विशेष : सीमा का संकट बना रहा मानसिक रोगी - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 10 सितंबर 2013

विशेष : सीमा का संकट बना रहा मानसिक रोगी


भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा पर रूक रूक कर हो रही फायरिंग ने दोनों देशों के बीच अघोशित युद्ध की स्थिती पैदा कर दी है। संभवतः कारगिल युद्ध के बाद यह पहला अवसर है जब सीमा पर तनाव अपने चरम पर है। इस विकट स्थिती का परिणाम चाहे जो निकले लेकिन इसका दूरगामी प्रभाव सीमा के निकट रहने वालों को सबसे अधिक मानसिक रूप से प्रभावित करता है। सरहद पर होने वाली हर छोटी से बड़ी हलचल इनकी रोजमर्रा की जि़दगीं को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होती है। क्योंकि यह लोग सीमा के बेहद करीब बसे हुए हैं। जम्मू से 29 किमी दूर अख्नूर सब डिवीज़न के 227 गांवों में 35 गांव पाकिस्तान से लगने वाली अंतररराष्ट्रीय सीमा पर आबाद हैं या फिर नियंत्रण रेखा से सटे हुए हैं। यह सीमाएं यहां आबाद गांवों से महज़ चंद कदमों की दूरी पर स्थित है। पिछले 6 दशकों से इन गांवों के लोग सीमा के दोनों ओर से होने वाली फायरिंग की कीमत अदा कर रहे हैं। इसका सबसे बुरा प्रभाव उनके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। पिछले कुछ वर्षों में इन क्षेत्रों में रहने वालों में तनाव, चिंता और अवसाद के मामलों में अत्याधिक वृद्धि पाई गई है। जिसकी परिणती आत्महत्या के रूप में सामने आ रही है।

पिछले एक दशक के पुलिस रिकार्ड बताते हैं इन इलाकों में होने वाली अधिकतर मौतों का कारण आत्महत्या रहा है। रिकार्ड के अनुसार वर्ष 2000 से 2012 के बीच अकेले अख्नूर सब डिवीज़न में ही आत्महत्या के 125 मामले दर्ज किए गए हैं। अख्नूर के एसडीपीओ और भारतीय पुलिस सेवा के युवा अधिकारी रईस मुहम्मद बट के अनुसार ‘अख्नूर और खोर ब्लाॅक में पिछले दो दशकों के सर्वे के दौरान यह बात सामने आई है कि आत्महत्या के कारण मरने वालों की संख्या में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है। इनमें अधिकतर आत्महत्या कीटनाशक दवा के सेवन से हुई है। जो आसानी से दुकानों पर उपलब्ध हो जाती है। जबकि कुछ केस चिनाब नदी में कूदकर जान देने की भी दर्ज की गई है और कुछ मामलों में यह भी सामने आया है कि मृतक ने अत्याधिक नशीली वस्तुओं का सेवन किया था। जो सामान्य रूप से अवसाद में घिरे होने के कारण किए गए थे। बट के अनुसार आत्महत्या के यह दर्ज मामले वास्तविक संख्या से काफी कम है क्योंकि सामाजिक कलंक के अहसास के कारण इस तरह के अधिकतर मामलों में परिवार वाले केस दर्ज नहीं कराते हैं।

अख्नूर के एसडीएम नगेंद्र सिंह जमवाल आत्महत्या के बढ़ते कारणों के पीछे मुख्य रूप से बढ़ते तनाव को मानते हैं। जो सीमा पर होने वाली फायरिंग और उसके परिणामस्वरूप परिस्थितियों से उत्पन्न होती हैं। फायरिंग के कारण खेत से होने वाले पैदावार में नुकसान भी तनाव का एक बड़ा कारण है क्योंकि कृषि यहां के लोगों की मुख्य आजीविका है। लेकिन पिछले कई दशकों से हो रही फायरिंग के कारण लगभग 24000 कनाल उपजाउ जमीन खराब हो चुकी है। उन्होंने कहा कि कई लोग अपना जीवन केवल इसलिए समाप्त कर देते हैं क्योंकि वह इन वर्षों में पैदा होने वाले वित्तीय संकट का सामना करने को तैयार नहीं हो पाते हैं। आत्महत्या करने वाले ऐसे किसानों की संख्या अधिक रही है जिन्होंने कर्ज लेकर खेती शुरू किया लेकिन दोनों ओर से होने वाली फायरिंग के कारण उनकी फसल तबाह हो गई और तब उनके सामने परिवारवालों का पेट पालने के अलावा कर्ज का एक बड़ा पहाड़ भी खड़ा हो जाता है। लेकिन देश के अन्य राज्यों की तरह यहां के किसानों की मौत समाचारपत्रों की सुर्खियां नहीं बन पाती हैं और इनकी परेशानियां गोलियों की गड़गड़ाहट में कहीं दबकर रह जाती है।

सीमा पर होने वाली फायरिंग की घटनाओं ने इससे सटे गांव वालों को विस्थापन पर भी मजबूर किया है। 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान होने वाली फायरिंग के कारण अख्नूर से लगने वाली सीमा और उसके आसपास से 300 से अधिक परिवार विस्थापित हुए थे। जो आज भी अख्नूर शहर से लगभग 9 किमी दूर गुड़ा जागीर स्थित माइग्रेंट काॅलोनी में रह रहे हैं। इन विस्थापितों को सरकार की ओर से प्लाट आवंटित किए गए हैं। लेकिन इनमें अधिकतर प्लाट आधे अधूरे बने हुए हैं। क्योंकि इन लोगों के पास इतना पैसा नहीं है कि वह अपने लिए एक छोटा सा मकान भी बना सकें। विस्थापितों में छपरियाल पंचायत के निर्वाचित सदस्य ताराचंद भी हैं जो इसी शिविर में एक जनरल स्टोर चलाकर परिवार का पेट भर रहे हैं। वह कहते हैं कि ‘हम एक कृषि प्रधान समाज का हिस्सा रहे हैं और हमें अपने पूर्वजों से विरासत में केवल यही एक चीज़ मिली है। लेकिन दुर्भाग्यवश हम इसे अपनी अगली पीढ़ी तक नहीं पहुंचा सकते हैं। आज हमारे बच्चे मामूली नौकरी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जो इस महंगाई के दौर में स्वंय का पेट भी नहीं भर पा रहे हैं। यहां आपको एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिलेगा जो किसी न किसी मानिसक पीड़ा से ग्रसित नहीं है। ऐसे में इनका वर्तमान निराशाजनक है और भविष्य के बारे में इनकी चिंता इनमें अवसाद पैदा करने का कारण बनती जा रही है। इस संबंध में खोर के ब्लाॅक मेडिकल अफसर डाॅ जे. पी. सिंह के अनुसार सीमा के निकट रहने वाले अधिकतर युवा मानसिक रोग का शिकार होते जा रहे हैं। इस तनाव में शराब के सेवन में भी इजाफा हुआ है। अस्पताल आने वाले मरीजों की जांच में हमने पाया कि उनमें अधिकतर तनाव से ग्रसित रहे हैं और इसके कारण इस क्षेत्र में घरेलू हिंसा के मामलों में भी वृद्धि दर्ज की गई है।

फायरिंग के दौरान होने वाली गोलाबारी ने इन सरहदी इलाके के लोगों को क्या क्या जख़्म दिए हैं इसका अहसास करने के लिए केवल इन गांवों का भ्रमण ही काफी है। जिन लोगों ने फायरिंग के दौरान गांव छोड़ने से मना कर दिया उन्हें इसकी कीमत जान देकर भी चुकानी पड़ी है। अख्नूर से गुजरने वाली सीमा के बिल्कुल निकट प्रगवाल गांव इसका गवाह रहा है। यहां का हर एक घर बलिदान की गाथा से भरा हुआ है। कुछ ने अपने जिगर का टुकड़ा खोया है तो कईयों ने अपने माथे का सिंदूर। ऐसे ही एक परिवार ने अंतरराष्ट्रीय सीमा पर होने वाली फायरिंग में अपनी बहादुर इकलौती बेटी को गंवा दिया था। उस बहादुर युवा बेटी के पिता सोमनाथ बताते हैं कि वर्ष 2002 में जब सीमा के दोनों ओर फायरिंग हो रही थी तो उनकी बेटी शशिबाला घर से बाहर निकलकर लोगों को गोलाबारी से बचने के लिए घर से न निकलने की लगातार वार्निंग दे रही थी और इस क्रम में वह स्वंय दुश्मन की गोली का निशाना बन गई। कई घरों का चिराग बुझने से बचाने वाली शशिबाला पर प्रगवाल के लोगों को आज भी गर्व है।

फायरिंग के दौरान चलने वाली गोलियों से यह लोग बच तो जाते हैं लेकिन उसके कारण होने वाले नुकसान और तनाव से आज भी इन्हें छुटकारा नहीं मिल पा रहा है। खोर ब्लाॅक के पैडली गांव के अधिकतर युवा बेरोजगार हैं। कुछ सेना में भर्ती हो गए हैं। लेकिन सभी की किस्मत ऐसी नहीं है। शिक्षा के प्रति जागरूकता की कमी का खामियाज़ा इनके जीवन पर साफ झलकता है। सरकारी क्षेत्र में अवसर नगण्य है और कम पढ़े लिखे होने के कारण निजी क्षेत्र के दरवाजे इनके लिए नहीं खुल पाते हैं। ताश खेलकर खाली समय बिताने वाले इन नौजवानों को अपना जीवन अंधकार के अतिरिक्त कुछ नजर नहीं आता है। यहां आप किसी भी व्यक्ति से बात करें आपको इसका अहसास करने में एक मिनट भी नहीं लगेगा कि यह लोग अपने दिमाग पर किस प्रकार का मानसिक बोझ उठाए फिरते हैं। अब समय आ गया है कि सीमा पर अघोषित सेना के रूप में राष्ट्र को सुरक्षा प्रदान कर रहे ऐसे लोगों के विकास पर ध्यान केंद्रित किया जाए। अन्यथा भविष्य में इसकी कीमत देश को किसी भी रूप में चुकानी पड़ सकती है।





डॉ वरूण सूथरा, जम्मू
मो. 09419113324
 (चरखा फीचर्स)
(लेख ‘संजोय घोश मीडिया फेलोषिप के अंतर्गत लिखा गया है)

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