे गिर सकते हैं। इसके लिए ये किसी न किसी आका का आश्रय पा लेते हैं अथवा ऎसा कोई धंधा अपना लेते हैं जहाँ इन्हें पूछने वाला कोई नहीं होता। ऎसे लोग हर उस आवरण को तलाश कर अपना लेते हैं जो इनके मकसद में सहभागी होता है। फिर आजकल तो कई धंधे ही ऎसे हो गए हैं जिनमें कुछ भी कर गुजरने की स्वच्छन्दता और उन्मुक्तता है और कोई पूछने की हिम्मत भी नहीं कर सकता। ये धंधे दिखते तो पाक हैं मगर हर नापाक हरकतों का दिग्दर्शन होना इनमें आम बात है। कई लोग तो अपने अपराधों और कुकर्मों को छिपाने के लिए ही इन धंधों का सुरक्षा कवच अपना लिया करते हैं। कई लोग किसी के आकर्षण के मारे स्थान विशेष से बँध जाया करते हैं और कुछ लोग जीवन में ठहराव की वजह से स्थान विशेष पर बने रहकर निरापद व संतुष्ट रहना चाहते हैं। लेकिन इतना तो तय है ही कि जो लोग किसी भी कारण से स्थान विशेष पर बने रहने का मोह नहीं त्याग पाते, उनके लिए कई समस्याएं जिन्दगी भर बनी रहती हैं।
प्रकृति का सिद्धान्त है कि जिसे हम ज्यादा चाहने लगते हैं, दूसरे लोग हमें उससे दूर करने के लिए कमर कस कर तैयार हो जाते हैं क्योंकि लोग हमेशा दबाव के सिद्धान्त पर चलते हैं और वे हमारी इस कमजोरी को जानकर जब-तब हमें दबा कर हमारा शोषण करने के सारे उपाय तलाशते रहते हैं। ऎसे में हमारा निरापद और मस्त रहना कभी संभव नहीं हो पाता। इन हालातों में हमें नाजायज संबंधों और समझौतों में अपनी शक्ति लगानी पड़ती है जो किसी भी रूप में हो सकती है। ये सारी स्थितियाँ हमारे विकास को रोकने का काम करती हैं और हम जीवन में अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं कर पाते हैंं। इसलिए जिन लोगों में अपार क्षमताएँ हैं, असीमित सामथ्र्य है, ईश्वरीय एवं अच्छे कर्मों, सेवा व परोपकार से जीवन को ‘सत्यं शिवं सुन्दरं’ बनाना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि वे स्थान विशेष का मोह त्यागकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना को आत्मसात कर लें और ईश्वर के विराट स्वरूप से प्रेरणा प्राप्त कर पूरे विश्व को अपना मानकर हमेशा हर कहीं जाने और काम करने के लिए तैयार रहें ताकि उनकी अप्रतिम एवं विलक्षण मेधा का उपयोग हो सके और वैश्विक पहचान कायम हो सके। महानतम ऊर्जाओं का स्वामी होने के बावजूद स्थान विशेष के मोहपाश में बंधे रहना किसी आत्महत्या से कम नहीं है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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