पथिक को राह दिखाना, भूखे को खाना खिलाना और प्यासे को पानी पिलाना मानव का सर्वोपरि बुनियादी धर्म है। मनुष्य के रूप में भगवान ने हमें धरती पर भेजा ही इसलिए है कि प्राणी मात्र की सेवा के धर्म और फर्ज को निभाएं ताकि मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने का अर्थ पूर्ण और सार्थक हो सके। मनुष्य भले ही आया अकेला होता है लेकिन समाज में रहने तथा सभी का ख्याल रखने के प्रति उत्तरदायी होने की वजह से ही उसे सामाजिक प्राणी की संज्ञा दी गई है। यही नहीं, मानवीय धर्म में अतिथि यज्ञ का भी विधान है जो अन्य यज्ञों और अनुष्ठानों के बराबर ही है और प्रत्येक मनुष्य का फर्ज है कि उसके पास आने वाले किसी भी व्यक्ति की समस्याओं और पीड़ाओं के प्रति संवेदनशील रहे और इनके निराकरण में अपनी ओर से हरसंभव मदद दे। क्षुधा पीड़ित को भोजन, प्यासे को पानी तथा बीमार को चिकित्सा सुविधा से लाभान्वित करना हममें से प्रत्येक का पहला कत्र्तव्य है और इसे पूरा किए बगैर न हमें अपने जीवन में आनंद प्राप्त हो सकता है और न ही ईश्वर की कृपा।
लोकोन्मुखी फर्ज पूरे किए बगैर भजन-कीर्तनों और सत्संग-कथाओं, धार्मिक और आध्यात्मिक साधनाओं, पूजा-पाठ, कर्मकाण्ड और यज्ञानुष्ठान सभी ढोंग से ज्यादा कुछ नहीं हैं। लेकिन इस सत्य को समझना और उस पर चलना हरेक सामान्य व्यक्ति के बस में नहीं है। ईश्वर की पूर्ण अनुकंपा और पूर्व जन्मों के पुण्यों या पुरखों के संस्कारों से ही मनुष्य में यह भावना आ पाती है अन्यथा हम कितनी सारी विस्फोटक भीड़ देख रहे हैं जो रोज पैदा होती है और आसुरी कर्म करते हुए संसार से विदा लेती रहती है। इन्हें न पुण्य से मतलब है, न अपने आस-पास के परिवेश से। संवेदनहीन लोगों की ऎसी भीड़ और इलाकों की ही तरह अपने इलाकों में भी खूब है। सबसे बड़ा पुण्य है जरूरतमन्द को उसकी जरूरतों की पूत्रि्त कर देना। इन दिनों चारों तरफ भीषण गर्मी का माहौल है। पशु-पक्षियों से लेकर मनुष्यों और पेड़-पौधों तक को निरन्तर पानी की आवश्यकता होती है। इस भीषण गर्मी में हमारा सर्वोपरि धर्म है - सभी के लिए पीने के पानी का प्रबन्ध करना। जो लोग पानी के महकमे से संबंधित हैं उन्हें भी चाहिए कि नौकरी के साथ पुण्य कमाएं और इसके लिए अपने हर कर्म में चुस्ती और फुर्ती का परिचय देते हुए जरूरतमन्दों तक पानी पहुंचाने में अपनी भागीदारी को और अधिक विस्तार दें। इन लोगों को गंभीरता से यह सोचना चाहिए कि नौकरी के साथ पुण्य कमाने का यह मौका बार-बार नहीं आने वाला है। यह हमारे किसी पुराने पुण्य से ही प्राप्त हो पाया है। इस एक मात्र विचार को ये लोग आत्मसात कर लें तो अपने क्षेत्र और लोगों का तो भला होगा कि, इन लोगों को भी अपना बिना कुछ खर्च किए सरकारी खर्च पर पुण्य की प्राप्ति होगी।
आज के समय सबसे ज्यादा आवश्यकता पीने के पानी का प्रबन्ध करने की है। इसके लिए मोहल्ला, सर्कल, गांव, शहर, कस्बों और सभी स्थानों पर आम लोगों व राहगीरों के लिए पीने के पानी की व्यवस्था जरूरी है। जो लोग मन्दिरों, यज्ञानुष्ठानों, बाबाओं, भिखारियों, कई सारे धंधों को लेकर पसरे हुए धन-दौलत के लोभियों और दूसरे कामों में धन लगाते या देते हैं उन सभी को समझ लेना चाहिए कि हमारे अपने क्षेत्र में एक भी व्यक्ति की प्यास बुझाने में अगर हम नाकारा हैं अथवा कोई प्यासा व्यक्ति हमारे क्षेत्र में आकर बिना प्यास बुझाये निराश लौट जाए तो हमारे सारे धर्म-कर्म व्यर्थ हैं और उनका कोई पुण्य हमें प्राप्त नहीं हो पाएगा। किसी को भी प्यासा देखकर हम चुपचाप बैठे रहें तो हमारे ग्रह-नक्षत्र भी विपरीत फल देने लगते हैं और हमारे निकम्मेपन और संवेदनहीनता पर पितर नाराज होते हैं वो अलग। मानवीय मूल्यों की दुर्गति का आलम यह हो गया है कि पूरे देश में गांव-ढांणियों से लेकर महानगरों तक में प्यास बुझाने के लिए पैसे देने पड़ते हैं। यह कोई मामूली विषय न होकर गंभीर चिंतन का विषय है। तभी हमारे लिए कहा गया है - हम कौन थे क्या हो गए, और क्या होंगे अभी...।
मानव जाति का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा ? जो लोग धर्म, सेवा और विकास के नाम पर अपनी दुनियादारी चलाते हैं उनके लिए भी, और जो लोग सत्संग, कथाओं और रचनात्मक आयोजनों के नाम पर संस्थाएं चलाते हैं उन लोगों के लिए भी यह स्थिति शर्मनाक है। मानव जीवन की बुनियाद पानी की ही जब हम सेवा नहीं कर पाएं तो हमारे धर्म-कर्म और सेवा-परोपकार की सारी बातें बेमानी हैं। जीवन के लिए मूलभूत पानी की व्यवस्था के प्रति कतराते रहें और फिजूल के धंधों में रमे रहें, यह कहाँ का न्याय है? पूरी मानवजाति के लिए यह सबसे बड़ा कलंक ही है कि प्यासे को पानी पिलाने के लिए हमारे पास न वक्त है, न सेवा का ज़ज़्बा। हालांकि इस अंधेरे परिवेश में कुछ लोग जरूर हैं जिन पर मानवता टिकी हुई है। ये लोग सच्चे मन से पक्षियों के परिण्डे बँधवाते हैं, पशुओं के लिए पानी का प्रबन्ध करते हैं और इंसानों के लिए जगह-जगह प्याऊ खुलवाते हैं।
इन सभी परोपकारी लोगों को सलाम करने को जी चाहता है। दूसरी ओर उन इलाके के लोगों और संस्थाओं, एनजीओ, धर्म-अध्यात्म और समाज सेवा के नाम पर चाँदी कूट रहे लोगों को धिक्कार भी है जिनके वहाँ भीषण गर्मी में झुलसते हुए प्राणियों के लिए निःशुल्क पानी का प्रबन्ध तक नहीं है और लोगों को पानी तक के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है अथवा पैसा देना पड़ता है। हम सभी का आज के समय में यह सबसे बड़ा कत्र्तव्य है कि अपने-अपने क्षेत्रों में पशु-पक्षियों और मनुष्यों के लिए प्यास बुझाने के प्रबन्ध करें और यह कार्य किसी व्यवसायिक मनोवृत्ति या छपास की भूख से हटकर निष्काम सेवा से भरा होना चाहिए, तभी हमारा जीना सार्थक है वरना मुर्दे भी संवेदनहीन तो होते ही हैं।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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