दुनिया में जो आया है उसका कोई न कोई मित्र व शत्रु जरूर होता है चाहे वे तत्व हों, गुणावगुण हों अथवा पशु-पक्षी या मनुष्य, अथवा सृष्टि के कोई से कारक। परस्पर विरोधी स्वभाव और विरोध हर तत्व में स्वाभाविक रूप से विद्यमान है। इसी प्रकार इंसान भी दुनिया की ऎसी महत्त्वपूर्ण विरासत है जो सदियों से दुनिया की छाती पर किसी न किसी से रूप में छायी हुई है। मनुष्य के रूप में स्थानीय स्तर से लेकर विश्व के कोने-कोने और पृथ्वी के क्षितिज तक अरबों की जनसंख्या विद्यमान है जो मनुष्यत्व को धन्य कर रही है। हमारे अपने इलाके से लेकर क्षेत्र भर तथा देश के हर इलाके में मनुष्यों की किसम-किसम की भारी भीड़ पसरी हुई है। मानवी संस्कृति का यह ज्वार इतना उमड़-घुमड़ रहा है कि असंख्यों प्रकार की प्रवृत्तियां हर क्षेत्र में दिन-रात कुछ न कुछ पाने और आगे बढ़ने के फेर में अपने पुरुषार्थों में जुटी हुई हैं।
कुछ के लिए इंसानियत और आदर्शों को तिलांजलि देकर सारे संसाधनों और क्षेत्रों पर कब्जा जमा लेना ही जीवन का चरम लक्ष्य होकर रह गया है जबकि दूसरी ओर बहुत कम लोग ऎसे बचे हैं जिनके लिए परंपरागत मूल्यों पर चलते हुए जमाने के लिए काम करने और सेवा तथा परोपकार को अपनाते हुए प्रसन्नता व सुकून की नदियाँ बहाना सर्वोपरि कत्र्तव्य कर्म है। मनुष्यों की इन तमाम प्रकार की प्रजातियों में एक बात स्पष्ट तौर पर उभर कर सामने आती है और वह यह है कि मनुष्यों की विस्फोटक जनसंख्या में शत्रुओं की संख्या भी कोई कम नहीं है। कोई देश का शत्रु है, कोई मानवता और समाज का शत्रु है, कोई कुर्सी-टेबलों का शत्रु है तो कई सारे शत्रु किसी न किसी स्वार्थ पूत्रि्त में बाधा आ जाने पर अपने आप हो जाते हैं। अपने स्वार्थो और ऎषणाओं के पूरा नहीं हो पाने, अपने मनचाहे काम न हो पाने अथवा अनचाहे काम हो जाने से परेशान लोग किसी न किसी के शत्रु हो जाते हैं।
शत्रुओं की भीड़ को दो प्रकार में विभक्त किया जा सकता है। एक वे हैं जो किसी न किसी कारण से शत्रुओं जैसा व्यवहार करते हैं, दूसरे वे हैं जो बिना किसी कारण के शत्रुता रखने के आदी होते हैं। पहली किस्म के शत्रुओं के लिए कहा जा सकता है कि वे अपने अस्तित्व की रक्षा अथवा स्वार्थों के अंधे महासागर में विचरण करते हुए ऎसा करते हैं और उनकी शत्रुता जायज या नाजायज हो सकती है लेकिन उन लोगों के बारे में क्या कहा जाए तो बिना किसी वाजिब कारण के शत्रुता रखने लगते हैं। इनमें कई लोग तो ऎसे होते हैं जिनसे हमारा दूर-दूर तक न कोई लेना- देना होता है और न ही कोई संपर्क, इसके बावजूद ये लोग हमसे बेवजह शत्रुता रखते हैं और हमारे जीवन भर में किसी न किसी प्रकार से परेशानियों का सबब बनते रहते हैं। जो लोग किसी कारण से शत्रुता रखते हैं उन्हें एक सीमा तक समझाने की कोशिश करें और जो बिना किसी कारण के शत्रुता का भाव रखते हैं उनके प्रति हमेशा बेफिकर रहें। अपना शत्रु किसी को न मानें।
शत्रुओं के बारे चिंतन करने की भूल कभी न करें बल्कि अपने कर्मों को निरन्तर जारी रखें क्योंकि नकारात्मक प्रवृत्तियाँ और आसुरी भावों से ग्रस्त किसी एक से बचेंगे, तो दूसरे हमारे सामने धमक ही जाएंगे। आजकल समाज में ज्यादातर लोगों के पास कोई काम नहीं है। इन निठल्ले लोगों के लिए उनकी पूरी जिन्दगी खाली दिमाग शैतान का घर होता है और जहाँ शैतान होगा वहाँ खुराफातें अपने आप पैदा होती रहेंगी। ऎसे नाकारा और नुगरों के बारे में किसी भी प्रकार का चिंतन कभी न करें बल्कि उपेक्षित कर रखें। कई लोग अपने पूर्वजन्म के शत्रु होते हैं और उनकी गति-मुक्ति अपने से ही होने वाली होती है इसलिए वे हमारे लाख बार न चाहते हुए भी हमारे संपर्क में आकर बेवजह भिड़ते रहते हैं। ऎसे में भी उन्हें उपेक्षित करें वरना इनकी पहचान भी हमारे नाम और कामों से होने लगती है और बेवजह इन मूर्खों और विक्षिप्तों को प्रतिष्ठा मिलती है। जैसे कई देवी-देवताओं के नाम के साथ उनके शत्रु भी अमर हो गए हैं और इनके साथ उनकी भी मूत्रि्तयां प्रतिष्ठित होने लगी हैं। जैसे महिषासुरमर्दिनी, चण्डमुण्ड विनाशिनी आदि आदि।
कुछ लोग अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए यशस्वी और कर्मयोगियों तथा दैवपरुषों से बिना किसी कारण से शत्रुता पाल लेते हैं। इस स्थिति को हमें अच्छी तरह समझने की आवश्यकता है और यह भी प्रण लेने की जरूरत है कि ऎसे नालायकों और हमारी वजह से प्रतिष्ठा पाने को तरस रहे ऎसे लोगों के प्रति कभी न शत्रुता रखें और न ही किसी भी प्रकार की हमदर्दी रखें। इन वज्र मूर्खों और नकारात्मक लोगों का चिंतन ही हमारे विषय में कभी नहीं होना चाहिए। शत्रुओं का चिंतन कर तथा उन्हें अपने साथ जोड़कर उन्हें अमर करने की भूल कभी न करें।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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