विशेष : युवाओं को मौका, वरिष्ठ नेताओं से धोखा - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 28 सितंबर 2013

विशेष : युवाओं को मौका, वरिष्ठ नेताओं से धोखा

gahlot schindhia
भारत को युवाओं का देष कहा जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि वर्तमान राजनीतिक परिदृष्य में युवाओं की भूमिका काफी बढ़ गई है। जैसे-जैसे आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं, वैसे-वैसे राजनीतिक हलचलें भी तेज हो गई हैं। सबसे खास बात यह है कि हर पार्टी युवाओं का रुझान अपनी ओर मोड़ने की मषक्कतों में जुटी है। राष्ट्रीय राजनीतिक मंचों पर अगर नजर डाली जाए तो साफ होता है कि इस वक्त सभी बड़ी पार्टियां युवाओं को अपना प्रमुख हथियार बनाने में तुली हुई हैं। कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी को इस वक्त युवा भारत के लीडर के रूप में पेष कर रही है तो बीजेपी ने युवाओं की पसंद नरेन्द्र मोदी नाम का ब्रह्मास्त्र छोड़ा है। समाजवादी पार्टी उत्तरप्रदेष में पहले ही अखिलेष यादव को युवा मुख्यमंत्री बनाकर अपना रुख स्पष्ट कर चुकी है। अन्य राजनीतिक दल भी अब नए चेहरों और युवा विकल्पों की तलाष में जुट गए हैं।

राजस्थान में कांग्रेस की गहलोत सरकार ने निर्विघ्न पांच साल राज किया। हालांकि बीजेपी के पास गहलोत को घेरने के कई मुद्दे हाथ लगे थे,; रिफाइनरी मामले में ग्रामीणों के नाम पर जमीनों की अवैध खरीद, अवैध खनन का मामला, रिष्वत और भ्रष्टाचार के मामले, समाज कल्याण विभाग की आड़ में मूक-बधिर बालिकाओं का शोषण, षिक्षक भर्ती प्रक्रिया में खोट, एलडीसी नियुक्तियों का मामला, गोपालगढ़ गोलीकांड, मेट्रा संचालन में लेट-लतीफी और शहर की परेषानी, भंवरी-मदेरणा कांडद्ध चूंकि प्रदेष बीजेपी अध्यक्ष वसुंधरा राजे स्वयं चार साल तक प्रदेष से गायब रहीं, जिसकी वजह से बीजेपी ने इन अहम मौकों को गंवा दिया। लेकिन चुनावी साल होने के कारण वसुंधरा राजे अचानक प्रकट हुई और उन्होंने कांग्रेस के कुराज के विरोध में प्रदेष भर में सुराज संकल्प यात्रा निकाली। साथ ही यात्रा के समापन पर नरेन्द्र मोदी जैसे भीड़जुटाऊ नेताओं का इंतजाम कर ऐतिहासिक सम्मेलन का तमगा भी ले लिया। इस दौरान वसुंधरा राजे अनेक बार मंचों से लगातार युवाओं को मौका देने का ऐलान करती नजर आई हैं। बहस का मुद्दा यहीं से शुरू होता है।

दरअसल वसुंधरा राजे के ’’युवाओं को आगे लाने के आह्वान’’ के कई अर्थ लगाए जा रहे हैं। राजस्थान में बीजेपी पार्टी इस वक्त स्पष्ट और अस्पष्ट तौर से दो धड़ों में बंटी हुई है। एक धड़ा वह है, जिसमें वसुंधरा के समर्थक शामिल हैं, और दूसरा धड़ा उन वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं का है, जिन्हें वसुंधरा खेमा इस वक्त दरकिनार किए हुए है।

ये वरिष्ठ और अनुभवी नेता वे हैं जिन्होंने 1980 में प्रदेष में पार्टी के बीजारोपण से लेकर, पार्टी को पालने-पोसने और प्रदेष में 25 में 21 लोकसभा सीटों और 200 में से 120 विधानसभा सीटों के मुकाम तक भी पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई है। 1980 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में श्री भैरोंसिंह शेखावत के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी थी, जिसने 200 सीटों में से 151 सीटें जीत कर ऐतिहासिक रिकाॅर्ड बनाया था। बाद में जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नए दल भारतीय जनता पार्टी को दिषा देने के लिए राजस्थान में भैरोंसिंह शेखावत और घनष्याम तिवाड़ी जैसे बड़े नेताओं को भाजपा को प्रचारित व प्रसारित करने का जिम्मा सौंपा। ये नेता आपातकाल के दौरान जेल जा चुके थे और राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक पहचान बना चुके थे। भैरोंसिंह शेखावत ने एक तरफ भारतीय जनता पार्टी को प्रदेष के गांव-गांव तक पहुंचाया, तो दूसरी ओर घनष्याम तिवाड़ी ने सीकर में भाजपा का प्रथम अधिवेषन सफलतापूर्वक आयोजित कर प्रदेष में पार्टी को ठोस आधार दिया।

इसके अलावा (वे बीजेपी के वरिष्ठ नेता, जिन्होंने पार्टी को फलने फूलने में भूमि)पार्टी में ऐसे कई वरिष्ठ नेता इस वक्त भाजपा एवं प्रदेषाध्यक्ष की उपेक्षा का षिकार हैं, ये वे नेता हैं जिन्होंने प्रदेष में भाजपा की साख कायम की थी, उसे घर-घर और गांव गांव प्रसारित किया था और जो मूल विचारधारा को ही असली भारतीय जनता पार्टी मानते आए हैं। ये नेता मानते हैं कि प्रदेष भाजपा अपने मूल स्वरूप से उलट हो गई है। वर्तमान भाजपा ने अपनी विचारधाराएं और संस्कार खो दिए हैं और अब वह वसुंधरा राजे जैसे मौकापरस्त नेताओं की गिरफ्त में आकर अपना वजूद खो रही है। समय-समय पर भाजपा के कई वरिष्ठ नेता दबे-छुपे या खुलकर सामने आकर वसुंधरा के खिलाफ अपनी नाराजगी भी जाहिर कर चुके हैं। इस सारे ताम-झाम से कुछ सवाल खड़े होते हैं। ये वे सवाल हैं जिन्हें भाजपा दरकिनार नहीं कर सकती, चुनाव से पहले तो कतई नहीं।

सबसे बड़े सवाल ये हैं कि -
  • क्या वसुंधरा आने वाले अगले 30 वर्षों के लिए राजनीतिक बिसात बिछा रही हैं?
  • क्या युवाओं के बहाने वे अपने पुत्र दुष्यंत को आगे लाना चाहती हैं?
  • क्या भाजपा जड़ से जुड़े नेताओं को पार्टी से दूर कर रही है?

वसुंधरा की राजनीतिक बिसात -
वसुंधरा राजे ने ग्वालियर के सिंधिया राजघराने की सदस्य होने के नाते राजषाही जीवन विरासत में पाया और प्रजातंत्र में भी उनकी छवि महारानी की ही रही। राजस्थान के धौलपुर राजघराने के महाराजा हेमंतसिंह के साथ उनका विवाह हुआ और वे राजस्थान की बहू बन गई। राजस्थान की बहू के रूप में ही उनका पदार्पण राजनीति में हुआ। गरीब राज्य के प्रजातंत्र में जनप्रतिनिधित्व की चाह के बावजूद महंगी साडि़यां, उच्च रहन-सहन और रुतबे से रहना राजे का शौक रहा। इस रुतबे के चलते ही पक्ष-प्रतिपक्ष उन्हें ’’महारानी’’ के नाम से ही सम्बोधित करता रहा। राजे 1984 में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल हुईं, 1998-1999 में श्री अटलबिहारी वाजपेयी के मंत्रीमंडल में उन्हें विदेष मंत्री बनाया गया। 1999 में ही केंद्रीय मंत्रीमंडल में राज्यमंत्री के तौर पर उन्हें लघु उद्योग, कार्मिक एवं प्रषिक्षण, पेंषन व पेंषनर्स कल्याण, परमाणु ऊर्जा विभाग व अंतरिक्ष विभाग का स्वतंत्र पदभार सौंपा गया। भाजपा के कद्दावर नेता भैरोंसिंह शेखावत के उपराष्ट्रपति बनने के बाद राजे को राज्य इकाई का अध्यक्ष बनाया गया। 2003 में राजे ने परिवर्तन यात्रा निकाली और धुंआधार प्रचार किया। नतीजन 1 दिसंबर 2003 को राजे राजस्थान की पहली महिला मुख्यमंत्री बनी। लेकिन शासन के पांच साल पूरे होते होते राजे-राज की कई विसंगतियां सामने आई और कई बार तो अपने ही विधायकों ने उनकी गलत नीतियों का विरोध किया। 2008 में भाजपा को राजस्थान में करारी हार का मुंह देखना पड़ा। नतीजा ये रहा कि भाजपा आलाकमान ने वसुंधरा से प्रदेषाध्यक्ष पद से इस्तीफा मांग लिया। लेकिन अब तक राजे ने प्रदेष में अपना कद इतना बढ़ा लिया था कि प्रदेष के 78 भाजपा विधायकों में से 62 विधायक राजे के पक्ष में खड़े हो गए। आलाकमान को झुकना पड़ा और राजे का नेता प्रतिपक्ष का पद बरकरार रखना पड़ा।

2008 के बाद से लेकर अब तक वसुंधरा राजे ने नेता प्रतिपक्ष की भूमिका का निर्वाह ठीक से नहीं किया और वे पूरे 4 साल राज्य से गायब रहीं। ऐसे में प्रदेष भाजपा के वरिष्ठ नेता उनसे नाराज हो गए। एक बार पहले ही वे आलाकमान को मजबूरी में राजे के समक्ष झुकता देख चुके थे, लेकिन इस बार राजे की अनुपस्थिति उन्हें और ज्यादा खली। वरिष्ठ स्थानीय नेता राजे के खिलाफ भीतर ही भीतर दबे स्वर में विरोध की आवाजें उठाने लगे थे। एक तरफ 2013 के चुनाव के मद्देनज़र वे सुराज संकल्प यात्रा निकाल रही थी तो दूसरी ओर वरिष्ठ नेता विविध मंचों से उनके प्रति नाराजगी जाहिर कर रहे थे। राजनीतिक बिसात की मंझी हुई खिलाड़ी वसुंधरा ने असंतुष्ट नेताओं या बागियों के खिलाफ खुलकर बोलने के बजाय ’’युवाओं को मौका’’ देने का तीर छोड़ा, निष्चित रूप से उनके निषाने पर बागी नेता होंगे, क्योंकि ये सभी नेता उम्रदराज हैं और मूल भाजपा के पक्षधर हैं। युवाओं को आगे लाने के उनके उद्देष्य में यह भावना भी छिपी हो सकती है कि 60 वर्षीय वसुंधरा अपने आगामी राजनीतिक सफर को साफ-सुथरा और निष्कंटक बनाना चाहती हैं। वे अपने सभी वरिष्ठ प्रतिद्वंद्वियों का सफाया करना चाहती हैं और युवाओं को मौका देकर वे एक तीर से कई षिकार करना चाहती हैं। वरिष्ठ बागी तो उनके षिकार होंगे ही, लेकिन साथ ही जिन युवाओं को वे मौका देंगी, वे उनके भक्त बनकर उनके साथ खड़े हो जाएंगे। अतिष्योक्ति नहीं कि वसुंधरा ’’युवाओं को आगे लाने के आह्वान’’ से आगामी 30 साल का राजनीतिक सफर सुविधापूर्ण बनाना चाहती हैं।

दुष्यंत के लिए विधानसभा की राह-
प्रदेष राजनीति में महारानी बनकर बैठी वसुंधरा राजे राजनीतिक शतरंज पर अपने मोहरों की बिसात बिछाने में कुछ इस कदर काबिल हो गई हैं कि उनके एक इषारे पर शह और मात हो जाती है। अब यह माहिर खिलाड़ी
राजनीति में वजीर से लेकर प्यादे तक का इस्तेमाल करना अच्छी तरह जान गई हैं। 2013 के आम चुनाव से ठीक पहले युवाओं का मुद्दा उछालकर उन्होंने अपने बेटे दुष्यंत कुमार के लिए विधानसभा का रास्ता साफ कर लिया है। 40 वर्षीय दुष्यंत पहले ही 15 वीं लोकसभा में झालावाड़ से सांसद हैं। राष्ट्रीय राजनीति में दाग गलती न देखकर वसुंधरा राजे अपने बेटे दुष्यंत को राजस्थान विधानसभा में प्रमुख चेहरा बनाना चाहती हैं। इसीलिए बार बार युवाओं को आगे लाने के बहाने से वे दुष्यंत को राजस्थान की सक्रिय राजनीति से जोड़ना चाहती हैं। यूं भी वंषवाद और परिवारवाद शाही खानदानों का रिवाज़ रहा है। हो सकता है कि इस बार या अगली बार दुष्यंत राजस्थान की राजनीति में भावी मुख्यमंत्री के तौर पर प्रचारित किये जाएं। लेकिन यह ख्वाब तब पूरा हो सकता है जब उन वरिष्ठ नेताओं को राह से हटाया जाए जो अपनी विचारधारा और मूल भाजपा को बचाने का विवाद खड़ा कर राजे की राह में रोड़ा बने हुए हैं।

जड़ से जुड़े नेताओं को दूर करने की साजि़ष-
वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी का बीजारोपण किया, संरक्षण किया और कांग्रेस का विकल्प बना दिया। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर हो या प्रादेषिक स्तर पर, जड़ से जुड़े नेताओं को ’’युवाओं के आह्वान’’ की आड़ में भाजपा से दूर करने की कोषिष की जा रही है। राजस्थान में प्रदेषाध्यक्ष वसुंधरा राजे तो आलाकमान तक को झुकने पर मजबूर कर चुकी हैं। 2008 के विधानसभा नतीजों ने यह स्पष्ट कर दिया था कि प्रदेष भाजपा को अब जड़ से जुड़े अनुभवी नेताओं की आवष्यकता है। लेकिन वसुंधरा राजे तब तक 78 में 62 विधायकों को अपने पक्ष में कर चुकी थी। यही कारण रहा कि कई आरोपों से घिरने के बाद भी आलाकमान उनका इस्तीफा नहीं ले सका और समर्थकों के दबाव में पार्टी को एक बार फिर एक ऐसे नेतृत्व के हवाले कर दिया जिसमें न जनता को भरोसा रहा और न वरिष्ठ नेताओं को। वसुंधरा राजे वरिष्ठ भाजपा नेताओं को भाजपा से अलग करने के साम दाम दण्ड भेद, सभी तरीके अपना रहीं हैं, और आलाकमान मूकदर्षक बनकर देखने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहा है।

सवाल और भी हैं...
विषेष बात ये है कि सवालों का सिलसिला थमा नहीं है। वसुंधरा राजे को अग्निपरीक्षा से गुजरना है। वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं को अनदेखा कर क्या भाजपा प्रदेष में अपना खोया गौरव लौटा पाएगी। क्या भाजपा को अब वरिष्ठ नेताओं के अनुभव की आवष्यकता नहीं है? क्या भाजपा उन नेताओं से किनारा करके सफल हो जाएगी, जिन्होंने अपना पूरा जीवन निष्ठा से भाजपा को पुष्पित-पल्लवित करने में लगा दिया। आखिर किस मजबूरी के चलते आलाकमान कई आरोपों से घिरी वसुंधरा को एक बार फिर आगे कर रही है? जबकि साफ छवि के वरिष्ठ नेता बैकफुट पर धकेले जा रहे हैं।







---राकेश कुमार---
अभी एक फ्रीलॅन्स लेखक हैं | पूर्व में सन् २००२-०४ तक 
हिन्दुस्तान समाचार पत्र में कार्यरत थे | २००५-०७ तक 
स्टार न्यूज़ में कार्य किया | इसके बाद इन्होने स्वयम् 
एक न्यूज़ पोर्टल की शुरुआत की, जो की 
युवाओं के बीच काफ़ी लोकप्रिय रहा | 

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