उत्तराखंड : आपदा के बाद सरकार तय करे राहत के मायने - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 27 जुलाई 2013

उत्तराखंड : आपदा के बाद सरकार तय करे राहत के मायने

Uttrakhand villegers fear
उत्तराखंड में आई सदी की सबसे बड़ी त्रासदी से उबरने में कई बरस लग जाएंगे। इंसानी जि़दगी के नुकसान का अभी तक सटीक आंकलन नहीं हो पाया है, ऐसे में आर्थिक क्षति का अंदाज़ा लगाना और भी मुश्किल है। विडंबना यह है कि कुदरत के क़हर से निजात पाने की कोशिश में लगे उत्तराखंड के लोग अब राजनीतिक बयानबाजि़यों और हथकंडों का शिकार हो रहे हैं। नेशनल डिजास्टर मैनेजमैण्ट आॅथयोरिटी को सेना के हवाले कर दिया जाए। उत्तराखंड के आपदाग्रस्त गाँवों को कहीं अन्य सुरक्षित स्थान पर बसाया जाये। जमीन का मुआवजा 250 रूपया प्रति नाली से अधिक किया जाये। आपदा राहत के मानकों पर पुनर्विचार किया जाये, आदि बहुत से प्रश्न और मांगें हैं जिसका सरकार को जवाब देना है। देखा जाए तो इस आपदा में सबसे अधिक स्थानीय लोग ही प्रभावित हुए हैं। सरकारी आंकड़ों से स्थानीय लोगों की व्यथा को नहीं समझा जा सकता है। केदार घाटी के आस पास करीब 200 गाँव तो पूर्ण रूप से तबाह हो चुके हैं। कई गाँवों की हालत रहने लायक नहीं है। घरों में दरारें आ चुकी हैं और दीवारें लगभग टूट चुकी हैं। जो मकान बचे हैं उनके आस-पास लगातार जमीन खिसक रही हैं। यानी परिस्थितीयाँ कभी भी बिगड़ सकती हैं। मौसम विभाग ने फिर से भारी वर्षा का एलर्ट जारी किया है। ऐसे में आपदा प्रबंधन का कार्य तीव्र गति से होना चाहिए।

इस समय सबसे बड़ा कदम यह हो कि बाहरी राज्यों से आ रही मदद को बिना राजनीतिक बैरियर के स्वीकार करना चाहिए। लेकिन राज्य सरकार की मंशा इसमें कुछ साफ नजर नहीं आ रही है। इसके पीछे कई कारण भी हो सकते हैं। कुछ तो सरकार को डर है कि कहीं आपदा प्रबंधन में होने वाली कोताही की असलियत जाहिर न हो जाये। सूत्रों के अनुसार अपनी नाकामी को छुपाने के लिए मीडिया को भी मैनेज करने का प्रयास किया गया। उत्तराखंड सरकार के अन्दर ही समन्वय की घोर कमी दिख रही है। एक ओर सरकार के मुखिया लापता लोगों की संख्या 3 हजार बताते हैं तो वहीं विधानसभा अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल 10 हजार से भी अधिक मौतों का आंकड़ा बता रहे हैं। सबसे पहले राज्य सरकार को प्रभावित गाँवों का इस दृष्टिकोण से सर्वेक्षण करना चाहिए कि इन्हें दुबारा से यहीं बसाया जाये या फिर पुनर्वास की जरूरत है, क्यांेकी बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुके पहाड़ों में कई गाँव तो रहने के काबिल बचे ही नहीं। जोशीमठ के पास चाय गाँव हो या पिथौरागढ़ जिले का क्वीरी झामीयाँ का क्षेत्र। ऐसे कई गाँव हैं जो अभी भी मौत के मुहाने पर खड़े हैं। लेकिन सरकार की मंशा से ऐसा लगता है कि हमेशा कि तरह कुछ कम्बल और राशन आदि देकर इतिश्री करने का मन बना चुकी है। जबकि साल 2013-14 के लिए 7035 करोड़ मे से 135 करोड़ उत्तराखंड आपदा राहत कोष के लिए है। जो गोवा और उत्तर पूर्वी राज्यों के बजट से भी अधिक है।

यूँ तो सारे पहाड़ में और जहाँ-जहाँ बड़ी पनविद्युत परियोजनाएँ और सुरंगे बनी वहाँ-वहाँ भयानक तबाही देखने को मिली है। श्रीनगर बाँध के बनने से 4 लाख घन मीटर गाद नदी में जमा हुई जिससे नदी का स्तर बढ़ा और पानी बर्बादी का सैलाब लेकर बस्ती में प्रवेश कर गया। सामान्य तौर पर नदी का पानी पुल के उपर नहीं आता लेकिन इस बार की आपदा में 150 पुल नदी के सैलाब में समा गये। नुकसान का अंदाजा लगाने से बेहतर होता कि सरकार युद्ध स्तर पर पुनर्वास की कार्यवाही करती। ‘देर आये पर दुरस्त आये‘ कि तर्ज पर राज्य सरकार ने नदियों के किनारंे निर्माण कार्य पर पूर्ण प्रतिबंध लगा सराहनीय कार्य किया है। काश कि ऐसा कदम एक दशक पूर्व किया होता, तो गोविन्द घाट, गौरी कुण्ड, उत्तरकाशी, सोन प्रयाग और श्रीनगर में इतनी भारी तबाही नहीं होती। साल भर पहले विकास के नाम पर खडि़या माइनिंग और बिजली परियोजनाओं को बढ़ावा देने के सरकार के फैसले से आज साबित हो गया कि आपदा के लिए खनन और पहाड़ों में किया गया दखल भी प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। इतना होने के बाद भी इस बात की कोई गांरटी नहीं कि सरकारें विकास के नाम पर हिमालयी जोन की जमीनों का अंधाधुंध दोहन नहीं करेंगी।

कहना गलत नहीं होगा कि जब सरकार जानती है कि यह क्षेत्र प्राकृतिक आपदा के निशाने पर है तो पहले से कुछ तैयारियां कर ली जाती हैं? 2007 के बाद लगातार हर साल का मानसून जान-माल की भारी क्षति कर रहा है। इसके बावजूद सरकारी प्रयासों का सुस्त रवैया गंभीर चिंता का प्रश्न है। मीलों दुर्गम रास्ते तय कर लोग सिर्फ इस उम्मीद के साथ वोट देने जाते हैं कि आने वाली सरकार हमारे जीवन स्तर को सुधारने और क्षेत्र के विकास के लिए कुछ करेगी। लेकिन बदले में दुख की इस घड़ी में आपदा राहत के नाम पर उन्हें मिल क्या रहा है? एक कम्बल, 2 किलो राशन, दो एमएल तेल, और राशन की थैलियों में आलाकमान के मुस्कुराते हुए फोटो। सरकार ने फौरी राहत के नाम पर मुआवजा का एलान तो कर दिया है लेकिन वास्तविक हकदार तक कैसे पहुंचेगा इसकी गारंटी किसी के पास नहीं हैं।

केदार घाटी के स्थानीय निवासियों की रोजी रोटी का सबसे बड़ा माध्यम खच्चर है। अनुमान के मुताबिक इस आपदा में करीब दो हजार खच्चर मलबे में दब गये। सरकार प्रति खच्चर कितना मुआवजा दे रही है, इसकी घोषणा अभी तक नहीं की गई है। जो लोग जिन्दा हैं और नये सिरे से अपना जीवन शुरू करने वाले हैं क्या सरकारी राहत उनके लिए काफी है क्योंकी आपदा यूं ही नहीं आती उसको आमंत्रित किया जाता है। विकास के डरावने माॅडल को तो सरकारी नीतियों ने ही पास किया था। तो अब ठीक-ठाक मुआवजा देने में सरकार क्यों पीछे हो रही है। यदि किसी स्वतंत्र एजेंसी से सर्वे करया जाये तो वास्तविक स्थिती का उचित आंकलन संभव हो सकता है। इस बात की अधिक संभावना है कि लाखों घरों की स्थिति खराब हो चुकी है। लोग ब्लाॅक मुख्यालयों में चक्कर लगाने लगे हैं। आवेदन देकर धवस्त होने की कगार पर खड़े मकान के सुरक्षा की गुहार लगाई जा रही है। लेकिन सरकारी नियम है कि जब तक मकान पूर्ण रूप से ध्वस्त नहीं हो जाता आपको मुआवजा नहीं मिलेगा। इस तरह के नियमों को भी ठीक से जाॅचना होगा। आपदा राहत कार्य के कई उदाहरण अन्य राज्यों में मौजूद हैं उत्तराखंड सरकार को उनसे भी कुछ सीखने की जरूरत है। 



विपिन जोशी
(चरखा फीचर्स)

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