वाणी अपने आप में किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का आरंभिक पैमाना होती है। यदि थोड़ा सा भी मनोविज्ञान और बॉड़ी लैंग्वेज समझने का सामर्थ्य हो तो सिर्फ वाणी के माध्यम से किसी भी आदमी के मन के भावों, शारीरिक स्थितियों, मनःस्थिति, इंसानियत की गहनता और कार्यशैली आदि के बारे में जाना जा सकता है। वाणी के माध्यम से ही व्यक्ति के भीतर आत्मविश्वास की स्थिति, सरल सहज स्वभाव और उसके लक्ष्यों तथा रहस्यों की थाह पायी जा सकती है। आत्मविश्वास इन सभी में सर्वोपरि कारक है। यह जितना अधिक होगा उतना व्यक्तित्व के दूसरे गुणों का विकास एवं विस्तार होता चला जाएगा। लेकिन इस आत्मविश्वास की प्राप्ति के लिए सर्वोत्तम एवं उच्चस्तरीय ज्ञान या हुनर, किसी न किसी प्रकार का बाहरी पॉवर, भीतरी आध्यात्मिक शक्ति, जीवन सुुरक्षा प्रबन्धों की सुनिश्चितता अथवा समृद्धि या ऐसे कारकों की मौजूदगी होनी जरूरी है जिनके बूते किसी भी आदमी की जिन्दगी आसानी से कट जाए। या फिर किसी बड़े आदमी का वरदहस्त या अभयदान अथवा ईश्वरीय अनुकंपा का होना नितान्त जरूरी है। लेकिन आत्मविश्वास का ग्राफ हर आदमी में अलग-अलग पैमाने का होता है। किसी में कम और किसी में अधिक। यह जरूरी नहीं कि छोटे आदमी में कम हो या बड़े कहे जाने वाले लोगों में चरम आत्मविश्वास हो।
आत्मविश्वास हमारे मन की कल्पनाओं, जीवन के लक्ष्यों व साधनों-संसाधनों, जीवन विकास के मार्गांें आदि कई पहलुओं पर निर्भर करता है। कई मामूली लोगों का आत्मविश्वास देखने लायक होता है। दूसरी अवस्थाओं में बड़े कहे जाने वाले आकाओं, हुक्मरानों, हूजूरों, साहबों और अनाप-शनाप सम्पत्ति एवं भोग-विलास में डूबे हुए लोगों का आत्मविश्वास भी कम हो सकता है और कई बार तो जवाब तक दे जाता है। आत्मविश्वास मौलिक एवं जन्मजात प्रतिभा से जुड़ा है जो अनुकूल माहौल पाकर पल्लवित एवं पुष्पित होता है अथवा किसी बाहरी उत्प्रेरक से इसका बहुगुणन हो जाता है। बहरहाल जो भी हो, आत्मविश्वास व्यक्ति की जिन्दगी का वह कारक है जो मृत्यु पर्यन्त कई सारे कर्मों में असर दिखाता है और इसका सकारात्मक ऊर्जा प्रभाव जीवन निर्माण को तीव्रता देता है जबकि न्यून होने पर जीवन कई समस्याओं, बाधाओं और एकतरफा सोच से घिरने लगता है। आत्मविश्वास का न्यूनाधिक होना प्रत्येक व्यक्ति की वाणी और उसके द्वारा उच्चारित शब्दों के प्रवाह, घनत्व तथा प्रभावोत्पादकता से अच्छी तरह जाना जा सकता है।
आत्मविश्वासी लोगों द्वारा सामान्य बोलचाल से लेकर भाषणों तक में प्रायःतर शब्दों का पुनरावृत्ति दोष बहुत कम देखने को मिलता है। जो लोग बोलते या प्रवचन, भाषण करते समय हृदय की भाषा को अभिव्यक्त करते हैं उनमें मस्तिष्क या विवेक की मिलावट नहीं होती, ये वाक्य पूरी तरह शुद्ध होते हैं और अपनी पूरी प्रभावोत्पादकता कई दिनों एवं माहों तक दिखाने का सामर्थ्य रखते हैं। दूसरी किस्म के लोग प्रोफेशनल कथाकार, भाषणबाज आदि होते हैं जो एक ही शब्द के पर्यायवाचियों का बार-बार प्रयोग करते रहते हुए अपनी विद्वत्ता झाड़ते हैं जबकि यह काम तो हिन्दी भाषा का जानकार एक सामान्य विद्यार्थी भी आसानी से कर सकता है। यही स्थिति भाषणबाजों की होती है जो रोजाना हजारों वाक्यों और लाखों शब्दों की बारिश करते रहते हैं लेकिन यह घास काटने जैसा ही है क्योंकि इनके शब्द प्राणहीन होते हैं और सिर्फ सामने वालों को भरमा कर अपना बनाने के लिए होते हैं इसलिए इनका लक्ष्य शुचितापूर्ण नहीं होता। यही कारण है कि भाषणबाजों की वाणी का कोई ख़ास प्रभाव लोगों पर नहीं पड़ता। भीड़ को देखकर भाषणबाज भले ही इस भ्रम में रहे कि उनकी वाणी का जादू रंग जमा रहा है।
वाणी की अभिव्यक्ति वाली एक तीसरी किस्म उन लोगों की है जिनके भाषणों, सामान्य बोलचाल और संवादों में बहुत बार कोई एक न एक शब्द या वाक्य दोहराया जाता है। इस दोहराव वाले शब्दों और वाक्यों को तकिया कलाम की श्रेणी दी गई है। हम हों, हमारे आस-पास के लोग हों या हमारे संपर्क में आते रहे लोग, या फिर किसी भी विषय के विशेषज्ञ, जानकार और सिद्ध वक्ता, भाषणों में माहिर अथवा वाक्पटु हों, इनकी अभिव्यक्ति में कई-कई बार तकिया कलाम प्रयुक्त होते रहते हैं। हर किसी आदमी द्वारा की जाने वाली अभिव्यक्ति में दो-चार तकिया कलाम ऐसे होते ही हैं जो जिन्दगी भर उनका साथ नहीं छोड़ते। अक्सर ऐसा होता है कि लोग ऐसे तकिया कलाम पसंद लोगों को उनके तकिया कलाम के नाम से ही जानने और प्रचारित करते लग जाते हैं। कई बार हम देखते हैं कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक में तकिया कलाम प्रसिद्ध हो जाते हैं। ये तकिया कलाम भले ही हमारे लिए बोलने में सहज और सामान्य बात हो लेकिन इससे हमारी वाणीकी अभिव्यक्ति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। तकिया कलामों का प्रयोग हमारे व्यक्तित्व की वो कमजोरी है जिसे यदि गंभीरता से नहीं लिया जाए तो जिन्दगी भर के लिए इनका साथ छूट पाना मुश्किल हो जाता है और ये मरते दम तक जुबाँ पर चढ़े हुए रह-रहकर बेमौके नृत्य करने लगते हैं। जो जितना ज्यादा ज्ञानहीन, कर्महीन और आत्मविश्वासहीन होता है उतने अधिक बार तकिया कलामों का प्रयोग करता है। कई लोग ऐसे होते हैं जो वाक्य पूरा होते ही तकिया कलाम उगल देते है। जैसे ओके, ठीक है, अच्छा, और कुछ, दूसरा, हाँ, है न, नहीं , नहीं न, बोल, क्या समझा, ये बात, समझे कि नहीं, भले, क्या मतलब, कहने का मतलब, बाय द वे, सर-सर, हाँ जी, सही है, मैंने कहा, जो है, सो तो है, खरी, हैं, हूँ, बोलो, क्या बोलते हो, सही में, हैं के, वा.. आदि आदि।
ऐसे खूब सारे शब्द हैं जिनका इस्तेमाल लोगों की अभिव्यक्ति में बेवजह होने लगता है। लगातार बोलते हुए रुक जाना और हँ...हँ..... करना या आगामी शब्दों को खोजने की तलाश में फालतू की आवाज निकालते रहना भी आत्मविश्वास में कमी दर्शाता है। ऐसा बहुधा टीवी खबरों मंे देखा जा सकता है जब किसी घटना-दुर्घटना का लाईव टेलीकास्ट हो रहा हो। जिन लोगों की वाणी में यह दोष मौजूद हो उन्हें आत्मविश्वास में कमी आने के कारणों को तलाश कर उन कमियों को दूर करना चाहिए। इससे जैसे ही उनका आत्मविश्वास पुनः संतुलन प्राप्त कर लेगा, उनकी वाणी का यह दोष भी खत्म होने लगेगा। तकिया कलामों के इस्तेमाल की स्थिति समाप्त करने के प्रति हमें गंभीरता से सोचना चाहिए ताकि हमारी वाणी अभिव्यक्ति का उच्चतम स्तर, माधुर्य, गुणवत्ता आदि के साथ कर्णप्रियता का आदर्श पा सके।
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