गांव -देहात की शादियां देखने का जिनका अनुभव है, वे भलींभांति जानते हैं कि ऐसे मौकों पर घरातियों की जान सांसत में अटकी रहती है, जबिक चुनिंदा नाते -रिश्तेदार चुपचाप अपना कर्तव्य निभाने में लगे रहते हैं। वहीं कुछ तथाकथित शुभचिंतक ऐसे भी होते हैं, जो मदद के नाम पर सिर्फ भौकाल भरने में लगे रहते हैं। ऐसे नहीं वैसे , दाएं नहीं बाएं , पांच नहीं सात जैसे जुमलों से माहौल ऐसा बनाते हैं कि व्यवस्था का सारा दारोमदार वे ही संभाले हुए हैं। लेकिन असल में ऐसे लोग घरातियों के लिए सिरदर्द ही होते हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति इन दिनों हमारे देश की भी है। मसलन आर्थिक हो या सामाजिक या फिर सुरक्षा, हर मोर्चे पर देश चुनौतियां से घिरा है। लेकिन कुछ लोग हैं, जो असल मुददे से देश का ध्यान बंटाने के लिए व्यर्थ के मसलों पर हायतौबा मचाते रहते हैं। ऐसे ही मुद्दों में शामिल है कथित सांप्रदायकिता या धर्म निरपेक्षता का मुद्दा।
भूख -महंगाई , भ्रष्टाचार, मुद्रा स्फीति, बेरोजगारी, देश की आंतरिक व बाहरी सुरक्षा का मसला व नक्सलवाद जैसे सारे अति गंभीर मसले एक तरफ तो सांप्रदायिकता व धर्म -निरपेक्षकता का सवाल दूसरी तरफ। इसी कड़ी में फैशन बनता जा रहा है मोदी विरोध। प्रगतिशील बनना है, तो सारे काम छोड़ कर मोदी को कोसिए। बस इसी एक जादू की छड़ी से आपका नाम देखते ही देखते प्रगतिशील व बुद्दिजीवियों की जमात में शामिल हो जाएगा। गुजरात के विकास के आधार पर या जनमत के अनुरूप यदि आपने भूल कर भी मोदी की तारीफ कर दी, तो चट आप पर सांप्रदायिकता का लेबल लग जाएगा। सवाल उठता है कि क्या मोदी सचमुच कोई हौव्वा है, जिसे लेकर देश -विदेश में इतना बावेला मचा हुआ है। सबसे बड़ी बात यह है कि मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने का फैसला यदि भारतीय जनता पार्टी ने किया है, तो संविधान प्रदत्त अधिकार के तहत यह उसका स्वाभाविक अधिकार है। कांग्रेसी यदि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की मांग कर सकते हैं, तो भाजपा वाले नरेन्द्र मोदी को क्यों नहीं।
क्या इस लिए कि 2002 में गुजरात में दंगे हुए थे। तो क्या दंगे दूसरे राज्यों में नहीं हुए। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जितनी मौतें गुजरात दंगे में हुई , उससे कहीं अधिक लोग कुछ राज्यों में माओवादी व राजनैतिक हिंसा में मारे गए, तो क्या उन राज्यों को मुख्यमंत्रियों को भी अछूत समझा जाए। गुजरात दंगों के लिए जब मोदी के खिलाफ कोई आरोप प्रमाणित नहीं हो सका, तो उन्हें अछूत क्यों समझा जाए। इस आधार पर तो संसद के लगभग सौ सांसद ऐसे होंगे, जिन पर कोई न कोई आरोप लगा है। तो विरोध सिर्फ मोदी का क्यों हो रहा है। महत्वपूर्ण यह भी है कि देश की जनता यदि सुशासन व विकास के लिए मोदी या नीतीश जैसे नेताओं की ओर आशा भरी नजरों से देख रही है, तो सिर्फ इसलिए कि इन्होंने अपने राज्यों में कुछ करके दिखाया है। उम्मीद है कि प्रधानमंत्री बनने पर ये देश को भी संकट से उबारने में सक्षम हैं। इसलिए नहीं कि जनमत का एक बड़ा हिस्सा सांप्रदायिकता की चपेट में आ चुका है।
तारकेश कुमार ओझा
लेखक दैनिक जागरण से जुड़े हैं।
खड़गपुर ( प शिचम बंगाल)
संपर्कः 09434453934
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