- ---लोकतंत्र के लिए अच्छा है ऐसी चुनौती
स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले के प्रचार से प्रधानमंत्री के भाषण और भुज से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मादी के भाषण में तुलना और उसपर बहस जारी है। टीवी चैनलों से लेकर गली-मोहल्ले और चाय की दुकानों पर भी दोनोें की भाषणों की चर्चा है। इसमें कोई शक नहीं कि भाषण देने का लहजा हो, मीडिया कवरेज हो या भाषण का कांटेन्ट, सभी में मोदी ने मनमोहन को कोसो पीछे छोड़ दिया। मोदी के मुकाबले मनमोहन का भाषण काफी फीका था। मोदी ने तो एक दिन पहले ही इशारा कर दिया था कि देश के लोग प्रधानमंत्री और उनकी भाषणों की तुलना करेंगे। तुलना हो भी रही है। इसी तुलना में बहुत बड़ा संदेश छुपा हुआ है। एक मुख्यमंत्री के भाषण की तुलना प्रधानमंत्री के भाषण से! यानी नरेन्द्र मोदी ने अघोषित रूप से ही सही, भावी प्रधानमंत्री के रूप में खुद को प्रोजेक्ट कर लिया है।
विश्लेष्कों और विद्धानों की नजर में मोदी द्धारा समय का चयन सही नहीं था। किसी की निजी राय यह हो नहीं सकती है। लेकिन देश इस समय जिस दौर से गुजर रहा है, ऐसी परिस्थिति में भुज से दिल्ली को चुनौती मिलना देशवासियों खासकर युवाओं को भा रहा है। इसे सकारात्मक नज़्ार से देखा जाना चाहिए कि एक मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री के भाषण के हर एक भाग पर सवाल खड़ा किया, और उनलोगों को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया जो लालकिले का इस्तेमाल सिर्फ लोक लुभावन भाषणों के लिए करते हैं और देशवासियों के सामने गलत आंकड़े पेश करते हैं। चाहे आजादी के बाद भारत के विकास में जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के योगदान का गुणगाण हो या आर्थिक विकास, पाकिस्तान के साथ भारत के संबंध, गरीबी, शिक्षा और खाद्य सुरक्षा विधेयक पर सरकार की उपलब्धियां। सभी मुद्दों पर मोदी ने जमकर मनमोहन की जमकर खबर ली। अगर इस तरह से काउंटर अटैक करनेवाला नेता देश में दो-चार और हो जाएं तो कोई भी प्रधानमंत्री लालकिले से झूठे वादे और घोषणा से पहले नौ बार सोचेगा। और ये सब तब हो रहा है जब नरेन्द्र मोदी अभी गुजरात में हैं। उन्हें दिल्ली आना बाकी है। जो लोग मोदी की आलोचना सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि स्वतंत्रता दिवस के दिन प्रधानमंत्री पर वाक् हमला नहीं करना चाहिए था, उनसे देश जानना चाहता है कि आम दिन वे खुद सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ कितने दिन बोलते हैं? कितने दिन आंदोलन करते हैं? देश में अगर आज एक निरंकुश सरकार है तों इसमें बहुत बड़ा योगदान कमजोर विपक्ष का भी है।
भले ही मोदी का भाषण एक सोची-समझी सियासी चाल का एक हिस्सा था। लेकिन इस तरह की खुली बहस की शुरूआत भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छा संदेश है। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों से लेकर मुख्यमंत्री, सांसद और विधायक के उम्मीदवारों के बीच भी खुली बहस होनी चाहिए, ताकि देश की जनता योग्यता को भांपकर अपना प्रतिनिधि चुन सके।
( रंजीत रंजन सिंह)
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