लेदर का जैकेट और डेनिम पहने 21 वर्षीय मोहम्मद हसन गांव के बुजुर्गों के साथ गहरी बातचीत में व्यस्त है। जो उसकी शिक्षा से शुरू होकर बुनियादी विकास और फिर गांव से गुजरती टूटी सड़क तक जा पहुंचती है। पारंपरिक पोशाक पहने यह बुजुर्ग मिटटी से बने कच्चे घर के बाहर बैठे हैं। नई और पुरानी पीढ़ी के बीच सामान्य सा दिखने वाला यह दृष्य देश के सबसे उत्तरी क्षेत्र कारगिल के एक छोटे से गांव हुंडरमान ब्रोक की है जो बदलते समय के साथ स्वंय को भी विकास की परिभाषा से जोड़ने के लिए संघर्षरत है। हिमालय की गोद में बसा यह गुमनाम गांव सिल्क रूट में अपनी भूमिका से लेकर देश का विभाजन और पड़ौसी देश पाकिस्तान के विरूद्ध होने वाले युद्धों समेत बहुत सी कही और अनकही कहानियों को समेटे हुए है। जहां आज भी युवाओं के सपने उनकी आकांक्षाओं और विकास के अधूरे ख्वाब को पूरे होने की आस जुड़ी हुर्इ है। यह वह विषय हैं जिनपर चर्चा या विचार इस चुनौतीपूर्ण उंचे इलाकों में अपने असितत्व के लिए संघर्षरत लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
देश के सबसे ठंडे मानव बस्ती में एक हुंडरमान ब्रोक कारिगल का अकेला गांव नहीं है जहां युवा पीढ़ी और बुजुर्गों के बीच इस तरह की बातें सुनाइ देती है। वर्ष के अधिकतर महीने बर्फ की सफेद चादर में लिपटा अत्यंत खूबसूरत क्षेत्रों में एक यह गांव जम्मू कश्मीर के कारगिल शहर से महज़ 10 किमी की उंचाइ पर अंतरराष्ट्रीय सीमा के पास स्थित है। जहां भारत की सीमा पाक अधिकृत कश्मीर के गिलगित-बलतिस्तान से मिलती है। कारगिल के दूसरे ग्रामीण क्षेत्रों की तरह यह गांव भी सख़्त मौसमी परिसिथतियों के कारण साल में लगभग छह महीने दुनिया के बाकी हिस्सों से पूरी तरह कटा रहता है। जम्मू कश्मीर के अन्य सरहदी इलाकों की तरह यह गांव भी अतीत में बहुत कुछ समेटे हुए खामोशी से अपनी दास्तां सुनाता है। 90 वर्षीय एक बुजुर्ग विभाजन और फिर पाकिस्तानी हमले की चर्चा करते हुए बताते हैं कि '1947 के दौरान पाकिस्तानी सेना जंस्कार तक आ गइ थी। लेकिन जल्द ही भारतीय सेना ने उन्हें पीछे खदेड़ दिया। वह बताते हैं कि लोसार (बौद्धों का नव वर्ष) से पहले पाकिस्तानी सेना ने एक बार फिर अपनी नापाक हरकतों को अंजाम देते हुए जंस्कार पर कब्ज़ा कर लिया और अगले 25 वर्षों तक उनका इसपर नियंत्रण रहा। लेकिन 1971 में एक बार फिर भारतीय सेना ने उन्हें पीछे धकेल कर गांव को अपने कब्ज़े में ले लिया। इस संघर्ष में सबसे अधिक नुकसान स्थानीय निवासियों को ही उठाना पड़ा।'
जहां तक विकास का प्रश्न है तो यह हुंडरमान के लोगों के लिए आशा और निराशा के बीच एक धुंधली तस्वीर से अधिक नहीं है। 84 वर्षीय बुजुर्ग अहमद हुसैन याद करते हुए बताते हैं कि 'हम अतीत से बहुत अधिक दूर नहीं आए हैं। तब हमारे पास ब्रोल्मो गांव (अब गिलगित-बलतिस्तान का हिस्सा) में केवल एक स्कूल हुआ करता था। 1971 में ब्रोल्मो गांव का उस पार चले जाने के बाद हमारे बच्चे लगातार तीन वर्षों तक शिक्षा से पूरी तरह वंचित रहे। 1974 में स्थानीय प्रशासन के कामकाज संभालने के बाद इस इलाकें में पहली बार एक प्राथमिक स्कूल का निर्माण किया गया। जिसे बाद में अपग्रेड करके मिडिल स्कूल में परिवर्तित कर दिया गया। उन तीन वर्षों के दौरान यहां किसी प्रकार की शिक्षा न थी। युवाओं ने रोजगार के साधन तलाश लिये और वह सुरक्षा बलों के लिए कुलियों का काम करने लगे। इस वक्त यह आजीविका कमाने का सबसे बेहतर विकल्प बन चुका था। यह प्रवृति लोकप्रिय बन गइ और यह सिलसिला कइ दशकों तक चलता रहा।' लेकिन धीरे धीरे शिक्षा के प्रचार-प्रसार का प्रभाव रहा कि मोहम्मद हसन जैसे युवा कालेज तक पहुंचने में कामयाब रहे। हसन वर्तमान में गवर्मेंट कालेज चंडीगढ़ से स्नातक की पढ़ाइ कर रहा है और भविष्य में पोस्ट ग्रेजुएशन भी करना चाहता है। लेकिन वह नौकरी कर कारगिल से बाहर नहीं बसना चाहता है। हसन पढ़ार्इ के बाद गांव आकर आने वाली पीढ़ी को शिक्षा के मूल्य से अवगत कराना चाहता है। वह बताता है कि 'छठी कक्षा में मुझे लेह स्थित जवाहर नवोदय विधालय भेज दिया गया। पूर्व में खराब शैक्षिक पृष्ठभूमि होने के कारण उसे अन्य सहपाठियों से मुकाबला करना कठिन हो गया था। यह एक ऐसी समस्या है जिससे वह आजतक जूझ रहा है। हसन की तरह गांव के अन्य बच्चे भाग्यशाली नहीं थे। मिडल स्कूल में शिक्षा के खराब स्तर और उच्च शिक्षा के लिए गांव से दूर स्कूल के होने का खामियाज़ा बाकि बच्चों को भुगतना पड़ा। आगे की पढ़ाइ के लिए बच्चों को गांव से बाहर जाना पड़ता है लेकिन वहां तक इन्हें ले जाने के लिए कोइ सड़क नहीं है। सड़क के नाम पर एक बंजर रास्ता है जो हुंडरमान के लोगों को शेष दुनिया से जोड़ता है। लेकिन बर्फबारी के दिनों में यह आस भी टूट जाती है। हालांकि इस प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के अंतर्गत तैयार करने को रंजामंदी दी गइ थी लेकिन आज भी इस सड़क को कागज़ से निकलकर हकीकत में बनने का इंतज़ार है।'
बुजुर्ग अहमद हुसैन कहते हैं कि 'हम सीमा पर रहने का खामियाज़ा भुगत रहे हैं। 1971 में जब भारतीय सेना ने इस क्षेत्र पर कब्ज़ा किया तो उसके लगभग एक वर्ष तक हमारी कोइ पहचान नहीं थी। धीरे धीरे हम जीवन में आगे बढ़े और हमारे पास जो कुछ भी था उसके साथ समझौता किया। आज हुंडरमान के बच्चे सड़क तथा परिवहन सुविधाओं की कमी के कारण अच्छी शिक्षा प्राप्त करने में असमर्थ हैं। इस कमी से यहां के बच्चे आगे की शिक्षा कारगिल में प्राप्त करने के लिए या तो गांव छोड़कर कारगिल में किराए का कमरा लेकर रहने को मजबूर हैं अथवा अपने किसी रिश्तेदार के यहां शरण लिये हुए हैं। लेकिन ऐसा कुछ ही बच्चे कर पाते हैं और अधिकतर इस कमी के कारण बीच में ही अपनी पढ़ाइ छोड़ देते हैं।' ग्रामीणों का विश्वास है कि यदि सड़क बेहतर हो जाए और परिवहन सुविधा को उन्नत बना दिया जाए तो बीच में ही पढ़ाइ छोड़ने वाले बच्चों की संख्या में काफी कमी आ जाएगी।
योजना आयोग स्वंय अध्ययन में इस बात को महसूस करती है कि अंतरराष्ट्रीय सीमा के निकट रहने वाले लोगों को बुनियादी ढ़ांचागत सुविधाओं की कमी के कारण विशिष्ट समस्याओं से बहुत अधिक निपटना पड़ता है। इसके अतिरिक्त प्रतिकूल जलवायु परिसिथती के कारण यहां विकास का स्तर बहुत निम्न है। इसलिए इन क्षेत्रों के लोगों के लिए जरूरतों को पूरा करने में प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। निस्संदेह हुंडरमान ब्रोक के लोग सीमा पर युद्ध की सिथती में सबसे पहले इसकी चपेट में आएंगे। इसके बावजूद यह वह लोग हैं जिनपर हमारी सरकार सबसे आखिर में ध्यान देती है। इस वक्त उन्हें एक सम्मानजनक जीवन गुजारने का उचित अवसर प्राप्त करवाने की जरूरत है। उन्हें जरूरत है एक सड़क की जो उनके सपनों की ओर जाती हो।
चेतना वर्मा
(चरखा फीचर्स)
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