बिहार : सुरक्षा के नाम पर लूट और तटबंधों के बीच कैद कोसी - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 17 अगस्त 2013

बिहार : सुरक्षा के नाम पर लूट और तटबंधों के बीच कैद कोसी

kosi river
तटबंध बचाने का खेल इस तरह खेलते हैं अभियंता और ठेकेदार
कोसी आपदा के वक्त यह सवाल जोर-शोर से उठाया गया था कि आखिर तटबंध की टूट के पीछे की वजह क्या थी. आवाम और विभिन्न संगठनों के भीषण प्रतिरोध के बीच राज्य सरकार ने सेवानिवृत्त जस्टिस राजेश वालिया की अध्यक्षता में एक जांच आयोग का गठन किया. इस आयोग को छह महीने के भीतर जांच कर बताना था कि कोसी की धारा बदलने के पीछे असली वजह क्या थी? क्या पूर्ववर्ती सरकारों ने या बाढ़ नियंत्रक कार्यों में जुटे अभियंताओं और ठेकेदारों ने तटबंध की सुरक्षा में कोई चूक की या फिर पिछले सालों में कोसी की सुरक्षा को लेकर बनी उच्चस्तरीय कमेटियों की रिपोर्टों की अनदेखी की गयी? मगर विडंबना यह है कि 10 सितंबर, 2008 को गठित इस आयोग के गठन के भी 5 साल पूरे होने वाले हैं. मगर जांच आयोग की रिपोर्ट का कोई अतापता नहीं है. इस आयोग के गठन के संबंध में जारी गजट में साफ लिखा है कि कारणों को जानना इसलिए जरूरी है, ताकि भविष्य में इस घटना की पुनरावृत्ति न हो.

आयोग की रिपोर्ट कब तक पूरी होगी, इस संबंध में आयोग का कोई पदाधिकारी कुछ बताने के लिए तैयार नहीं है. इस संवाददाता ने फोन के जरिये और ई-मेल भेजकर भी सूचना की मांग की, मगर सूचना नहीं दी गयी. वैसे, इस आयोग को सूचना देने में काफी सक्रिय भूमिका निभाने वाले सेवानिवृत्त कार्यपालक अभियंता विनय शर्मा का कहना है कि सुनवाई लगभग पूरी हो चुकी है. आयोग के वेबसाइट से भी यह जाहिर है और आयोग के वकील ने अपना सबमिशन पेश कर दिया है, जिस पर विनय शर्मा की दो टिप्पणियां अप्रैल, 2013 से पड़ी है. कोसी आयोग की साइट kosi-aayog.bihar.nic.in पर इन सूचनाओं को विस्तार से देखा जा सकता है. मगर रिपोर्ट कब तक आयेगी इसका कोई अता-पता नहीं है. खबर है कि जस्टिस राजेश वालिया इन दिनों बीमार चल रहे हैं.

for kosi flood
ये मचान देखिये, यह बाढ़ के दिनों में
सोने के लिए बनाया गया है  
आयोग की साइट पर देखा जा सकता है कि सबसे विस्तृत और गंभीर सबमिशन सेनि कार्यपालक अभियंता विनय शर्मा की ही है. वे कोसी तटबंध पर तैनात रह चुके हैं और उन्हें अनुभव है कि वहां किस तरह काम होता है. उन्होंने बाढ़ के बाद कुछ स्वयंसेवक संगठनों के साथ कुशहा से कुरसैला तक भारत में पूरी कोसी की नदी की नौका यात्रा की थी. इसके अलावा आरटीआई व विभिन्न तरीकों से उन्होंने इस संबंध में सूचनाएं भी एकत्र की हैं. 
अपने सबमिशन में उन्होंने विस्तार से बताया है कि किस तरह तटबंध टूटने की असली वजह बाढ़ नियंत्रण और तटबंध सुरक्षा के कामकाज में भ्रष्टाचार की अपरिमित संभावनाएं हैं. वे लिखते हैं कि तटबंध की सुरक्षा के वक्त कई दफा अपातकालीन परिस्थितियों में बगैर टेंडर के भी काम कराया जा सकता है. इसका कोई फिजिकल वेरिफिकेशन भी नहीं होता क्योंकि कहा जा सकता है कि जो बोल्डर या क्रेट डाले गये उसे बाढ़ का पानी बहा ले गया. इस तकनीकी आधार पर कोसी बाढ़ नियंत्रण के कामकाज में जमकर भ्रष्टाचार होता है. उनका मानना है कि कोसी तटबंध 2008 में इसी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया. 

उन्होंने यह सवाल भी उठाया कि इस जांच आयोग में सरकार और मंत्रियों को बचाने की कोशिश की गयी है, क्योंकि इसके गठन के वक्त ही तकनीकी रूप से कह दिया गया था कि इसके जरिये ठेकेदारों और अधिकारियों की चूक को पता चलाना है. जबकि इस तरह की गड़बड़ियों में मंत्रियों तक की भूमिका होती है. जल संसाधन विभाग ने कोसी तटबंध सुरक्षा के लिए जारी टेंडर का अनुमोदन करने का अधिकार पटना स्थित सचिवालय के पास सुरक्षित कर लिया है, ताकि टेंडर जारी करने से लेकर पेमेंट करने वक्त तक ठेकेदारों से अपना हिस्सा सीधे वसूला जा सके. निश्चित तौर पर इसमें मंत्रियों की भूमिका भी हो सकती है. उन्होंने इस संबंध में ढेरों सबूत और प्रमाण पेश किये हैं.

हालांकि कोसी तथा नेपाल से बिहार की ओर बहने वाली दूसरी नदियों पर लंबे समय से काम करने वाले विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र इस राय से पूरी तरह इत्तेफाक नहीं रखते. उनका मानना है कि यह बात कुछ हद तक जरूर सही है, मगर यह भी सच है कि इस तटबंध को टूटना ही था. यह बार-बार टूटता रहा है और आगे भी टूटता रहेगा. क्योंकि कोसी जिस स्वभाव की नदी है उसे तटबंध में बांध कर रखना मुमकिन नहीं है. तटबंध पूरा गाद से भर गया है और नदी का रुख पूर्वी तटबंध की ओर हो गया है. ऐसे में यह वक्त की बात है कि नदी कब तक तटबंधों की कैद में रहती है. उनका कहना है कि तटबंध और बराज के निर्माण के वक्त ही इसकी आयु 25 साल निर्धारित कर दी गयी थी, जबकि आज इसके निर्माण के 50 साल से अधिक का वक्त बीत चुका है.    

दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं कि यह सोचना ही मूर्खता है कि तटबंध नहीं टूटेगा. तटबंध में इतना सिल्ट भर गया है कि इसका टूटना तय है. इसे बांध कर नहीं रखा जा सकता. यह आज टूटे या पांच साल बाद टूटे. ऐसे में राज्य सरकार को पिछले सात-आठ अनुभवों के आधार पर डिजास्टर मैपिंग कराकर रखनी चाहिये थी. यानी तटबंध के हर तीन किमी के हिसाब से देखना चाहिये कि अगर पानी की मात्र दो लाख क्यूसेक या अधिक होने पर तटबंध टूटे तो पानी कितने समय में कहां पहुंच सकता है. यह मैपिंग कराने से आपदा के वक्त बचाव अभियान चलाने में सुविधा होगी. उन्होंने इस संबंध में राज्य सरकार को सुझाव भी दिया है, मगर कोई इस बात को सुनने को तैयार नहीं है. इस मसले पर केवल पांच सितारा होटलों में बड़ी-बड़ी बैठक होती है, उसमें कुछ लफ्फाजी होती है. वहां अगर कोई बात कहूं तो अधिकारी कहते हैं मिश्रजी केवल निगेटिव बातें करते हैं. वे कहते हैं कि मैं कैसे पॉजिटिव बातें करूं. 

दिनेश मिश्र आगे कहते हैं कि पिछले कई आपदाओं का इतिहास है कि जब भी हालात बुरे होते हैं तो सेना को उतारे बिना काम नहीं चलता. फिर आपदा प्रबंधन के नाम पर बनी दर्जनों संस्थाओं का क्या काम. सेना को ही ठीक से इक्यूप किया जाये और अरबों-खरबों सेमिनार और बैठकों में खर्च करने वालों कोविदा कर दिया जाये.

वे कहते हैं, राज्य में सिंचाई विभाग का काम तटबंधों पर क्रेट और बोल्डर गिराना भर रह गया है. क्योंकि इससे अवैध कमाई होती है. हालात यह हैं कि 1988 में राज्य में कुल सिंचित भूमि 21.5 लाख हेक्टेयर थी जो आज की तारीख में महज 16 लाख हेक्टेयर है. ऐसे में इस विभाग से और क्या उम्मीद की जा सकती है.

पांच साल पहले जो हादसा हुआ था, वह आज भी कोसी के बाशिंदों को सावन-भादो की रातों में चैन से सोने नहीं देता है. तटबंध को मजबूत करने के सरकारी दावे पर उसे भरोसा नहीं होता है. हर साल इन महीनों पर लोगों की नजर भीमनगर स्थित बराज के डिस्चार्ज पर होती है. 2008 में यह तटबंध महज 1,72,000 क्यूसेक पानी में ही टूट गया था. हालांकि पिछले कुछ सालों में तटबंध के बीच से इससे अधिक पानी गुजर चुका है, मगर कोसी के लोगों आज भी आश्वस्त नहीं हो पाये हैं कि बारिश के महीने सकुशल गुजर जायेंगे. मगर क्या सरकार ने इस हादसे से कोई सबक लिया, कोई तैयारी करके रखी कि अब ऐसा हादसा न हो और अगर हो तो उससे सफलतापूर्वक निबटा जा सके.

कोसी के सुपौल जिले के बसंतपुर प्रखंड में काम कर रही संस्था हेल्पेज इंडिया के बिहार प्रभारी गिरीश मिश्र कहते हैं कि मई 2008 में राज्य सरकार ने आपदा की दृष्टि से संवेदनशील बिहार के 16 जिलों में ग्रेन बैंक बनाने की योजना बनायी थी. इसके तहत इन जिलों की दलित-महादलित बस्तियों में अनाज जमा रखना था ताकि बाढ़ या दूसरी आपदा के वक्त लोगों को खाने का अनाज मिल सके. संयोग से उसी वर्ष अगस्त महीने में कोसी की बाढ़ आ गयी. इससे इस योजना की प्रासंगिकता साबित हो गयी. मगर दुर्भाग्यवश कहीं इस योजना को लागू किया गया हो तो हो मगर सुपौल जिले में इस योजना को लागू नहीं किया गया. 2011 में जिला आपूर्ति पदाधिकारी ने बताया कि फंड वापस लौट गया है. फिर हार कर हमने कुछ गांवों में ग्रेन बैंक बनवाये हैं.




---पुष्य मित्र---

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