बिहार के मुजफ्फरपुर में 20 साल से इंसेफलाइटिस जैसी अज्ञात बीमारी का कहर बरप रहा है. इस बीमारी की मूल जड़ क्या है यह अभी तक रहस्य बना हुआ है. ये बीमारी महामारी का रुप ले चुकी है लेकिन बिहार के स्वास्थ्य मंत्री केवल बातें बनाते दिख रहे हैं. साल 1996 से ये बीमारी एक रहस्य बनी हुई है.
दिल्ली और पुणे से टीमें आती हैं, जांच करती हैं लेकिन बीमारी लाइलाज बनी रह जाती हैं. इस बीमारी से लगातार हर साल मौत हो रही है और जो इससे जंग जीत भी रहे हैं वो पीड़ित विकलांग हो रहा हैं. अब तो हाल ये है कि डॉक्टर भी इसके आगे सरेंडर कर बैठे हैं. साल 2013 में भी गर्मी आते ही अब तक दो बच्चों की जान जा चुकी है.
27 मई 2012 को भी इस अज्ञात बीमारी ने दस्तक दी और इस दिन केजरीवाल अस्पताल में एक बच्चे की मौत हो गयी और फिर आकड़े बढ़ते गये और 195 तक पुहंच गए. इस बीच केन्द्र से टीम आयी, सैम्पल लेकर गयी पर उसका परिणाम नहीं दे सकी. 1996 से जो जांच का सिलसिला चला था वैसे ही इस साल भी गुजर गया. मानसून ने दस्तक दी और कहर थमने लगा.
2012 में इस अज्ञात बीमारी का नाम स्वास्थ्य विभाग ने एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम दिया और इलाज का ताबड़तोड़ दावा भी किया पर अंकुश नहीं लग सका. इस बीमारी से बचे बच्चों पर अपाहिज होने का असर पड़ा. जिसे डॉक्टर भी समझ नहीं पाये. इस दौरान अज्ञात बीमारी से करीब 42 बच्चे लामा में चले गये जिनका कोई पता नहीं चल सका. लामा का मतलब होता है लेफट अगेंस्ट मेडिकल एडवाइज यानी बिना मेडिकल सलाह के ही ये बच्चे यहां से चले गये.
आकड़ों पर गौर करें तो 2010 में 53, 2011 में 80 और 2012 में 195 बच्चें इस रोग के भेंट चढ़ गये. 2012 में यह भी घोषणा हुई थी कि आशा, एएनएम और आंगनवाडी सेविकायें गांव-गांव में जागरूकता अभियान चलायेगी. सदर अस्पताल और एसकेएमसीएच में कंट्रोल रूम की व्यवस्था होगी. यह सब घोषणा फाइलों में ही दबी रही.
पिछले 20 साल से यह बीमारी रहस्यमय बनी रही और अपना शिकार अप्रैल से जून तक बच्चों को बनाती रही.
गर्मी के आगाज के साथ ही ये बीमारी बढ़ने लगती है. गर्मियों की शुरुआत होते ही इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम अपने पैर पसारने लगता है. इस सिंड्रोम ने पिछले साल राज्य में 300 से ज्यादा बच्चों को मौत के घाट उतार दिया. ये बीमारी अज्ञात है इस कारण न इसकी दवा है और न ही इसका कोई वैक्सीन अब तक है.
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