वर्तमान युग की समस्याओं को देखा जाए तो यह तथ्य सामने आता है कि योग्यता और पात्रता की बजाय स्वार्थों और ऎषणाओं की पूत्रि्त सारे संबंधों पर भारी है और ऎसे में पात्रता की बजाय संबंधों और स्वार्थों पर आधारित संसाधन और ज्ञान का प्रवाह हो रहा है। इस प्रवाह का परिणाम यह हो रहा है कि समाज-जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में परफेक्शन की बजाय कामचलाऊ काम-धाम ही हो पा रहे हैं। हमारे चारों तरफ आज खूब सारे लोग ऎसे हैं जिन्हें देखकर लगता है कि ऎसे संस्कारहीन लोगों को बेवजह ज्ञान दिया गया है अथवा आधे-अधूरे ज्ञान से नवाजा गया है अथवा ये लोग ज्ञान पाने के पात्र नहीं थे।
प्राचीनकाल में हर व्यक्ति की पात्रता को पहले परखा जाता था और उसे कठोर परीक्षाओं में से गुजरना पड़ता था और परीक्षा की तमाम कसौटियों पर खरा उतरने के बाद ही शिष्यत्व प्रदान किया जाता था। त्याग और तपस्या, ईमानदारी और कत्र्तव्यनिष्ठा, सेवा और परोपकार से लेकर मानवीय जीवन यात्रा से जुड़े हुए प्रत्येक पहलू के प्रति संवेदनशीलता, करुणा, औदार्य और समाजोन्मुखी वृत्तियों के प्रति पूरा ध्यान रखा जाता था। लेकिन आज न गुरुओं और बाबाओं को कुछ पड़ी है, न भक्तों और शिष्यों। सरकारी शिक्षकों के भीतर से गुरुत्व गायब है और धनलिप्सा और भोग-विलास में डूबे बाबाओं से धर्म के संस्कार। आजकल देश में बाबाओं, महंतों-महामण्डलेश्वरों और कथावाचकों, सत्संगकत्र्ताओं और तमाम तरह के चमत्कारों के पीछे भागने वाले ढोंगियों का बोलबाला है।
इनके लिए धर्म और संस्कृति, संस्कार एवं प्राच्य परंपराओं का कोई वजूद नहीं है। इन लोगों के लिए न भगवान महत्त्वपूर्ण है, न और कुछ। कुछेक को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर लोगों की हालत ये है कि इन्हें वे ही लोग पसंद होते हैं जो पैसेवाले हैं या किसी न किसी प्रकार कुर्सी या प्रभुत्व वाले। अब वो जमाना चला गया जब अच्छे लोगों को तलाश कर उन्हें योग्य बनाने के लिए प्रयास होते थे और फिर उन्हें समाज और देश की सेवा के लिए सौंप दिया जाता था। आज हर तरफ गुणों और सामथ्र्य से कहीं ज्यादा स्वार्थ और संबंध हावी हैं और ऎसे में समाज तथा राष्ट्र के हित गौण होते जा रहे हैं। व्यक्ति सम्पन्न और प्रभावशाली जरूर होता जा रहा है लेकिन यह इकाई समाज और देश के किसी काम नहीं आकर आइसोलेट अवस्था में जी रही है और अपने ही स्वार्थों के घेरों में फंसी हुई है। ऎसे में इकाई के मजबूत होने के बावजूद समाज को उसका कोई फायदा नहीं मिल रहा है। आज का यही सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।
इसके साथ ही कई बड़े-बड़े सुशील और मेधावी लोगों की सबसे बड़ी पीड़ा यही है कि उन्होंने जिन लोगों को संबल, प्रोत्साहन और मार्गदर्शन देकर तैयार किया है वे सारे के सारे राह और उद्देश्य भटक गए हैं और समाज के लिए नासूर तो बने हुए हैं ही, उन लोगों के लिए भी भस्मासुर बने हुए हैं जिन्होंने इन्हें बनाया है, सँवारा है। आजकल हर क्षेत्र में ऎसे भस्मासुरों की बाढ़ आयी हुई जो उन लोगों के पीछे भी पड़े हुए हैं जिन पर इन्हें आगे लाने और बनाने का श्रेय है। इसी प्रकार ऎसे-ऎसे गुरुओं और महात्माओं, बाबों का भी ज्वार आया हुआ है जो पैसे लेकर कथा-सत्संग करने, आशीर्वाद देने और दुःखों को दूर कर सम्पन्नता तथा वैभव का आशीर्वाद देते हैं।
वैसे भी इन दिनों सर्वत्र चातुर्मास का दौर चल रहा है और ऎसे में हर तरफ ऎसे-ऎसे लोगों द्वारा आशीर्वाद पाने की तस्वीरों की बहार आयी हुई है जिनके बारे में समाज में अच्छी टिप्पणियां नहीं होती। एक गरीब और सच्चे भक्त को आशीर्वाद मिले न मिले, उन सभी लोगों को सम्मान एवं आदर के साथ आशीर्वाद मिल जाता है जो कुर्सीनशीन या प्रभावशाली हैं या फिर पैसे वाले। यही कारण है कि आजकल समाज में सदाचारों और संस्कारों पर पैसा और प्रभुत्व हावी है। यही कारण है कि भस्मासुरों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। जिन लोगों को आगे लाने और स्थापित करने के प्रयास करें, उन सभी के लिए पहले पात्रता की पूर्ण जाँच करें और उसके बाद ही शिक्षा-दीक्षा तथा आशीर्वाद दें। अपात्र लोगों को आगे लाने वाले, इन्हें आशीर्वाद देने वाले लोग समाज के अपराधी होते हैं और नरक को प्राप्त होते हैंं।
---डॉ.दीपक आचार्य---
9413306077
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